शान्त प्रकृति का मनुष्य सुख और कर्तव्य को अलग अलग नहीं कर सकता। वह जो काम करता है उसी में सुख का अनुभव करता है। कर्तव्य कर्म के करने में दुख उन्हें होता है जो इन्द्रिय जन्य सुखों और क्षणिक भोग विलास के दास होते हैं।
*****
उस परिमित और संकुचित स्वार्थ को त्याग दो जो संपूर्ण वस्तुओं को अपने ही लाभ के लिए चाहता है। सच्चा स्वार्थ परमार्थ ही हो सकता है।