मैं क्या हूँ?

May 1940

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(अखंड ज्योति कार्यालय से इसी मास प्रकाशित पुस्तक के कुछ पृष्ठ)

अब तक बताई गई मानसिक कसरतों का अभ्यास कर लेने के बाद ‘अहम्’ से भिन्न पदार्थों का तुम्हें पूरा निश्चय हो जायगा। इस सत्य को ग्रहण कर लेने के बाद अपने को मन और वृत्तियों का स्वामी अनुभव करोगे और तब उन चीजों को पूरे बल और प्रमाण के साथ काम में लाने की सामर्थ्य प्राप्त कर लोगे।

अब तुम्हें अपने को दास नहीं, स्वामी मानना पड़ेगा। तुम शासक हो और मन आज्ञा पालक। मन द्वारा जो अत्याचार अब तक तुम्हारे ऊपर हो रहे थे उन सबको फड़फड़ा कर फेंक दो और अपने को उनसे मुक्त हुआ समझो। तुम्हें आज राज्य सिंहासन सौंपा जा रहा है। अपने को राजा अनुभव करो। दृढ़तापूर्वक आज्ञा दो कि स्वभाव, विचार, संकल्प, बुद्धि, कामनाएँ समस्त कर्मचारी शासन को स्वीकार करें और नये संधि-पत्र पर दस्तखत करें कि हम वफादार नौकर की तरह अपने राजा की आज्ञा मानेंगे और राज्य प्रबंध को सर्वोच्च एवं सुन्दरतम बनाने की रत्ती भर भी प्रमाद न करेंगे।

लोग समझते हैं कि मन ने हमें ऐसी स्थिति में डाल दिया है कि हमारी वृत्तियाँ हमें बुरी तरह काँटों में घसीटे फिरती हैं और तरह-तरह के त्रास देकर दुखी बनाता है। साधक इन दुखों से छुटकारा पा जावेंगे। क्यों कि वह उन सब उद्गमों से परिचित हैं और वहाँ काबू पाने की योग्यता संपादन कर चुके हैं। किसी बड़े मिल में सैकड़ों घोड़ों की ताकत से चलने वाला इंजन और उसके द्वारा संचालित होने वाली सैकड़ों मशीनें तथा उनके असंख्य कलपुर्जे किसी अनाड़ी को डरा देंगे। वह उस घर में घुसते ही हड़बड़ा जायगा, किसी पुर्जे में धोती फंस गई तो उसे छुड़ा सकने में असमर्थ पावेगा और अज्ञान के कारण बड़ा त्रास पावेगा किन्तु वह इंजीनियर जो मशीनों के पुर्जे पुर्जे से परिचित है और इंजन चलाने के सारे सिद्धान्त को भलीभाँति समझे हुए है उस कारखाने में घुसते हुए तनिक भी न घबरायेगा और गर्व के साथ उन दैत्याकार यंत्रों पर यासन करता रहेगा। जैसा एक महावत हाथी पर और सपेरा भयंकर विषसर्पों पर करता है। उसे इतने बड़े यंत्रालय का उत्तरदायित्व लेते हुए भय नहीं अभिमान होगा। वह हर्ष और प्रसन्नतापूर्वक शाम को मिल मालिक को हिसाब देगा, बढ़िया माल की इतनी राशि उसने थोड़े समय में ही तैयार कर दी है। उसकी फूली हुई छाती पर से सफलता का गर्व मानो टपका पड़ रहा होता है। जिससे अपने ‘अहम’ और वृत्तियों का ठीक-ठीक स्वरूप और संबंध जान लिया है वह ऐसा ही कुशल इंजीनियर यंत्र संचालक है। अधिक दिनों का अभ्यास और भी अद्भुत शक्ति देता है। जागृत मन ही नहीं उस समय प्रवृत्त मन, गुप्त मानस भी शिक्षित हो गया होता है और वह जो आज्ञा प्राप्त करता है उसे पूरा करने के लिए चुपचाप तब भी काम किया करता है जब हम दूसरे कामों में लगे होते हैं या सोये होते हैं। गुप्त मन जब उन कार्यों को पूरा करके सामने रखता है तब नया साधक चौंकता है कि अदृष्ट सहायता है या अलौकिक करामात है। परन्तु योगी उन्हें समझता है कि यह तुम्हारी अपनी अपरिचित योग्यता है, इससे असंख्य गुणी प्रतिभा तो अभी तुम में सोई ही पड़ी है।

संतोष और धैर्य धारण करो। कार्य कठिन है, पर इसके द्वारा जो पुरस्कार मिलना है उसका लाभ बड़ा भारी है। यदि वर्षों के कठिन अभ्यास और मनन द्वारा भी तुम अपने पद, सत्ता, महत्व, गौरव, शक्ति की चेतना प्राप्त कर सको तब भी वह करना ही चाहिए। यदि तुम इन विचारों में हमसे सहमत हो तो केवल पढ़कर ही संतुष्ट मत हो जाओ। अध्ययन करो, मनन करो, आशा करो, साहस करो और सावधानी तथा गंभीरता के साथ साधन पथ की ओर चल पड़ो।

इस पाठ का बीज-मंत्र

—”मैं” सत्ता हूँ। मन मेरे प्रकट होने का उपकरण है।

—”मैं” मन से भिन्न हूँ। उसकी सत्ता पर आश्रित नहीं हूँ।

—”मैं” बुद्धि, वृत्ति, स्वभाव, इच्छा और अन्य समस्त मानसिक उपकरणों को अपने से अलग कर सकता हूँ। तब जो कुछ शेष रह जाता है वह “मैं” हूँ।

—”मैं” अजर अमर, अविकारी और एक रस हूँ।

—”मैं हूँ”—


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