पथिक (kavita)

May 1940

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पथिक

(1)

पथिक! सजग हो, आँख खोल, हा! कैसी निद्रा आई है!

होजा होजा सावधान, उठ, कैसी बुद्धि गंवाई है!

अरे मूर्ख! क्या नहीं जानता, कहां पड़ा है आकर तू!

अभी समय है चेत! चेत!! करले प्रयत्न कुछ जाकर तू!

(2)

गये सभी साथी हैं तेरे, यहाँ न कोई अपना है!

जिसको समझा है अपना, वह मृग तृष्णा है, सपना है!

‘तू—तू मैं—मैं की भट्टी में वहाँ निरन्तर जलना है!

पथिक! कहीं यह भूल न जाना कितना तुझको चलना है!

(3)

बेशक मार्ग कठिन है तेरा, पर इसकी परवाह न कर!

चुभते काँटे हों पगतल में, ले निकाल पर आह न कर!

देख सामने वही देश है तुझको जहाँ पहुँचना है!

इस सराय में क्यों ललचाया किसको यहाँ ठहराना है!

स्मरण शक्ति और उसका विकास

(ले.—श्र. गिरराज किशोर विशारद, चिरहोली)

(4)

पीछे के तीन लेखों में स्मरण शक्ति के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा जा चुका है। परन्तु यह विषय इतना गंभीर है इस पर जितना भी कहा जाय कम है। मनुष्य का मस्तिष्क इतना गूढ़ है कि उसकी याहडडडडड पा लेना आसान नहीं। कहते हैं कि जो ‘पिंड में सो ब्रह्माण्ड में’ संसार के अन्दर जो शक्तियाँ भरीं हुई हैं वह शरीर के अन्दर भी हैं। यों कहा जा सकता है कि प्रकृति के अजायब घर का छोटा मानचित्र मनुष्य का शरीर है। स्थूल पदार्थों का प्रतिनिधित्व यह पंच भौतिक शरीर करता है तो विश्व व्यापी सूक्ष्म चेतनाओं की तस्वीर मस्तिष्क है। इस अद्भुत अवयव की वैज्ञानिक खोज शताब्दियों से हो रही है। अब तक जितनी जानकारी इसके सम्बन्ध में प्राप्त की जा सकी है। वह बहुत ही कम है। मस्तिष्कीय श्वेत बालुका का क्या कार्य है विज्ञान अभी यह भी नहीं जान पाया है। फिर भी अब तक जो शोध हुई है हम सब लोगों को आश्चर्य में डाल देने के लिए काफी है। इस अद्भुत यंत्र में पृथ्वी को डावांडोल कर देने की शक्ति है। एक दो दस आदमियों की आर्थिक एवं सामाजिक दशा बदलने की नहीं समस्त भूमण्डल में उलट पुलट पैदा कर देने की ताकत है। कार्लमार्क्स का मस्तिष्क पैसे की दुनिया में एक पहेली बन गया है। यूरोप का रावण-हर हिटलर-विश्व भर में अपने मस्तिष्क का आतंक जमाये हुए है, उसके त्रास के मारे करीब आधी दुनिया की नींद हराम हो रही है। जिन महापुरुषों के मस्तिष्कों ने रेल तार बिजली आदि आधुनिक पंत्रों का निर्माण किया है आप लोग उनके नाम भी जानते होंगे पर आप यह देखते हैं कि पिछली शताब्दियों की अपेक्षा अब हमारे जीवन की धारा ही बदल गई है। हिन्दू समाज की चिर कालीन धार्मिक प्रथाओं में स्वामी दयानन्द का मस्तिष्क कितनी क्रान्ति कर गया। कमाल पाशा ने टर्की को सिर पर उठा कर पश्चिम से पूरब में पटक दिया। यह कार्य शरीर के नहीं हैं। शरीर का बल नगण्य है। मानसिक बल के सामने उसका आस्तित्व इतना ही समझना चाहिए जितना विशाल वृक्ष में एक पत्ती का।

