आपत्ति धर्म

July 1943

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युग परिवर्तन के सन्धिकालों में अक्सर बड़े विप्लव, युद्ध, क्लेश तथा दुर्भिक्ष होते हैं। पूर्व समय में त्रेता के अन्त और द्वापर के आरम्भ की संधि में एक बड़ा भारी दुर्भिक्ष पड़ा। ऐसा बड़ा अकाल उस युग में पहले कभी नहीं हुआ था। अन्न के दर्शन दुर्लभ हो गये। लोग भक्ष अभक्ष खाकर जैसे तैसे अपना जीवन निर्वाह करने लगे।

विश्वामित्र ऋषि भी इस भयंकर समय में भूख से पीड़ित होकर इधर-उधर व्याकुल फिरने लगे। करते क्या अन्न मिलना कठिन था, क्षुधा की पीड़ा से प्राण जाने का प्रश्न उपस्थित हो रहा था। अभक्ष खाने में धर्म जाने का भय था। मन में बड़ा संघर्ष खल रहा था, एक ओर प्राण जाने का भय था दूसरी ओर धर्म मर्यादा थी।

ऋषि, तत्व दर्शी थे, यदि लकीर के फकीर और अन्धविश्वासी होते हो वर्तमान काल के कूपमंडूक और अंध विश्वासी धर्मध्वजियों में और विश्वामित्रजी में क्या अन्तर रहता। परिस्थितियों की पेचीदगी में धर्म के मूल तत्व पर उन्हें विचार करना पड़ा। मनुष्य की आत्मोन्नति के लिए धर्म व्यवस्था की रचना विद्वान् पुरुषों ने की है। न कि किसी अनावश्यक बन्धन में बाँधकर जीव की स्वाभाविक आत्मोन्नति को रोकने के लिए उन्हें बनाया गया है। यह व्यवस्थाएं आवश्यकतानुसार बदलती हैं और आपत्तिकाल में उन्हें बदलना पड़ता है।

विश्वामित्र ने सोचा यदि भोजन जैसी साधारण व्यवस्था की हठ में प्राण चले गले तो यह कोई बुद्धिमानी न होगी। शरीर ईश्वर का मन्दिर है, ईश्वर की आज्ञाओं का संसार में प्रचार करने के लिए इस शरीर का रहना आवश्यक है। इसलिए मुझे अपेक्षा भोजन करके भी शरीर को जीवित रखना चाहिए। ऐसा निश्चय करके विश्वामित्रजी जैसे भी मिले, जो भी मिले, उसी भोजन को प्राप्त करने के लिए चल दिये।

चलते चलते कोशिका पुत्र विश्वामित्र एक चाण्डालों के नगर में पहुँचे। अन्न उनके यहाँ था ही कहाँ? माँस उन लोगों के घरों में मौजूद था पर माँगने से यह लोग कष्टोपार्जित माँस मुफ्त में देने को तैयार न होते। इसलिए दो प्रहर रात्रि व्यतीत होने पर जब सब लोग सो गये तो विश्वामित्र चुपके चुपके एक चाँडाल के घर में घुसे और एक मरे हुए कुत्ते की टाँग का माँस चुराने लगे।

आहट पाकर घर का मालिक जाग पड़ा। वह कृष्ण वर्ण, दैत्याकार चाण्डाल अपनी लाल लाल आंखें मलता हुआ उठ बैठा और लाठी लेकर कर्कश स्वर में गर्जना करता हुआ माँस चुराने वाले को मारने के लिए लपका।

आपत्ति को आगे आती हुई देखकर ऋषि ने चिल्ला कर कहा-”अरे भाई, मारना मत, मैं विश्वामित्र हूँ” चाण्डाल के पांवों तले से जमीन खिसक गई। उसे सहसा अपने कानों पर विश्वास न हुआ। मेरे घर में और कुत्ते का माँस चुराने के लिए विश्वामित्र जी आवेंगे? यह भला कैसे संभव है। उसने दीपक जलाया और बार बार आँख खोलकर देखा, यह सचमुच विश्वामित्र ही थे।

चाण्डाल ने कहा- हे ब्रह्मन्! आप यह क्या कर रहे हैं? एक तो चोरी करना पाप, दूसरे चाण्डाल के घर से, इस पर भी कुत्ते का माँस, यह तो तिगुना पाप है आप तो धर्म के आधार हैं, इस पर भी ऐसा कार्य करने को क्योंकर तैयार हो गये? आपको ऐसा करना उचित न था।

