प्रतिघात और प्रतिकूलता

August 1944

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(डॉक्टर रामचरण जी महेन्द्र एम. ए. डी. लिट् (अमेरिका)

पराक्रमी व्यक्ति का जीवन पुष्प प्रतिघात एवं प्रतिकूलता की झंझावात में प्रस्फुटित होता है, संसार के विकट प्रहारों में परिपुष्ट होता है, और भयंकर परिस्थितियों में ही फलित भी हो जाता है। मानव मन की रचना कुछ ऐसी है कि उसकी असाधारण शक्तियों के विकास एवं अभ्युदय के निमित्त विकट प्रसंगों की परम आवश्यकता है। यदि वातावरण सरल रहे, तो मनुष्य की उत्कृष्ट शक्तियों के प्रकाश का अवसर कम है। विकट परिस्थितियों, कठोर प्रतिकूलता, सैंकड़ों विघ्न इन आन्तरिक शक्तियों को अन्तःकरण के भीतरी पट से प्रकाश में लाते हैं। स्थूल दृष्टि से जनसाधारण को जो विघ्न, अनिष्ट एवं कठोर प्रसंग प्रतीत होते हैं वे ही मनुष्य की गुप्त शक्तियों को उपयुक्त उत्तेजना प्रदान करते हैं।

क्या तुमने कभी इस तत्त्व पर विचार किया है? तुम्हारे जीवन में अनेक प्रतिघात एवं प्रतिकूलताएँ उपस्थित हुई। उनके प्रति तुम्हारी कैसी भावना रही। तुम तनिक सी प्रतिकूलता से व्यग्र हो उठे, घबराकर कायर बन बैठे, अन्तःकरण में तुच्छ विघ्नों से भयभीत बनकर बुज़दिल बन गये। इस प्रकार तुमने अपने हृदय में स्थित ईश्वरत्व को नष्ट कर दिया। तुमने प्रतिघात से प्रोत्साहन प्राप्त नहीं किया। वस्तुतः तुम्हें उन्नति की उत्तेजना प्राप्त नहीं हुई। तुम आज वहीं हो जहाँ से चले थे।

तनिक-तनिक सी प्रतिकूलताओं से व्यग्र होकर असंख्य मनुष्य पशु स्थिति में दिनों को धक्के दे रहे हैं। उनमें अद्भुत शक्तियाँ अन्तर्निहित हैं किन्तु वे यों ही व्यर्थ पड़ी पड़ी नष्ट हो रही हैं। उनका परिमार्जन नहीं किया गया अतः वे कुँठित हो गई और उन्होंने शनैः शनैः अपना व्यापार बन्द कर दिया। जो कुछ ये व्यक्ति प्राप्त कर सकते थे उसका एक क्षुद्र अंश ही प्राप्त कर सके। उनका उत्साह क्षीण हो गया और गुप्त सामर्थ्य का आदि स्त्रोत भी शुष्क हो गया। सामान्य प्रसंग और साधारण जीवन से मनुष्य की दिव्य शक्तियों का विकास नहीं होता। अन्तःकरण और इच्छा की अद्भुत शक्तियां ऊपरी परत (Lair) में नहीं रहतीं वे भीतरी पट में छिपी रहती हैं। हमारी उत्कृष्ट शक्तियों का केन्द्र स्थान भी यही मर्मस्थल है। अतएव आन्तरिक शक्तियों को प्रोत्साहित (Stimulate) करने के निमित्त किसी ऐसी चोट की परम आवश्यकता है जो शक्ति का स्त्रोत पुनः खोल दे।

एक बार महा पद्मानन्द ने चाणक्य के भरी सभा में लात मारी। इस अपमान से चाणक्य की सुप्त इच्छा और संकल्प की शक्तियाँ झंकृत हो उठीं। मर्मस्थल पर प्रहार से आन्तरिक शक्तियों को प्रोत्साहन प्राप्त हुआ उसका असामान्य (श्वफ्ह्लह्ड्ड-शह्स्रद्बठ्ठड्डह्ब्) पराक्रम प्रकट हुआ। प्रतिशोध को उत्तेजना मिली। उसने उसी समय राज दरबार में प्रतिज्ञा की और कहा-”ओ, राजकुलंक महानंद! तूने भरी सभा में एक निरपराध ब्राह्मण की अवहेलना की है। इसका प्रतिशोध तुझसे चाहे कुछ हो अवश्य लूँगा।” फिर भरी सभा की ओर मुख करके बोला-हे सभासदों! मैं चाणक्य हूँ। महानन्द ने आज मेरा तिरस्कार किया है। मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि जब तक नन्दवंश की ईंट से ईंट न बजा लूँगा तब तक मेरी चोटी इसी प्रकार खुली रहेगी और नागिन बनकर नन्दवंश को डस जाएगी।” ब्राह्मण के इस भयंकर संकल्प को सुनकर समस्त सभा सशंकित हो उठी। चाणक्य के मार्ग में अनेक प्रतिघात एवं प्रतिकूलताएँ आई किन्तु उसने संकल्प न छोड़ा। उद्देश्य पूर्ति में तत्पर रहा अन्त में उसने जैसा कहा था वैसा ही कर भी दिखाया। गौतम की साधना में प्रतिकूलता पर विजय प्राप्ति के अनेक ज्वलंत उदाहरण दृष्टिगोचर होते हैं। प्रताप के निरन्तर प्रयत्न महमूद गजनवी के 18 आक्रमण अनेक प्रतिघातों के अनन्तर सिद्धि को प्राप्त हुए थे।