इस लेख में मस्तिष्क की बनावट और उसकी महान् कार्य शक्ति पर विचार करने की हमारी इच्छा नहीं है क्योंकि लेख की परंपरा स्मरण शक्ति के संबंध में है। इन पंक्तियों को लिखने का अभिप्राय इतना ही है कि मस्तिष्क की स्मरण शक्ति, धारणा शक्ति, कल्पना शक्ति, इच्छा शक्ति आदि के बारे में जितनी शोधें हो चुकी है वे पूर्ण नहीं हैं। भौतिक विज्ञानी हैरान हैं कि इस अद्भुत भाँडागार का पूरा परिचय किस तरह प्राप्त कर पावेंगे। जितना आगे बढ़ते जाते हैं उतनी ही अधिक गहराई का परिचय मिलता जाता है। स्मरण शक्ति के संबंध में पिछले अंकों में अब तक की शोध का बहुत कुछ आवश्यकीय भाग बताया जा चुका है। उसके आधार पर इस शक्ति के बढ़ाने के नित नये उपाय निर्धारित किये जा रहे हैं और उनका परीक्षण हो रहा है इन परीक्षणों में जो सफल और संतोष जनक सिद्ध हो चुके हैं उन्हीं का उल्लेख इन पृष्ठों में करने का में प्रयत्न करता रहा हूँ और आगे करूंगा।

पाठक जानते हैं कि हर काम के करने में कुछ चीज खर्च होती है। सृष्टि में जन्म मरण का नियम इसी सिद्धान्त के आधार पर है। गेहूँ पीस डालने पर आटा बनता है, तेल जलाने पर दीपक का प्रकाश होता है। कोयले के बल पर रेल, बिजली के बल पर तार और पेट्रोल की ताकत से मोटर जहाज आदि चलते हैं। एक चीज़ का खर्च दूसरी को उत्पन्न करता है, इस बात को मानने में किसी को कठिनाई न होनी चाहिए। अब विचार करना चाहिए कि मस्तिष्क, द्वारा इतने गजब के काम क्या बिना कुछ खर्च किये होते रहते होंगे? स्मरण शक्ति का मूल आधार मस्तिष्क जिस प्रकार शरीर का सर्वोत्तम अंग है उसी प्रकार उसकी खुराक भी देह का सर्वोत्तम भाग होना चाहिए। मस्तिष्क के मोटर में वीर्य का पेट्रोल डलता है। यह उक्ति आपने अनेक विचारकों के मुँह सुनी होगी कि ‘अच्छे शरीर में अच्छा मस्तिष्क रहता है’ इस कहावत की सचाई इस आधार पर है कि अच्छा, शरीर, अच्छा और अधिक वीर्य मस्तिष्क की खुराक के लिए दे सकता है। डॉक्टर पराबैल ने लिखा है कि “खराब मस्तिष्क वाले, मूढ़, दीर्घ सूत्री, मुलक्कड, विक्षिप्त, क्रोधी तथा अन्य प्रकार के मस्तिष्क संबंधी जितने रोगी मेरे पास आते हैं उनमें से 97 प्रतिशत ऐसे होते हैं जिन्हें वीर्य संबंधी विकार पहले हुआ होता है।”

हस्त मैथुन बहु मैथुन आदि कारण वीर्य बहुत अधिक मात्रा में खर्च हो जाता है और उष्णता पाकर वह पतला एवं प्रवाही बन जाता है। स्वप्न दोष, प्रमेह, शीघ्र पतन आदि रोग वीर्य पतले और प्रवाही होने के लक्षण मात्र हैं। ऐसा दीपक जिसका तेल दूसरे छेद में होकर टपक रहा हो क्या अपने प्रकाश को स्थिर रख सकता है? कम मात्रा में और अशुद्ध पेट्रोल पाने वाली मोटर क्या दूसरी की बराबरी कर सकेगी? सब चिकित्सक जानते हैं कि वीर्य रोगों, शिर में भारीपन, आँखों के आगे चक्कर आना, निद्रा की कमी, नेत्रों में जलन, अनुत्साह, मानसिक थकावट, कानों की सनसनाहट, आदि लक्षणों को भी धारण किये रहते हैं। क्योंकि अपनी पूरी खुराक न पाने के कारण दिमाग दिन दिन कमजोर होता जाता है। यही कमजोरी उपरोक्त लक्षणों के रूप में दिखाई पड़ती है।

