समालोचना

May 1940

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इच्छा शक्ति के चमत्कार—लेखक वा0 बुद्धिसागर वर्मा विशारद वी0 ए॰ एल॰ टी0 प्रकाशक तरुण भारत ग्रन्थावली कार्यालय, दारागंज प्रयाग। मूल्य 1-)

इस पुस्तक में इच्छा शक्ति की महत्ता, उसे उपयोगी बनाने के उपाय, तथा इच्छा शक्ति के द्वारा स्वास्थ्य लाभ करने की रीतियाँ हैं। पुस्तक उपयोगी और पठनीय है।

स्वर योग

(ले.—श्री. नारायणप्रसाद तिवारी कान्हीवाड़ा)

चन्द्र, बुध, गुरु और शुक्र इन चारों में और विशेषकर शुक्ल पक्ष में बाई नाड़ी चलना शुभ है। रवि, मंगल और शनि इन वारों में और विशेष कर कृष्ण पक्ष में दक्षिण नाड़ी चलना शुभदायक है। रविवार को सूर्योदय पर सूर्य नाड़ी और चन्द्रवार को चन्द्र नाड़ी चलना शुभ माना गया है।

चन्द्र स्वर में शुक्ल पक्ष का (दूज को) प्रथम चन्द्र दर्शन होना शुभ कहा गया है।

उदयं चन्द्र मार्गेणा सूर्येणास्तमनं यदि।

तदा ते गुणसंधाता विपरीतं विवर्जयेत॥

यदि दिन चन्द्र के स्वर से उदय और सूर्य के स्वर से अस्त हो तो इससे अनेकों गुण उत्पन्न होते हैं और यदि इसके विपरीत हो तो अनेकों दोष होते हैं।

दिन को जो चन्दा चले रात चखावे सूर।

तो यह निश्चय जानिये प्राण गमन है दूर॥

स्वाभाविक यह प्रश्न हो सकता है कि प्राकृतिक चलते हुए स्वर को यदि वह अशुभ भी है तो क्या किया जाये? मनुष्य बहुत थोड़े अभ्यास से स्वर बदल सकता है और इच्छापूर्वक स्वर चला सकता है। हाँ कभी-कभी जब कि कोई आपत्तिजनक घटना घटने वाली ही होती है तो स्वर हठीला हो (Obstinete) जाता है-किन्तु तब भी मनुष्य प्रयत्न से बहुत कुछ स्वर बदल सकता है जिसके लिये कुछ नियम इस प्रकार हैं।

(1) जो स्वर नहीं चल रहा है उसे अंगूठे से दबावे और जिस नथने से साँस चलती है उससे हवा खींचे फिर जिससे श्वाँस खींची है उसे दबाकर पहले नथने से यानी जिससे स्वर चलाना हैं उससे श्वाँस छोड़ें इस प्रकार कुछ देर तक बार-2 करें। श्वास की चाल बदल जायेगी।

(2)जिस नथने से श्वांस चल रही हो उसी करवट लेट जायें तो स्वर बदल जायेगा इस प्रयोग के साथ पहला प्रयोग करने से स्वर और भी शीघ्र बदलता है।

(3) जिस तरफ का स्वर चल रहा हो उस और काँख में कोई सख्त चीज कुछ देर दबा रखो पहले और दूसरे प्रयोग साथ यह प्रयोग करने से शीघ्र स्वर बदलेगा।

(4) घी खाने से वाम स्वर और शहद खाने से दक्षिण स्वर चलाना कहा जाता है।

(5) चलित स्वर में पुरानी स्वच्छ रुई का फोहा रखने से स्वर बदलता।

शुभ या अशुभ कार्य के लिए प्रस्थान करते समय चलित स्वर के शरीर भाग को हाथ से स्पर्श कर उसी चलित स्वर वाले कदम को (यदि चन्द्र नाड़ी चलती है तो 4 बार और सूर्य स्वर है तो 5 बार) जमीन पर पटक कर प्रस्थान करें।

चन्द्र स्वर में पूर्व और उत्तर की ओर नहीं जाना चाहिये और सूर्य स्वर में पश्चिम तथा उत्तर को जाना मना है सुषुम्ना स्वर में कहीं भी प्रस्थान करना मना है।

दूर के युद्ध में चन्द्र स्वर (इड़ा नाड़ी) विजय देने वाला है और निकट के युद्ध में सूर्य स्वर (पिंगला नाड़ी) इस काम में के लिये ठीक है जिधर का स्वर चलता हो उसी ओर का पैर पहले आगे धरकर यात्रा करें अवश्य फलीभूत होगा।

यदि किसी क्रोधी पुरुष के पास जाना है तो अचलित स्वर (जो स्वर न चल रहा हो) के पैर को पहले आगे बढ़ाकर प्रस्थान करना चाहिये और अचलित स्वर की ओर उस पुरुष को करके बातचीत करना चाहिये इस रीति से उसका क्रोध शाँति कर अपने मनोरथ में सिद्धि प्राप्ति होगी। गुरु, मित्र, ऑफिसर, राज दरबार से जब कि वाम स्वर चलित हो उस समय वार्तालाप और कार्यारंभ करना श्रेयष्कर है। यात्रा के समय विवाह में नगर इत्यादि के प्रवेश आदि शुभ कार्यों में चन्द्र स्वर सदा सिद्धि देने वाला कहा गया है।

जो जीवाँग (अर्थात् जिधर का स्वर चलता हो उसी) अंग में वस्त्र पहिनकर “जीवं रक्ष” “जीवं रक्ष” ऐसा मंत्र जपता है वह विजयी होता है।

