सेवा धर्म।

June 1950

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(जार्ज सिडनी अरेण्डल)

जब तुमने जितनी तुममें शक्ति थी उतनी परिणता और उदारता से सेवा की है तो उसके परिणाम के लिये लालायित न रहो क्योंकि तु{हारी सेवा की पवित्रता सुख-शान्ति के रूप में सेवक के पास लौट कर चली आवेगी और पुरुष के चारों ओर यह सुख छा जायगा।

प्रेम का केन्द्र सुविस्तृत बनाने की क्षमता ही सेवा के आदर्शभूत परिणाम हैं। अहा! किस काम का वह गुल जिस में कि खुशबू नहीं। किस काम का वह दिल जिस दिल में कि तू नहीं”। प्रेम बिना सेवा कैसे होगी? सुगन्ध बिना पुष्प चित्त-विनोद कैसे कर सकेगा? जो मनुष्य वास्तविक सुखी नहीं है वह दूसरों को कहाँ तक सुखी बनाने में समर्थ हो सकेगा।

सेवा यदि प्रेम भरे हृदय से की गई हो चाहे वह अज्ञानता भरी ही क्यों न हो, उस सेव्य पुरुष की कुछ भी हानि नहीं कर सकती। प्रेम की शक्ति उसकी अज्ञानता-जनित हानि से रक्षा कर लेगी।

यदि तुम आध्यात्मिक उन्नति की जाँच करने की इच्छा रखते हो तो ध्यानपूर्वक निरीक्षण किया करो कि पहले से अब तुम सेवा करने में कमी तो नहीं कर रहे हो। तुम्हारी सेवा प्रणाली कुछ क्षीण तो नहीं होती जाती है।

यह मत समझ बैठो कि केवल वही लोग सेवा करने में दक्ष हैं जिनकी सेवा रीति चर्मचक्षु गोचर है। सेवा के महतो-महीयान् कार्य वही हैं जो सर्वथा अगोचर हैं। बड़ों की बात तो जाने दीजिए, भला कहिये तो गंगा ही की सेवा प्रणाली अन्तरिक्ष होने पर भी कैसी सुहावनी और कितनी सुखदायिनी है।

जो सेवा तुम्हें आज सुलभ हुई है उसे कल के लिये मत रख छोड़ो। ऐसा करने से तुम सेवा के उचित सुअवसर को सुचारु रूपेण व्यवहृत करने से चूकते हो। हो सकता है कि कल उस सेवा की आवश्यकता नहीं रहे जो आज किसी तरह पूरी नहीं हो सकी।

हो सकता है जितना तुम अपनी सेवा रीति पर ध्यान रखते हो उतना संसार तुम्हारी सेवा के ऊपर न रखता हो। तो इससे क्या? तुम अपने सत्य के पथ पर अचल होकर अग्रसर होते जाओ।

बहुत से मनुष्य ऐसे है जो कतिपय स्थानों पर सेवा के लिए पहुंचने को उत्सुक हैं, किन्तु, भला ऐसे कितने हैं जो सब जगह सर्वदा सेवा के लिये प्रस्तुत रहने के इच्छुक हों?

जिस दशा में तुम वर्तमान काल में हो यदि उस समय तुम्हें सेवा करने का सुअवसर प्राप्त न हो सका तो यह निश्चय है कि तुम भविष्य में चाहे किसी (भली या बुरी) दशा में भी क्यों न रहो तुम सेवा करने में सर्वदा असमर्थ बने रहोगे।

वह व्यक्ति इस संसार में नितान्त शून्य, अधम और दुःखभागी है जो बहुत तरह से अपनी सेवा करा कर भी उसके उपलक्ष्य में दूसरे की सेवा नहीं करता। यदि तुम्हारे दुःख पर दया करके किसी ने सहायता कर दी तो उस सहायता के बदले में तुम अपने तन-मन-धन से उसकी सेवा कर देने को उद्यत रहो। जो दूसरों की सेवा की जाती है उससे अपने आपको परखने की शक्ति प्राप्त होती है।

जो सेवा स्वभाविक बुद्धि से की जाती है वही सेवा सच्ची और सुहावनी है। जिसमें बनावट का बुबास न हो बल्कि सर्वांग में सर्वतोभावेन प्रेम ही का आभास, विकास और प्रकाश हो।

दूसरों के विषय में ऐसी बात कभी मत कहो जो उस आदमी के समक्ष न कह सको।

(देश देशान्तरों से प्रचारित, उच्च कोटि की आध्यात्मिक मासिक पत्रिका)

वार्षिक मूल्य 2॥) सम्पादक - श्रीराम शर्मा आचार्य एक अंक का।)


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