अन्य मानसिक साधन जितने उपयोगी हैं उनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण वीर्य रक्षा का सवाल है। अपने पशुओं को मजबूत रखने के इच्छुकों को चारागाह का प्रबंध करना पड़ेगा। जो लोग अपने मस्तिष्क को विकसित देखना चाहते हैं उन्हें अपने वीर्य को स्थित करना पड़ेगा ओर उसे मानसिक भोजन में लगाना होगा। बिना इसके काम नहीं चल सकता। जब हम अपने अखंड ब्रह्मचारी ऋषि मुनियों की ओर देखते हैं तो पता लगता है कि वीर्य का मस्तिष्क द्वारा उपयोग कर ऊर्ध्वरेता बन कर कितने महान कार्य संपादित किये थे। एक ही व्यक्ति महर्षि व्यास द्वारा अठारह पुराणों का लिखा जाना क्या कम आश्चर्य की बात है। इस पाठ में पाठकों से यह बात बिलकुल स्पष्ट कर देना ठीक होगा कि अन्य उपाय पौधे के आस पास नाश कराने के और जमीन तोड़ने के समान हैं जब कि ब्रह्मचर्य पालन उसकी जड़ में जल सींचने के तुल्य है।

ब्रह्मचर्य के साधारण नियम आप सब लोग पढ़ और सुन चुके होंगे। न जानते हों तो ब्रह्मचर्य संबंधी कोई अच्छी पुस्तक पढ़कर या किसी अनुभवी विद्वान से शिक्षा प्राप्त कर लेनी चाहिए। उस विस्तृत विज्ञान का इन पंक्तियों में उल्लेख करने से तो विषयान्तर हो जायगा और पाठक दूसरे मामले में उलझ जावेंगे। एक ऊर्ध्वरेता महात्मा ने वीर्य रक्षा के संबंध में अपना एक अनुभूत चुटकुला बनाया था जो परीक्षा करने पर बड़ा ही उपयोगी और अल्प प्रयत्न में बहुत लाभ देने वाला सिद्ध हुआ है। उन महात्मा ने कहा था कि जब कभी मेरी कामेन्द्रिय उत्तेजित होती है तब में ऐसी भावना करता हूँ कि शिश्न में आया हुआ वीर्य अपने मानसिक बल द्वारा खींच कर में मस्तिष्क में ले जाता हूँ और वहां उसे धारण कर देता हूँ। दुधारू पशु की दुग्ध धारा को तब तक निकालते रहते हैं जब तक निकलना बन्द न हो जाय उसी प्रकार शिखा से मस्तिष्क तक जाने वाली नाड़ियों में बार-बार यह भावना करनी पड़ती है कि मेरा मानसिक बल इन्हें भरे हुए वीर्य को दुह दुह कर मस्तिष्क में बार-बार ले जाया जा रहा है और वहाँ स्थापित किया जा रहा है, पूर्ण मनोबल के साथ ऐसी भावना करने से प्रायः पाँच मिनट से कम में ही काम वासना शान्त हो जाती है।” जिन लोगों को अनावश्यक और असामयिक कामोत्तेजना होती है और उससे पीड़ित होकर वीर्यपात करने में प्रवृत्त हो जाते हैं वे महात्मा जी के इस अनुभूत प्रयोग से पूरा लाभ उठा सकेंगे, ऐसा मुझे विश्वास है।

सूचना

विगत अंक में ‘मैं क्या हूँ?’ पुस्तक मई मास में छप जाने को विज्ञापन किया गया था। किन्तु वह कारण वश सप्ताह लेट छप रही है। 7 अप्रैल का वहाँ को वह छप कर तैयार हो जायगी। जिन प्रेमियों ने पुस्तक को मंगाने के लिए टिकट भेजे हैं उन्हें पुस्तक 7 अप्रैल का रवाना करदी जायेगी। सुरक्षा की दृष्टि से एक का टिकट हम कम लगायेंगे, फलतः पुस्तक दो पैसे की वैरंग पहुँचेगा। सूचनायें निवेदन है।

—मैनेजर अखंड ज्योति।

मैस्मरेजम द्वारा दूसरों की सेवा

(ले—प्रो. धीरेन्द्र कुमार चक्रवर्ती वी. एस. पी.)