विश्वामित्र ने कहा- है श्वपच! तेरा कहना ठीक है। पर जिस धर्म का तू उपदेश कर रहा है वह साधारण समय के लिए है। आपत्ति काल के लिए आपत्ति धर्म अलग है। यदि कभी दो अत्यन्त बुरे काम सामने आवें जिसमें से एक को किये बिना छुटकारा न मिले तो कम बुरे काम को कर लेना चाहिए। यदि मेरा शरीर मोहग्रस्त अवस्था में केवल मेरा ही होता तो समाज की साधारण व्यवस्था कायम रखने के लिए भी उसे त्यागा जा सकता था, पर अब तो यह शरीर मेरा न रहकर समस्त संसार का हो गया है, यह दिन रात विश्व कल्याण के कार्यों में जा रहता है इसलिए इसकी रक्षा के लिए खान पान सम्बन्धी नियम तोड़ देने में कुछ हर्ज नहीं। किसी महान् कार्य के करने में यदि छोटी मोटी बुराइयाँ होती हों तो उनके लिए सोच नहीं करना चाहिए। लोक कल्याण के लिए, पवित्र उद्देश्य से चोरी आदि त्याज्य कर्म भी किये जा सकते हैं और उनका पाप, कर्ता को नहीं लगता।

उपदेश बहुत गंभीर था। चाण्डाल उसे समझने में समर्थ नहीं हो सका। उसने कहा- ब्रह्मन्! मैं स्वेच्छा से यह नहीं कह सकता कि आप इस कुत्ते की टाँग के माँस को चुरा ले जाइए। मैं मुँह फेरकर खड़ा हो जाता हूं आप मेरी दृष्टि बचाकर इसे ले जा सकते हैं।

ऋषि ने समझा कि यह अपनी मनोभूमि के अनुसार ठीक ही कहता है वे उसकी दृष्टि बचाकर कुत्ते की टाँग चुरा लाये और उसको पकाकर यज्ञार्पण करके भोजन किया और अपने प्राण बचाये। महाभारत में लिखा है कि उस भोजन की यज्ञाहुति प्राप्त करके देवता लोग बहुत प्रसन्न हुए जिससे तुरन्त ही घनघोर वर्षा होने लगी और दुर्भिक्ष मिट गया। ऋषि के यज्ञ कर्म से पृथ्वी पर खूब अन्न उत्पन्न हुआ और प्रजा के कष्टों का अन्त हो गया।

मोटी बुद्धि के चाण्डाल को कुत्ते का माँस चुराना अधर्म प्रतीत होता था पर ऋषि दृष्टि और देव दृष्टि से यह आपत्ति धर्म के अनुसार यज्ञ कार्य था। ऐसे यज्ञ भी सर्वथा पुण्यमय और लोक कल्याणकारी ही होते हैं।

कृतज्ञता ज्ञापक

इस मास ज्ञान यज्ञ की सहायता के लिए कागज फण्ड में निम्नलिखित सहायताएं प्राप्त हुई हैं। अखण्ड-ज्योति प्रेषक महानुभावों के प्रति अपनी आन्तरिक कृतज्ञता प्रकट करती है।

3॥) श्री जगत नारायणजी कत्थावाले, पिनाहट।

1)श्री बंशीघरजी लोहिया, कोटरा।

1) श्री आनन्दरुपरुजी गुप्ता, हापुड़।

1) श्री सूरज प्रसाद जी बजाज, शाहाबाद।

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क्षमायाचना

कुछ आपत्ति से जून की अखण्ड ज्योति बहुत ही खराब छपी और 11 दिन लेट निकली, इसके लिए अनेक पाठकों ने पत्रों द्वारा रोष प्रकट किया है। अपना प्रेस न होने के कारण अप्रिय प्रसंगों को मन मारकर सहन करना पड़ता है। आगे से ठीक छपाई हो इसका विशेष सावधानी से प्रयत्न करेंगे और जहाँ तक संभव होगा भविष्य में ऐसे कटु अवसर न आने देंगे। जून की खराब छपाई और लेट निकलने के लिए पाठकों से हम कर-बद्ध क्षमा प्रार्थी हैं। -श्रीराम शर्मा।


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