जब से है यह चला काफिला (kavita)

May 1940

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मरुथल तुझको रौंदा सबने ।

छाये छेरे तुझ पर सबने ।

देखे सुख के सपने सबने ।

उखड़ गये पर खेमे सब के बाकी तुझ पर बेल न बूटा।

जब से है यह चला काफिला अब तक इसका तार न टूटा॥

सौदागर सौदा करने को ।

चले लाद सामान नफे को ।

सोने से मुट्ठी भरने को ।

खाली हाथों गये यहाँ से-फिर भी उनका स्वप्न न टूटा।

जब से है यह चला काफिला-अब तक इसका तार न टूटा॥

क्यों आया है कहाँ चला है।

किसको इसका पता चला है।

इसमें किसको मोद मिला है।

किये पड़ाव अनेकों लेकिन-मंजिल का उपहार न लूटा।

जब से है यह चला काफिला-अब तक इसका तार न टूटा॥

सौदा तो तू कर सौदागर।

फूल न पर सौदे को पाकर।

लेकर देना सीख यहाँ पर।

भटकर जायगा पथ से राही- यदि माया से मोह न छूटा।

जब से है यह चला काफिला- अब तक इसका तार न टूटा॥

वही-जिसे कहते ध्रुव तारा।

लिये काफिला जाता सारा।

छाने दो- छाया अंधयारा।

उस पर यदि विश्वास रहा तो सौदागर का भाग न फूटा।

जब से है यह चला काफिला अब तक इसका तार न टूटा॥

*समाप्त*

(श्री. रज्जनलाल प्रधान, एम. ए. मन्दसौर)



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