(5)

पिछले अंकों में मैस्मरेजम के मूल सिद्धान्त और उसकी कार्य शक्ति के संबंध में प्रकाश डाला गया है, यह विषय अत्यन्त गहन है इसे पूरी तरह से समझाये बिन अभ्यास के साधनों का वर्णन करने लग जाना न उचित होता। इस मास अखंड ज्योति संपादक की मारफत पाठक के करीब नौ दर्जन पत्र मुझे मिले हैं जिनमें पाठकों ने अभ्यास सिखाने में शीघ्रता करने का अनुरोध किया है। मैं उनकी उत्सुकता का आदर करता हूँ। किन्तु एक बात कहूँगा कि केवल उत्सुकता और जल्द बाजी से काम न चलेगा। दृढ़ संकल्प और लगातार साधन करने योग्य धैर्य उन्हें प्राप्त करना होगा तभी इस साधन में कुछ सफलता मिल सकेगी। मानसिक अभ्यासों के लिए श्रद्धा और अविचलता अनिवार्य है। पाठक विश्वास रखें अब तक के लेखों में जो वर्णन किये गए हैं वे आधार प्रस्तर थे, बिना उन बातों को समझाये यदि मैं अभ्यास मार्ग को बताने लगता तो पाठकों का ऐसे ऊबड़ खाबड़ रास्ते पर ला खड़ा करता जहाँ वे यह न जान सकते कि हमें यहाँ किस उद्देश्य से किस प्रकार ले आया गया है। अगले अंक में मैस्मरेजम के अभ्यास का विधान बढ़ाया जायगा। इस लय में यह बात बतानी रह गई है कि मैस्मरेजम द्वारा दूसरों की क्या सेवा हो सकती है?

मैस्मरेजम एक मानसिक बल है। शारीरिक बल है लाभों से आप परिचित हैं बलवान शरीर अपने लिए पर्याप्त सुख सुविधाएं प्राप्त कर सकता है एवं सुखद प्रतीत होता है। जो अपनी सेवा कर लेता है वहीं इस की सेवा भी कर सकता है। निरोग और सशक्त शरीर ही दूसरों की सेवा कर सकने लायक योग्यता रखता है। किसी दुर्बल को अत्याचारी के पंजे से छुड़ाने, जालिम को दण्ड देने, रोगी की तीमारदारी करने, किसी के काम काज में मदद देने प्यासों को पानी पिलाने आदि के कार्य शारीरिक बल द्वारा पूरे होते हैं। रोगी और निर्बल तो अपने लिए ही मदद माँगेगा दूसरों का उससे क्या भला हो सकता है। यही बात मानसिक बल के बारे में है? जिनका मनोबल दृढ़ है वे अपने शारीरिक और मानसिक यंत्रों को ठीक प्रकार चला कर सुख सफलता प्राप्त कर सकते हैं और साथ ही दूसरों पर भी अपनी शक्ति का प्रयोग कर सकते हैं। अब मुझे यह कहने की जरूरत नहीं है कि मनोबल को इच्छानुसार काम में ला सकने की योग्यता ही मैस्मरेजम है।