यदि तुम कार्य सिद्धि के लिए निकले हो तो प्रतिघात एवं प्रतिकूलता की डरपोक विचारधारा को मनोमन्दिर में लाकर उसे कलुषित न करो। प्रतिकूलता के अवसर पर पुरुषार्थ द्वारा आत्म शक्ति को प्रकट करो। आन्तरिक शक्ति को जागृत करो। ये कठिन प्रसंग तो तुम्हारे परीक्षक हैं। क्या तुम इतनी सरलता से परीक्षा में फेल होना पसन्द करोगे? कदापि नहीं। सच्चे आत्मबन्धु ही ऐसे अवसरों पर चमक उठते हैं। गुप्त सामर्थ्य प्रकट होने का यही समय है। सामान्य व्यक्ति ऐसे अवसरों पर कुचल जा कर अवनति को प्राप्त होते हैं।

न प्रतिघात, न कोई प्रतिकूलता, न निरन्तर आने वाले विघ्न हमें अपने मनःस्थित गुप्त सामर्थ्य से वंचित कोई नहीं कर सकता। शक्तियों के उस अटूट भण्डार पर हमारा पूर्ण अधिकार है। उस शक्ति पुंज से हमारा अखण्ड सम्बन्ध है। कोई ऐसी ताकत नहीं जो हमें शक्ति के उस अगाध पुंज से दूर रखे। हाँ, प्रतिघात से वे सब हिल अवश्य उठती हैं, उत्तेजना प्राप्त कर लेती हैं और उस गहन स्थल से प्रकाशित होने को तैयार रहती हैं। जब मनुष्य को अपमान, पराभव, विफलता, तथा हास्य या और किसी प्रकार का प्रसंग उत्तेजना प्रदान करता है तो यकायक वे प्रकट हो जाती हैं। नरसिंग मेहता की अपूर्व भक्ति के प्रकट होने का कारण उनकी भौजाई के मार्मिक वचन थे। ध्रुव को उनकी सौतेली माँ ने इसी प्रकार की उत्तेजना प्रदान की थी। कालीदास और तुलसीदास को उनकी पत्नियों ने। सब ही शक्तियाँ मौजूद तो पहले ही से थीं। उत्तेजना के अवसर की आवश्यकता थी। प्रतिघात से उत्तेजना और उत्तेजना से आत्मशक्ति का प्रकटीकरण हुआ।

अपने को असमर्थ एवं अशक्त मानने वाला व्यक्ति कहता है-”हे प्रतिघात, तू मुझ बेचारे को क्यों तंग करता है। मैं जीवन में कुछ महत् कार्य करना नहीं चाहता। यों ही मन्दगति से घिसटते घिसटते रोते रोते जीवन समाप्त करूंगा। मैं श्रेष्ठ व्यक्ति नहीं बनना चाहता। मैं तो नगण्य हूँ। तुच्छ हूँ। रुकावटों और असंख्य बाधाओं का मारा हुआ थर थर काँपने वाला गरीब आदमी हूँ।” सामान्य व्यक्ति बस ऐसी क्षुद्र भावना के वशीभूत होकर स्वयं आप ही अपना शत्रु बन जाता है। वह ऐसे अपवित्र अनुपयोगी विचारों के कारण अपने ऊपर आने वाले घात प्रतिघातों को और आमन्त्रित करता है।

