दुख में ही सच्चा सुख है।

September 1943

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(ले. श्री राधाकृष्ण पाठक सुपावली, ग्वालियर)

हमारे इकलौते पुत्र का ऐसी अवस्था में देहावसान होने पर जब कि आयन्दा कोई आशा नहीं है चित्त को बड़ी चिन्ता हुई। श्वेत-श्वेत केशों को देख इच्छा हुई कि चलो सुख की खोज करें और उसके आश्रित बने। काशतकारों, जमींदारों, राजा, रईसों, सेठ, साहूकारों के द्वार की धूल खाई, पर प्रत्येक को किसी न किसी वासना में लिप्त होने के कारण सुखी न पाया।

शाम का समय था इसी उथल-पुथल में पड़ा। करवटें बदल रहा था, इतने में मेरे एक मित्र पं.-तुलसीराम ज्योतिषी जी के पुकारने का शब्द कानों में पड़ा। उठा और उन्हें अन्दर ले आया-ज्योतिषी जी मुझे चिन्ताग्रस्त देख बोले, चलो जी एक महात्मा जी पधारे हैं दर्शन करें, ये सब चिन्ता दूर करेंगे। एक दम शरीर में स्फूर्ति दौड़ गई और चल दिया। दण्डवत प्रणाम कर दोनों बैठ गये। भला मुझे कब चैन था प्रार्थना की कि भगवान सुख कहाँ है, कैसे प्राप्त हो यह सुन महात्मा जी बड़े जोर से कह कहा कर हंस पड़े, फिर मौन हो गये। इस व्यवहार से कुछ बुरा लगा और उठने का विचार करने लगे, परन्तु सत्य है कि ‘स्वच्छ आत्मा का आदर्श सर्वत्र प्रकट होता है’ महात्मा जी बोले कि भाइयों, आपने वासनाओं की पूर्ति को जो कभी पूरी नहीं होतीं सुख समझ रखा है स्मरण रखिये कि इनके पूर्ति होने की इच्छा ही दुख है। यदि आप सुख चाहते हैं तो इन थोथी इच्छाओं के योग्य सामग्री न खोजें, बल्कि सामग्री के योग्य इच्छा बनायें नहीं तो सामग्री स्वरूप इच्छा की पूर्ति न होने पर उसी प्रकार अपमानित होकर दुख उठाना पड़ेगा, जिस प्रकार 50 व्यक्तियों की सामग्री होने पर 100 व्यक्तियों को निमन्त्रित कर देने वाले को उठाना पड़ता है।

यदि दुख को पाप कर्मों के फलस्वरूप परम पिता परमात्मा का दिया हुआ दण्ड समझते हैं, तो उसमें उस पिता की प्राप्ति का अपूर्व लाभ और पापों के नाश की अमृत बूटी समझ प्रेम करिये। यदि परमात्मा की ओर से सत्यवादी हरिश्चन्द्र जैसी परीक्षा समझें तो भी सत्य प्रेम खुशी मनाइये, हंसिये और हंसाइये, परन्तु डरिये मत निश्चय रखिये कि ‘दुख में सच्चा सुख’ जो देवताओं को भी दुर्लभ है मौजूद है।


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