सूर्य स्वर में किसी भी सवारी, अश्व, मोटर साईकिल इत्यादि पर दाहिना पैर पहले सवारी पर रख कर बैठना उत्तम है। मासिक धर्म के 5वें दिन जब कि पुरुष की सूर्य तथा स्त्री की इड़ा नाड़ी चलती है उस समय गर्भादान होने से डडडडडडडडडडडडड सुषुम्ना स्वर में गर्भदान होने से सन्तान किसी भी इन्द्रिय से हीन होगी।

बाँझपन मिटाने के लिये इसकी परीक्षा करने वालों से निवेदन है कि मासिक धर्म के पहले पन्द्रह दिन के अन्दर जब कि पुरुष की तीव्र सूर्य नाड़ी तथा स्त्री की तीव्र चन्द्रनाड़ी चलती हो, संगम किया जावे। यदि स्वाभाविक न चले तो उपर्युक्त रीति से चलाने का प्रयत्न करना चाहिये।

तत्व

अब मैं स्वरोदय के अन्य विषय पर विचार करने के पूर्व तत्व पर सूक्ष्म प्रकाश डाल देना चाहता हूँ क्योंकि बिना तत्व ज्ञान के अन्य विषयों की विवेचना स्पष्ट न होगी वह कहा जा चुका है कि तत्व पाँच हैं।

धरती अरु आकाश है, और तीसरी यौन।

पानी पावक पाँचवों करत स्वास में गौन॥

संपूर्ण लोकों में स्थित जोर्वा की देर तत्वा से भिन्न नहीं है अर्थात् सभी पंचभूतात्म है परन्तु नाड़ी भेद भिन्न हैं।

लोग कहते हैं कि भूख लगने पर कुछ खा लेना चाहिये वरना भूख मर जाती है यह भूख मरने वाली कहावत बच्चे तक जानते हैं पर बात विचारणीय है कि भूख मरी कैसे? इसका उत्तर यही है कि तत्व तथा स्वर बदल जाता है। अग्नि तत्व भूख पैदा करती है आकाश तत्व वात कारक है अतएव भूख लगने पर अग्नि तत्व में आग्न को प्रचलित करने के लिए कुछ न रहने से खाली घर में प्रकाश प्रवेश कर अग्नि को शीतल कर वायु अपना अधिकार जमाती है जिससे वात पैदा होती है आपने देखा होगा कि वात प्रकृति का पुरुष देखने में तो मोटा अवश्य दीखेगा किन्तु उसे सदा भूख कम लगती है और सदा वह चूरन की पुड़िया से पेट भरना अपना नियम बना लेता है। आप चूल्हे में आग जलाइये यदि उसमें और भी लकड़ियाँ बराबर न लगाते रहेंगे तो न लकड़ियों की अग्नि क्रमश शीतल हो जायेगी इसीलिए अग्नि तत्व तथा पूर्ण स्वर में भोजन करना उत्तम माना गया है।

किस समय कौन से तत्व का अधिकार है इसको जानने के लिए इस विषय में बहुत अभ्यास की आवश्यकता है।

तथा काल में तत्व परीक्षा का अभ्यास उत्तम है।

1. डडडडडडडड के छेदों में दोनों मध्यमा (बीच की अंगुली) दोनों आँखों पर तर्जनी तथा अनामिकाओं कनिष्ठा से ओठों को बन्द करे, इसे षडमुखी मुद्रा कहते हैं।

यदि पीला रंग दीखे तो पृथ्वी, सफेद हो तो जल, लाल हो तो अग्नि, काला या नीला हो तो वायु तत्व समझना चाहिये और विचित्र मिश्रित रंग दीखें तो आकाश तत्व समझना चाहिये।

2. दर्पण में देख कर श्वाँस बाहर छोड़ें, उसमें यदि चौकोर आकार हो तो पृथ्वी, अर्धचन्द्र हो तो जल, त्रिकोण हो तो अग्नि, चतुआकार हो तो आकाश तत्व समझना चाहिये।

3. मुँह का स्वाद मीठा हो तो पृथ्वी, कसैला हो तो जल, तीक्ष्ण (तेज) हो तो अग्नि, खट्टा हो तो वायु और कड़वा हो तो आकाश तत्व समझना चाहिये।

4. पाँच रंग की गोली बनाकर जेब में डाले और एक गोली हाथ डाल कर निकाले जिस रंग की गोली निकले वही तत्व की उस समय प्रधानता समझी जावे—(यह निकृष्ट नियम है)

5. वायु का स्वर आठ अंगुल चलता है, अग्नि का स्वर चार, पृथ्वी का बारह, जल का सोलह अंगुल चलता है, आकाश तत्व की बात ही निराली है कोई नियमित रूप से नहीं चलता।

पृथ्वी तत्व में स्थिर कर्म, जल तत्व में चर कर्म, अग्नि तत्व में क्रूर कर्म, वायु तत्व में मारण उच्चाटन कर्म करना वर्जित है कथा क्योंकि फलीभूत भूख नहीं होता। कारण आकाश शून्य है। पृथ्वी तत्व और जल तत्व दोनों शुभदायक है, अग्नि तत्व मृत्युदायक वायु तत्व क्षय दायक है। पृथ्वी तत्व विलम्ब से लाभदायक है। जल तत्व शीघ्र ही फलदायक है अग्नि और वायु तत्व हानिदायक है। दिन में पृथ्वी तत्व और रात्रि में जल तत्व चलना गुप्तदायक है। जीवन में, जप में, लाभ में, खेती के, कार्यों में, धन पैदा करने में, मन्त्र जप में, प्रभु के शुद्ध में, आने जाने में पृथ्वी तत्व उत्तम है।

क्रमशः


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