चिन्ताओं से घबराइये मत

September 1943

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(मित्रभाव बढ़ाने की कला)

जीवन को एक प्रकार का खेल समझिए। खिलाड़ी की तरह पार्ट अदा करिए और पल्ला झाड़ कर अलग हो जाइए। वैराग्य, निष्काम कर्म अनासक्ति, की योग शास्त्र में बार-बार शिक्षा दी गई है, यह कोई अव्यावहारिक या काल्पनिक विषय नहीं है वरन् कर्मशील मनुष्यों का जीवन मंत्र है। जिन लोगों पर अत्यन्त कठोर उत्तरदायित्व रहते हैं, जिनके ऊपर असंख्य जनता के भाग्य-निर्माण का भार है, उनके सामने पग-पग पर बड़े-बड़े कठिन, पेचीदा, इतने अधिक और भारी काम सम्मुख उपस्थित रहते हैं जिन्हें देखते ही साधारण मनुष्यों के छक्के छूटते हैं, कठिनाई ऐसी-ऐसी भयंकर आती हैं जिनकी पर्वत को उंगली पर उठाने से समता दी जा सकती है। वे कर्मशील उन कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करते हुए अपने महान कार्यों को पूरा करते रहते हैं।

वर्तमान काल में महायुद्ध अत्यन्त प्रबल वेग से चल रहा है, इसमें युद्धरत राष्ट्रों के कर्णधारों तथा प्रधान सेनापतियों के ऊपर असाधारण उत्तरदायित्व का भार है। चर्चिल, रुजवेल्ट, चाँगकाई शेक, स्टेलिन, हिटलर, टोजो प्रभृति व्यक्तियों को एक साथ कितने कार्य करने पड़ते हैं कितनी पेचीदा गुत्थियाँ सुलझानी पड़ती हैं, कितने नित नये संघर्षों का सामना करना पड़ता है। वे अपने काम को भली प्रकार करते हैं, न तो बीमार पड़ते हैं, न बेचैन होते हैं, न घबराते हैं। रात को पूरी नींद लेते हैं, आमोदों में भाग लेते हैं, हंसते खेलते हैं, उत्सव भोजों में शरीक होते हैं, यदि मामूली आदमी पर इतना कार्य भार आ पड़े तो वह चिन्ता से व्याकुल होकर खाना भूल जायेगा, फिक्र के मारे नींद न आवेगी, हंसना बोलना न सूझेगा, चिड़-चिढ़ाने लगेगा, सूख-सूख कर काँटा हो जायेगा और संभव है कि थोड़े ही दिनों में मर खप जाये। परन्तु जो लोग कर्मशील हैं एक-एक मिनट जिनका मशीन के पुर्जे की तरह काम करते-करते हुए बीतता है वे न तो बीमार पड़ते हैं और न कमजोर होते हैं वरन् पहले की अपेक्षा और भी अधिक स्वास्थ्य होते चले जाते हैं।

एक हम हैं जो मामूली सी दो चार कठिनाइयाँ सामने आने पर घबरा जाते हैं, चिन्ता के मारे बेचैन बने रहते हैं। यह मानसिक कमजोरी है आत्मबल का अभाव है, नास्तिकता का चिन्ह है। मानसिक संतुलन खोकर घबराहट में पड़ जाना अपनी शक्तियों को नष्ट-भ्रष्ट कर देना है। बेचैन मस्तिष्क ठीक बात सोच नहीं सकता, उसमें उचित मार्ग ढूँढ़ने योग्य क्षमता नहीं रहती, आपत्ति से छुटकारा पाने के उपाय तलाश करने के लिए गंभीर स्थिर और शान्त चित्त की आवश्यकता है पर उसे पहले ही खोद दिया जाये तो जल्दबाजी में सिर्फ ऐसे उथले और अनुचित उपाय सूझ पड़ते हैं जो कठिनाई को और भी अधिक बढ़ाने वाले होते हैं। जाल में फंसा हुआ पक्षी जितना ही फड़फड़ाता है उतना ही और अधिक फंसता जाता है, उसके बंधन उतने ही अधिक कढ़े होते जाते हैं।

