(ब्रह्मविद्या का रहस्योद्घाटन)
यदि कर्म करते समय फल से मिलने वाले सुख का काल्पनिक महल न खड़ा किया जाय तो उसमें संयोगवश असफलता हो जाय तो भी दुख नहीं होता। इसलिए भगवान कृष्ण ने निष्काम को ‘योगी’ कहा है, यही कर्म की कुशलता है। पुत्र पालन को अपना पुनीत कर्त्तव्य समझा जाय, एक प्राणी की निस्वार्थ सेवा का भाव रखा जाय हमारे माता-पिता ने जैसे इसे पाल पोस कर बड़ा किया था वैसे ही एक प्राणी स्नेह सेवा करके कर्ज अदा करने का भाव रखा जाय, ईश्वर की दी हुई अमानत को ब्याज समेत उसे वापिस देने का स्मरण रखा जाय, तो वह पुत्र पालन ही यज्ञ के समान पुण्य फल का देने वाला हो सकता है। पालन के समय जो त्याग, सेवा, कष्ट सहन, तप करना पड़ता है उसमें पल पल पर आन्तरिक आनंद और संतोष मिलता है, प्रसन्नता बढ़ती है और आत्मबल की उन्नति होती चलती है। दो आदमी अपने अपने पुत्र का पालन करते हैं एक फल की आशा से पच्चीस वर्ष प्रतीक्षा करता है और यदि परिणाम वैसा न निकला तो दुख से छाती पीटता है, दूसरा आदमी आशाओं के वैसे महल नहीं बनाता, वरन् वर्तमान समय में जो त्याग, स्नेह और सेवा पूर्वक एक प्राणी का पालन कर रहा है उसे धर्म समझ कर अपनी धर्मपरायणता पर संतोष करता है उसके लिये हर घड़ी आनन्द ही आनन्द है। पहला आदमी जबकि पच्चीस वर्ष आशा लगाये बैठा रहा तब तक दूसरे आदमी ने अपनी कर्त्तव्य परायणता का इतना आनन्द भुगत लिया जो बेटे की कमाई खाने की अपेक्षा हजारों गुना अधिक था। यदि पुत्र इच्छा के प्रतिकूल निकलता है या मर जाता है तो फल की आशा वाले को दुःख होगा, परन्तु सेवा भावी के लिए वैसी कोई बात नहीं है, उसने ममता की उपासना नहीं की है इसलिए हानि का दुख क्यों होगा? ममता ही की दुःख जननी है, निस्वार्थ को शोक संताप हो नहीं सकता।