संन्यास या कर्म योग?

July 1943

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(योगी अरिविन्द घोष)

गीता में भगवान् श्री कृष्ण ने बारम्बार अर्जुन को संन्यास का आचरण करने से क्यों रोका है? उन्होंने संन्यास धर्म का गुण तो सहर्ष स्वीकार किया है, पर वैराग्य और कृपा के वश अर्जुन के बार बार जिज्ञासा करने पर भी श्री कृष्ण ने कर्म पथ को न मानने की अनुमति नहीं दी। अर्जुन ने जिज्ञासा की कि यदि कर्म से कामना रहित योग युक्त बुद्धि श्रेष्ठ है जो आप क्यों गुरुजनों की हत्या रूपी भाषण कर्म में मुझे प्रवृत्त कर रहे हैं? बहुतों से अर्जुन का यह प्रश्न पुनरुत्थान कर गया है अर्थात् आजकल बहुत से लोग अर्जुन के पक्ष में हैं, यहाँ तक कि कितने ही लोग भगवान् श्रीकृष्ण को निकृष्ट धर्मोंपरिष्ट और कुपय प्रवर्तक कहने में भी संकुचित नहीं हुए।

भगवान् कृष्ण ने समझाया है कि संन्यास से त्याग श्रेष्ठ है अर्थात् अपनी इच्छा से भगवान् का स्मरण करके निष्काम भाव से अपने धर्म की सेवा करना ही श्रेष्ठ है। त्याग का अर्थ कामना या इच्छा का त्याग है। इस त्याग की शिक्षा के लिये पर्वत अथवा निर्जन स्थान में आश्रय लेने की आवश्यकता नहीं। भगवान् का यह उद्देश्य सही है कि यह आनन्दमय क्रीड़ा ढोंगियों का खेल हो अर्थात् अनधिकारी लोग गेरुआ वस्त्र धारण कर ‘संसार मिथ्या है’, आदि बाते कह कर ढोंग रचें। ईश्वर तो जीव जीव को अपना सखा और साथी बनाकर संसार में कर्तव्य कराता हुआ आनन्द का स्रोत बहाना चाहता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118