कार्य की अधिकता, असुविधा या चिन्ता का कारण उपस्थित होने पर आप उसको सुलझाने का प्रयत्न करिए। इनमें सबसे प्रथम प्रयत्न यह है कि मानसिक संतुलन को कायम रखिए, चित्त की स्थिरता और धैर्य को नष्ट न होने दीजिए। घबराहट तीन चौथाई शक्ति को बर्बाद कर देती है, फिर विपत्ति से लड़ने के लिए एक चौथाई भाग ही शेष बचता है इतने स्वल्प साधन की सहायता से उस भारी बोझ को उठाना सरल नहीं रहता। कहते हैं कि विपत्ति अकेली नहीं आती उनके पीछे और भी बहुत से झंझट बंधे चले आते हैं कारण यह है कि चिंता से घबराया हुआ आदमी अपनी मानसिक स्वस्थता खो बैठता है और जल्दबाजी में इस प्रकार का रवैया अख़्तियार करता है जिसके कारण दूसरे काम भी बिगड़ जाते हैं तथा एक के बाद एक दूसरे अनिष्ट उत्पन्न होते जाते हैं। यदि मानसिक स्थिति पर काबू रखा जाय चिन्ता और बेचैनी से घबराया न जाया जाय तो वह मूल कठिनाई भी हल हो सकती है और नई शाखा प्रशाखाो से भी सुरक्षित रहा जा सकता है।

यह जीवन खेल या नाटक की तरह मनोरंजन का स्थान मानना चाहिए। अपने कर्त्तव्य का उत्तरदायित्वपूर्ण रूप से अनुभव करिए किन्तु घटनाओं या कार्यों का इतना प्रभाव अपने ऊपर मत पड़ने दीजिए कि चित्त चंचल एवं विक्षुब्ध हो उठे, दैनिक कार्य छूट जाएं, प्रसन्नता नष्ट हो जाये या नींद में विक्षेप पड़ने लगे। खेल में बार-बार जीत होती है, बार-बार हारना पड़ता है, कभी आशा का संचार होता है कभी निराशा दिखाई पड़ती है, यह सब होते हुए भी खिलाड़ी खेलता रहता है, उतार चढ़ाव की स्थितियों को देखता है, उसको बर्दाश्त करता है पर इतना प्रभावित नहीं होता कि चिन्ता की शाँति खो दे शोक से रोने लगे तो चिन्ता से घबरा जावे या हर्ष से नाच उठे। खेल के समय भावों को थोड़ा सा उभाड़ होता है पर घर आते ही खिलाड़ी पल्ला झाड़ कर अलग होता है, उस हार जीत को भूल जाता है और शान्तिपूर्वक चादर तानकर सोता है।

ऐसा ही दृष्टिकोण व्यवहारिक जीवन में रहना चाहिए। ईश्वर की इच्छा, प्रकृति की प्रेरणा, संचित संस्कारों के कर्म फल के अनुसार प्रिय अप्रिय प्रसंग हर किसी के सामने आते हैं, उनका आना रोका नहीं जा सकता, भगवान रामचन्द्र योगेश्वर कृष्ण तक को विपत्तियों से छुटकारा न मिला। होतव्यता कभी-कभी प्रबल होती है कि प्रयत्न करते हुए भी उनसे बचाव नहीं हो सकता। ऐसे अवसरों पर मूर्ख लोग अपना खून सुखाते हैं, छाती पीटते हैं, रोते-झींकते हैं और मर मिटते हैं, बुद्धिमान लोग जीवन की वास्तविक स्थिति पर नवीन विचारधारा से विचार करते हैं, जो होना था हुआ, जो होना ही है, सो होगा, घबराने से कुछ लाभ नहीं, वरन् दूसरी हानि है, कार्य नष्ट हुआ, साथ ही शरीर भी नष्ट करना। यह कोई समझदारी का काम थोड़े ही है। इसलिए विवेकवान अपने मस्तिष्क पर काबू करते हैं और खिलाड़ी की भाँति बड़ी कठिनाई को छोटी करके देखते हैं। इसका अर्थ उत्तरदायित्व की उपेक्षा करना नहीं वरन् यह है कि कठिनाई से पार होने के लिए शक्ति को सुरक्षित रखा जाय, उसका अपव्यय न होने दिया जाय। चिन्ता और शोक की घबराहट में सिवाय बर्बादी के लाभ कुछ नहीं है इसलिए इस मानसिक दुर्बलता को परास्त्र करने का शक्ति भर प्रयत्न करना चाहिए।

