(रचयिता-श्री महावीर प्रसाद विद्यार्थी, टेढ़ा उन्नाव)
देख, खुला है द्वार, पुजारी !
बैठ गया क्यों फेंक धूल में, फूलों का यह हार पुजारी। स्वर्ण-कमल से खिले हुए हैं मन्दिर के वे कलश मनोहर, मलयानिल के मृदु अंचल में फहर रहा केतन पट सुन्दर, दृग मींचे तू सोच रहा क्या देख तनिक उस पार पुजारी। 1। क्या सहलाता इन छालों को तू पूजा का थाल उठालें, देख रहा तू क्या पथ पर ये पर्वत, ये नदियाँ, ये नाले, शीतल हो जायेंगे क्षण में ये जलते अंगार, पुजारी। 2। पल में अरे! समा जाएंगे तव प्रवाह में ये सब सागर, मिल जाएँगी नदियाँ तुझमें डूबेंगे नभ-चुम्बी गिरिबर, रुक न सकी है अब तक जग में शुद्ध प्रेम की धार, पुजारी। 3। साज सजाए आज जा रहा तू जिसकी पूजा करने को, आएगा वह स्वयं दौड़कर तुझसे पथ में ही मिलने को, गूँथ हृदय के टुकड़े तुझको पहनाएगा हार, पुजारी। 4।