मैस्मरेजम को प्रयोग करने वाले आम तौर से अपने से निर्बल इच्छा शक्ति वालों और प्रभावित हो जाने की इच्छा रखने वालों को बेहोश कर देते हैं। वे कुछ देर तक दूसरे आदमी की आँखों से आंखें लड़ा कर उसके शरीर में अपनी इतनी विद्युत शक्ति प्रवेश कर देते हैं कि वह सावधान न रह सके और एक प्रकार की योग निद्रा में गिर पड़े। इस निद्रित व्यक्ति के शरीर और मन पर प्रयोगकर्ता का पूरा अधिकार हो जाता है, वह उनका वैसा ही उपयोग कर सकता है जैसा अपने शरीर और मन का करता। यदि उसे आज्ञा दें कि अपनी जीभ बाहर निकाले रहो तो वह इस व्यर्थ बात को भी पूरी तरह से स्वीकार करेगा। जब तक प्रयोक्ता चाहे अपनी जीभ बाहर निकाले रहेगा। मन का भी ऐसा ही उपयोग हो सकता है। मिट्टी खिलाकर मिठाई जैसा स्वाद अनुभव करने को कहा जाय तो वह खुशी खुशी वैसा स्वीकार करेगा। यह बातें मनोरंजन सा खेल तमाशा न समझनी चाहिये। दिल बहलाव करने या भीख माँगने के लिए इनका प्रयोग करना गुनाह है।

जरा गंभीरतापूर्वक विचार कीजिए कि जिस विद्या द्वारा दूसरे के शरीर और मन पर इतना कब्जा किया जा सकता है, क्या उसके द्वारा उनका नफा नुकसान कुछ नहीं किया जा सकता है? जो आदमी किसी दूसरे की तिजोरी पर पूर्ण अधिकार रखता है उस पर पूरी तरह कब्जा कर लेता है, यदि वह चाहे तो क्या उस तिजोरी में से कुछ ले दे नहीं सकता? निश्चय ही वह उसमें से चाहे जितना निकाल या रख सकेगा। आवश्यकता इतनी ही है कि इस क्रिया में भी उसने कुशलता प्राप्त कर रखी हो। बिना उस क्रिया को जाने उस रखने उठाने का कार्य नहीं हो सकता।

मैस्मरेजम की कुछ ऊँची योग्यता रखने वाला प्रयोक्ता दूसरों के मनोगत भावों को पढ़ सकता है, और जान सकता है कि उसे क्या मानसिक वेदनाएं सता रही हैं। वह आदतें जिनके कारण उसका जीवन नरक तुल्य बना हुआ है उन्हें वह समझ सकता है और निदान कर सकता है कि मन की कितनी गहरी भूमिका में वह गढ़ चुकी हैं। यह भ्रम और संशय मस्तिष्क को चिंतित बना देते हैं बार-बार विश्वास कराये जाने पर साधारण कोटि के मन किसी व्यक्ति पर अन्ध श्रद्धा धारण कर लेते हैं और उसके द्वारा जीवन भर दुख पाते रहते हैं। मैस्मरेजम का सिद्ध यह जान जाता है कि मस्तिष्क में कहाँ क्या गाँठें पड़ी हुई हैं और उनके द्वारा किस प्रकार कहाँ विकृति अटकी हुई हैं। एक टूटी हुई मशीन के असंतोषजनक कार्य से उसको काम में लाने वाला दुखी रहता है और अपने भाग्य को कोसता हुआ ईश्वर को गाली देता है। उसकी यह दशा एक चतुर इंजीनियर के सामने एक मजाक है। क्योंकि वह वास्तविक कारण को जानता है मशीन को देखते ही उसे पता लग जाता है कि इसका अमुक पुर्जा घिस या टूट जाता है अमुक पेच ढीले हो गये हैं और अमुक जगह पर धूल जमा हो गई है। वही अपने विद्या बल से मशीन को खोलकर उसको दुरुस्त कर देता है तो मशीन ठीक तौर से चलने लगती है।

