आम-तौर से लोग आनन्द को बाहर से लाने के लिये प्रयत्न करते हैं पर प्राणी मात्र के भीतर आनन्द का निवास है, उसे बाहर से प्राप्त नहीं किया जा सकता। लेकिन अपने भीतर से आनंद को प्राप्त करने में अनेक बाधायें काम करती रहती हैं इसलिए मनुष्य अन्तर्मुखी हो नहीं पाता। और इन्द्रियाँ बहिर्मुखी होती हैं इसलिए बाहर से सुख पाने के लिए दौड़ पड़ता है। सुख का अनुभव इन्द्रियों से जो किया जाता है।
इन्द्रियों की भी महान इन्द्रिय-मन है। असल में अनुभव का प्रमुख साधन मन है। मन का इन्द्रियों के साथ संयोग होता है तो सुख या दुःख का अनुभव होता है अगर मन का इन इन्द्रियों के साथ लगाव न रहे तो सुख या दुःख का भी मनुष्य को बोध नहीं होता। अक्सर देखा जाता है कि मनुष्य का मन कहीं अन्यत्र अटका हो और खाने के लिए थाली पर बैठा हो तो इत्तफाक से साग या दाल में नमक ज्यादा हो या कतई न पड़ा हो तो उसे उसका कोई अनुभव न होगा। दूसरे अवसर पर यदि ऐसा हो जब मन का सम्बन्ध स्वादेन्द्रिय के साथ हो तो वह भोजन उससे नहीं खाया जायेगा। इससे सिद्ध होता है कि सुख और दुःख के अनुभव का प्रधान यन्त्र मन है।
मन बड़ा चंचल है, इसलिये उससे ऐसा कोई काम आसानी से नहीं हो पाता जिसमें श्रम करना पड़े। श्रम उसकी चंचलता का सबसे बड़ा शत्रु है। श्रम एकाग्र बनाता है। इसी श्रम का दूसरा नाम “तप” है और इसी कारण-एकाग्र बनाकर उज्ज्वल कर देना, विकारहीन बना देना, चमका देना तप का काम है। तप का आरम्भ ही मन को एकाग्र करने के उद्देश्य से होता है। जो फैला है, छिन्न है, उसको एक सिलसिले से जमा देना पूर्ण बना देना एकाग्रता का लक्षण है। इसलिए जिस समय मानव की प्रवृत्ति तप की ओर होती है मन की चंचलता कम होना आरम्भ हो जाता है। एकाग्रता बढ़ती है। मनुष्य संयमी बन जाता है। यहीं से मन इन्द्रियों की ओर से हट कर अन्दर की ओर घूमता है और आनन्द की ओर अभिमुख होता है।
सृष्टि की उत्पत्ति का आदि बीज स्वयं आनंद है। तत्वदर्शी ऋषियों का कहना है कि प्राणी की आनन्द में से उत्पत्ति होती है, आनन्द में विस्तार होता है और अन्त में आनन्द में ही वह समा जाता है यहाँ तक कि संसार में यदि आनन्द न हो तो आज किसी भी प्राणी का अस्तित्व न दिखाई देता। संसार में जो आनंद दिखाई दे रहा है वह निरंतर भीतर से प्रवाहित हो रहा है, जितना और जैसे वह प्रवाहित होता है मनुष्य उसी के अनुसार उसका अनुभव करता एवं बाहरी वस्तुओं में उसकी प्रतिष्ठा करता है।
किसी भी वस्तु में किसी बीज की प्रतिष्ठा करने का काम बुद्धि का है। मन तो सिर्फ अनुभव करने का यंत्र मात्र है इसलिए आनंद का स्वाद सिर्फ मन के द्वारा ही नहीं लिया जा सकता। उसके लिए बुद्धि को भी उसका उपयुक्त पात्र बनाना होता है। शुद्ध आनंद के लिए शुद्ध-बुद्धि की आवश्यकता होती है। बुद्धि की शुद्धि मन को भी अचंचल बना देती है और उसे विकारी होने से भी बचा लेती है।
मन और बुद्धि इस शरीर के दो झरोखे हैं। मूल तत्व इससे भी विलक्षण है। इसका नाम चित्त है। चित्त ही वस्तुतः संस्कारों को ग्रहण करता है। चित्त को जैसा ये दोनों यंत्र बना देते हैं, मनुष्य वैसा ही बनता जाता है, उसके अन्दर वैसे ही संस्कार पड़ते जाते हैं। इसलिए जब भी कभी संस्कार बनने की चर्चा की जाती है तब इस चित्त का ही जिक्र होता है। जैसे-जैसे संस्कार बनते जाते हैं मन और बुद्धि वैसे-वैसे ही काम करते जाते हैं।
जैसे संस्कार होते हैं मन वैसा ही अनुभव करता है और बुद्धि उसी प्रकार का अपना निर्णय देती है। चार अन्धों की कहानी लोगों ने सुनी होगी। चार अलग-अलग संस्कार हीन व्यक्तियों ने हाथी को देखा। उनके चित्त पर हाथी का संस्कार नहीं था। घड़ा, डण्डा, सूप, खम्भा के संस्कार उनके अन्दर मौजूद थे इसलिये उनके मन और बुद्धि ने हाथी के विभिन्न अंगों को स्पर्श करके उसे घड़ा, डंडा सूप और खम्भे की शक्ल में बतलाया। धनी व्यक्ति को देख कर सभी व्यक्ति उसके सुखी होने की कल्पना करते हैं क्योंकि उनके चित्त पर धन के संस्कार संस्कारित हो चुके हैं पर उस धनी से पूछो कि क्या वह सुखी है तो वह बताएगा कि उससे बढ़ कर शायद कोई दूसरा दुःखी नहीं है। उसके पास अमुक नहीं है, तमुक नहीं आदि की सूची कभी उससे सुनी जा सकती है। अमुक-तमुक की प्राप्ति हो जाने पर भी उसकी वह तृष्णा और अभाव का बोध संसार की समस्त सुविधा मिल जाने तक भी बढ़ता ही जाता है जो सम्पन्न हैं उनका ऐसा अनुभव है इसलिये सुख का स्थान संसार की वसुधा की प्राप्ति नहीं है बल्कि चित्त को संस्कार हीन बनाना है। संस्कार विकार हैं। जो शुद्ध है, उस पर बाहरी संस्कार ठहर ही नहीं सकेंगे। इसलिये चित्त शुद्धि की ओर दृष्टि देना ही आनंद शक्ति के विकास का मूल साधन है। असल में तप ही आनंद प्राप्ति का मूल मंत्र है।