(श्री माधव)
कैसे घूँघट का पट खोलूँ?
पिय हैं खड़े द्वार पर कैसे ‘आओ-भीतर’ बोलूँ?
कैसे घूँघट का पट खोलूँ?
शत शत जनमों के संस्कार बँधे हैं मेरे पग में।
अगणित पाप और अपराध खड़े हैं मेरे मग में॥
इन्हें चीर, मैं बन्दी कैसे हिय का सौदा तोलूँ?
कैसे घूँघट का पट खोलूँ?
आज अचानक आये हैं मेरे प्राणों-के-प्राण।
रोम-रोम में उत्कंठा है, कण-कण में कल्याण॥
किन्तु आज भी कैसे हिय के काले धब्बे धोलूँ?
कैसे घूँघट का पट खोलूँ?
श्वास-श्वास में तेरी गति है, प्राण-प्राण में तान।
अणु-अणु में तेरा कंपन है, तेरा ही मधु-गान॥
किन्तु आज इस लाचारी में कैसे तुझसे बोलूँ?
कैसे घूँघट का पट खोलूँ?
बहुत हटाया, हट न सका, यह बार बार गिरता है।
तेरे मेरे बीच प्राण! यह झिलमिला-सा हिलता है॥
युग-युग की इस विषम हार को प्यारे! कैसे तोलूँ!
कैसे घूँघट का पट खोलूँ?
मिटना, मिट-मिटकर बनना, बन बनकर मिट-मिट जाना।
यही हृदय ने सीखा है, पापों में सदा नहाना॥
है गहरा डूबा, इस पर भी बोलो क्या मैं बोलूँ?
कैसे घूँघट का पट खोलूँ?
लाख करूं, यह हट न सकेगा मेरे हटे हटाये।
प्रतिपल घना हुआ जाता है मेरे घटे घटाये॥
हाय! विवश बंदी की आहों में अब सर्वस खोलूँ?
कैसे घूँघट का पट खोलूँ?
मुझे अनावृत करने की ठानी है तूने ठान।
अवगुँठन यह रह न सकेगा तेरा है अभिमान॥
एक बार पिय! इसे हटा दो, मैं देखूँ और बोलूँ!
कैसे घूँघट का पट खोलूँ?
*समाप्त*