जिस व्यक्ति में दृढ़ निश्चय और गुप्त सामर्थ्य प्रकट हो जाते हैं वह चाहे अस्सी वर्ष का वयोवृद्ध ही क्यों न हो जाए मरण पर्यन्त जीवन में आश्चर्यकारक शक्तियों का उद्घाटन करता रहता है। वह अपने मन ही मन सोचा करता है कि “मुझे जीवन में एक ऐसा अद्भुत कार्य करना है कि संसार विस्मृत न करना चाहेगा। मुझ में गुप्त मनःशक्ति का पर्याप्त प्रादुर्भाव हो गया है। मेरी आत्मा में वह सामर्थ्य वृद्धि हो रही है कि कोई मुझे दबा नहीं सकता। मेरा मन पर्याप्त पुष्ट है, महान् है, दुःख, क्लेश, प्रतिकूलता पर विजय प्राप्त करने वाला है। मेरे लिये सब कुछ सम्भव है। मैं जो चाहूँ कर सकता हूँ। मेरी आत्मिक शक्तियाँ दैदीप्यमान होकर परम तेजोमय हो रही हैं।” इस प्रकार की संजीवनी शक्ति के शुभ विचारों में रमण करता करता ऐसा व्यक्ति उन्नति के मार्ग पर अग्रसर होता जाता है। उसकी आत्मा में महान् भद्र, शुभ संकल्प ही उदित होते हैं वस्तुतः वह बड़ा सामर्थ्यशील बन जाता है।

जिस व्यक्ति ने यह दृढ़ निश्चय कर लिया है कि मैं अत्युच्च बनूँगा। सौभाग्य, समृद्धि, आत्मिक पूर्णता प्राप्त करूंगा, वह अवश्य एक न एक दिन अपने मानसिक प्रवाह को अनन्त शक्ति के महासागर की ओर प्रवाहित कर देगा और अपने आदर्श अपनी अभिलाषा के अनुकूल उपयुक्त वातावरण उत्पन्न कर लेगा।

अत्यन्त अल्प संख्यक व्यक्ति इस तत्त्व को जानते, मानते या विश्वास करते हैं कि मन के साहसिक संकल्प में कितनी राजब की ताकत भरी पड़ी है। वस्तु जगत में आने वाली प्रत्येक साधारण या असाधारण वस्तु की प्रतिमा सर्वप्रथम मानस क्षेत्र में निर्मित होती है। यदि मनुष्य किसी अत्युच्च पदार्थ को अपनी मानसिक सृष्टि में भली भाँति निर्माण करे तो दृश्य सृष्टि में वह उसे और आकर्षक रूप प्रदान कर सकेगा।

जिस प्रकार सुन्दर बीज बोने से उत्तम फसल बनती है इसी प्रकार बलवान् विचारधारा से मनुष्य में प्रतिघात और प्रतिकूलता से युद्ध करने का पुरुषार्थ प्रकट होता है। ऋद्धि सिद्धि को प्राप्त करने का आदि स्थल मनुष्य के मन में स्थित है, वहीं से उसे प्रकट करने का प्रयत्न करना चाहिए।

प्रतिकूलता तथा प्रतिघात से हम सदैव बाजी जीतेंगे-ऐसी भावना पर मानसिक केन्द्र दृढ़ करो। मन में दृढ़तापूर्वक कहो-हम विपत्ति से विचलित कदापि नहीं होते, प्रतिकूलता से कभी नहीं डरते। इन्हें पराजित करने के लिए हममें शक्ति है। हम में वही अद्भुत शक्ति है जो महापुरुषों में थी अतः अब मैं अस्त व्यस्त कदापि न होऊँगा प्रत्युत अपनी अन्तःस्थित आध्यात्मिक शक्ति के बल पर अत्यन्त वेग से अग्रसर हूँगा। अल्पज्ञान के कारण मैं अन्तःस्थित अगाध सामर्थ्य को अवश्य प्रकट करूंगा। अभी तो मेरी शक्तियों का कुछ ही अंश प्रकट हुआ है। असली कार्य तो मैं अब प्रारम्भ करूंगा।”

“मैं जान गया हूँ कि विपत्ति, प्रतिघात और प्रतिकूलता तो मनुष्य की जड़ता को दूर करते हैं फिर उत्तेजना प्रदान कर उसके चैतन्य अंश को प्रोत्साहित करते हैं। जो कार्य श्रीमान् व्यक्ति अनुकूल दशा में सम्पादन नहीं कर सकते वहीं कार्य साधारण व्यक्ति प्रतिकूल परिस्थिति में पूर्ण कर डालते हैं। बस, आज से मैं जागृत हो गया हूँ।”

प्रतिकूलता और प्रतिघात हमारे शत्रु नहीं, मित्र हैं। ये हमारी गुप्त शक्तियों का साक्षात्कार कराते हैं।


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