आप संसार के कर्मनिष्ठ महापुरुषों से शिक्षा ग्रहण कीजिए, अपने को धैर्यवान बनाइए, काम को खेल की तरह करिए, कठिनाइयों को मनोरंजन का एक साधन बना लीजिए। अपने मन के स्वामी आप रहिए, अपने घर पर किसी दूसरे को मालिकी मत गाँठने दीजिए, चिन्ता, शोक आदि शत्रु आपके घर पर कब्जा जमाकर, मस्तिष्क पर अपना काबू करके आपको दीन दरिद्र की भाँति दुखी करना चाहते हैं और शान्ति तथा स्वास्थ का हरण करके व्यथा वेदनाओं की चक्की में पीसना चाहते हैं इनसे सावधान रहिए। यदि शत्रुओं को अपने मस्तिष्क पर कब्जा कर लेने में सफलता मिल गई तो आप कहीं के न रहेंगे। भ्रम और अंजाम के बन्दीगृह में पड़े बुरी तरह सड़ते रहेंगे और स्वनिर्मित नरक में अपनी सुलगाई हुई अग्नि से स्वयमेव जलते रहेंगे, यह बहुत ही भद्दी और दुखदायी स्थिति होगी।

जब कि संसार में अनेक लोग आपसे हजारों गुनी कठिनाइयों का सामना करते हैं अनेक गुना अधिक परिश्रम करते हैं, अनेक गुने घात प्रतिघातों को सहते हैं फिर भी हंसते रहते हैं और स्वास्थ्य बढ़ाते रहते हैं तो क्या कारण है कि आप जरा सी घर गृहस्थी की समस्या के कारण, थोड़े से नुकसान के कारण, साधारण से कष्ट के कारण इतने घबराते हैं? भविष्य की काल्पनिक आशंका के कारण बुरी तरह हड़बड़ाये रहते हैं? आप अकेले ही इस दुनिया में कष्ट ग्रसित नहीं है लाखों करोड़ों मनुष्य ऐसी ही या इससे भी बड़ी कठिनाइयों का मुकाबला कर रहे हैं, फिर भी क्यों नहीं आप उनसे शिक्षा ग्रहण करते? क्यों नहीं अपने ऊपर काबू रखते? क्यों नहीं विवेक बुद्धि को जागृत करके हानिप्रद मानसिक कमजोरी को मारकर दूर भगा देते?

दुनिया में हर एक के सामने अप्रिय प्रसंग आते हैं ऊंचे चढ़ने वालों के सामने तो वे और भी अधिक संख्या में आते हैं, उनसे घबराने या डरने से कर्मयोग की उपासना नहीं हो सकती। कर्त्तव्य का पथ संघर्षमय है, उसमें हर क्षण पर बाधाएं आती हैं और उन्हें हटाने के लिए निरन्तर युद्ध करते रहना पड़ता है। आप एक बहादुर सिपाही की तरह विघ्न बाधाओं को कुचलते हुए आगे बढ़ते चलिए, जीवन को खेल समझिए, परिस्थितियों के प्रभाव से मस्तिष्क को बेकाबू मत होने दीजिए, धैर्य रखिए, भली बुरी परिस्थितियों में एक समान हंसते रहिए, मानसिक संतुलन नष्ट मत होने दीजिए, कर्मयोग का आनन्द दायक सूत्र यह है कि सदा प्रसन्न रहिए और ईश्वर को स्मरण रखिए।

कार्य को करना ही मनुष्य का कर्त्तव्य है। उसका फल तो यथायोग्य मिल ही जाता है।

आपत्तियों पर जितना ध्यान दिया जायेगा। उतनी ही बढ़ती हैं। इन पर ध्यान न देने से वे भी दूर हो जाती हैं।


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