शारीरिक रोगों पर भी मैस्मरेजम चिकित्सा प्रणाली अन्य किसी भी उत्तम चिकित्सा प्रणाली से कम असर नहीं करती। शरीर स्वयं कुछ नहीं है वह तो पाँच तत्वों की गठरी मात्र है। इसमें जो चेतना है वह मन की है। मन और शरीर का संबंध किस प्रकार है और किस प्रकार यह शासन चलता है इस विषय को समझाने का आज अवकाश नहीं है। इस समय तो एक शब्द से पाठकों को इतना ही समझ लेना चाहिये कि मन का शरीर पर शासन है। समाधि के बारे में आप सब लोग जानते हैं कि इस दशा में योगी लोग शरीर की सारी क्रियाओं को बन्द कर देते हैं और फिर भी जीवित रहते हैं कई साधक कुछ समय के लिए रक्त और हृदय की गति बन्द कर देते हैं। मन पर काबू पा लेने के साथ शरीर पर भी कब्जा हो जाता है। जिस प्रकार मैस्मरेजम द्वारा मानसिक रोग मिट सकते हैं उसी प्रकार शारीरिक बीमारियों को भी दूर किया जा सकता है।

इस प्रकार आप समझ गये होंगे कि शरीर और मन की विकृतियों को मैस्मरेजम विद्या द्वारा झाड़ बुहार कर साफ किया जा सकता है उन्हें निर्मल और निरोग बनाया जा सकता है। इतना ही नहीं बल्कि इससे भी कुछ अधिक हो सकता है। तिजोरी को खोल कर उसमें से कूड़ा झाड़ने, रद्दी चीजों को फेंकने का काम जो कर सकता है वह इसमें रखे हुए बहु मूल्य रत्नों को सजा कर भी रख सकता है, जिससे उसका प्राचीन रूप रंग ही बदल जाय और नवीन सौंदर्य प्रकटित होने लगे। वह उसमें कुछ और नई चीजें भी रख सकता है लौकिक व्यवहार के अनुसार हम दूसरों के खेत में बीज डाल सकते हैं और वह फल फूल कर बड़ा हो सकता है। चतुर मेस्मरेज्मी किसान किसी के मस्तिष्क की भूमि को उपजाऊ बनाकर उसमें सद्गुणों के बीज बो सकता है और प्रयत्नपूर्वक सींच सींच कर इस योग्य कर सकता है कि वह फलने फूलने लगे। सद्गुणों की कृपा से कितने तुच्छ जीवन महापुरुष हो गये और लौकिक पारलौकिक संपत्ति उपार्जित कर सके।

इस विद्या का एक काला पहलू भी है। भ्रष्ट मेस्मराइजर जिन्हें पिशाच या ब्रह्म राक्षस कहना चाहिये अपनी इस शक्ति का दुरुपयोग भी कर सकते हैं। नीच वासनाओं से प्रेरित होकर ये किसी के मानस पटल पर ऐसा असह्य आक्रमण कर सकते हैं कि पर बेचारा नष्ट भ्रष्ट हो जाय, अंग भंग हो जाय, रोगी हो जाय, शारीरिक मानसिक शक्तियाँ खो बैठे, उसके जाल में जकड़ जाय, पागल हो जाय या प्राणों से हाथ धो बैठे। यह पैशाचिक प्रहार क्रिया भी होती हैं इनसे सावधान रखने के लिए इन पंक्तियों का उल्लेख किया गया है। अखंड ज्योति के इन पृष्ठों में लगातार कितने ही मास तक चलने वाली इस लेख माला में इस अनैतिक आक्रमण की शिक्षा किसी को न मिलेगी। क्योंकि हम जानते हैं कि ऐसा पाजीपन लौटकर प्रयोक्ता को भी चबा डाल सकता है और उसकी सारी शक्ति को न्यायी प्रभु की सर्व शक्तिवान् सत्ता द्वारा एक ही झटके में छीन लिया जा सकता है। समयानुसार हम अपने पाठकों को यह शिक्षा देंगे कि वे किस प्रकार दूसरों की शारीरिक एवं मानसिक सेवा कर सकने की योग्यता प्राप्त कर सकते हैं। साथ ही यह भी बताया जायगा कि किसी के किये हुए मानसिक आघात से अपना बचाव किस प्रकार करना चाहिये।


(ले.—मास्टर उमादत्त सारस्वत, कविरत्न, बिसवाँ)


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