स्वार्थ सिद्धि का सच्चा साधन

June 1950

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कई व्यक्ति सोचते हैं कि “हमें अपने मतलब से मतलब रखना चाहिये। दूसरों के दुख दर्द में सहायक बनने से, दूसरों की समस्याओं में सिर पचाने से हमारा क्या लाभ? अपना समय या धन दूसरों की भलाई में लगाने से हमें कुछ लाभ न होगा वरन् नुकसान ही रहेगा। इसलिये नुकसान के काम में पड़ने से बचने के लिये हमें परमार्थ से दूर ही रहना उचित है। “

इस प्रकार से सोचने वालों को यह देखना चाहिये कि क्या दूसरों की उपेक्षा करने पर हमारे स्वार्थ की रक्षा हो सकती है? मनुष्य सामाजिक प्राणी है। दूसरों का सहयोग लिये बिना और दूसरों को सहयोग दिये बिना उसका काम नहीं चल सकता। पशु पक्षियों के बच्चों को अपने माता पिता की सेवा बहुत ही स्वल्प मात्रा में अपेक्षित होती है परन्तु मनुष्य के बालक की यदि घड़ी-घड़ी समुचित परिचर्या न हो तो उसका जीवित रह सकना कठिन है। दूसरे प्राणी अपने आप अपनी आवश्यकताएं पूरी कर सकते हैं परन्तु मनुष्य की शारीरिक और मानसिक आवश्यकताएं इतनी अधिक है कि बिना दूसरे के सहयोग के उनकी पूर्ति नहीं हो सकती। परस्पर सम्बंध रख कर, एक दूसरे के लिये कार्य करने की नीति को अपनाकर ही मानव जीवन व्यवस्था सुचारु रूप से चलती है। यदि हर आदमी अपना दृष्टिकोण समुचित कर ले और सोचे कि मुझे सिर्फ अपने मतलब से मतलब रखना चाहिये तो यह स्पष्ट है कि हमारे सामाजिक जीवन की शृंखला टूट जायेगी और आदि काल की जंगली सभ्यता की ओर लौटना पड़ेगा।

कोई व्यक्ति कितना ही स्वार्थी क्यों न हो अपने स्त्री बच्चों के कुटुम्बियों के सुख-दुख को अपने सुख-दुख में संबद्ध मानता है। उनके सुख-दुख में स्वयं सुखी-दुखी हुए बिना नहीं रह सकता। उसी प्रकार इन कुटुम्बियों को सहयोग देने और उनका सहयोग लेने को भी वह निताँत उचित और आवश्यक मानता है। परन्तु वह यह भूल जाता है कि समाज भी एक बड़ा कुटुम्ब है और उसके सुख-दुख भी एक दूसरे से बहुत अंशों में संबन्धित हैं। उनकी उपेक्षा करने से जहाँ दूसरों के स्वार्थों को क्षति पहुँचेगी वहाँ अपने स्वार्थ भी सुरक्षित न रह सकेंगे।

जैसे घर के एक व्यक्ति को कोई छूत का रोग हो जाय तो घर में अन्य व्यक्तियों को भी उस रोग का शिकार होना पड़ता है वैसे ही नगर या मुहल्ले में कोई हैजा, चेचक, प्लेग आदि महामारी फल जाय तो अपना जीवन भी खतरे में पड़ जाता है। हैजा यद्यपि गंदगी से फैलता है पर गंदी बस्ती से आरम्भ हुआ हैजा पड़ौस के स्वच्छ रहने वाले लोगों को भी धर दबोचता है। यदि पड़ौसी अज्ञान, दारिद्रय या गंदगी से ग्रस्त रहेगा तो अपनी स्वस्थता को संकट ही बना रहेगा इसलिए यदि अपनी आरोग्यता की रक्षा करनी है तो मुहल्ले की दुर्दशा का सुधारना आवश्यक है। मुहल्ले के लोगों में यदि दुर्व्यसन फैले हुए हैं तो यह भय बना ही रहेगा कि कहीं अपना लड़का भी कुसंग में पड़ कर वैसा ही दुर्व्यसनी न हो जाय। अपने वंश, ग्राम या जाति के लोगों द्वारा कोई लज्जाजनक घृणित कुकर्म किये जायें तो अपना मस्तक भी शर्म से नीचा हो जाता है।

यदि हमारे घर में आग लग जाय और पास पड़ौस के लोग अपने मतलब से मतलब रखने की नीति अपनाकर उसे बुझाने न आवें तो क्या उनकी यह नीति हमारे लिए सुखकर होगी? साथ ही जो लोग हमारा घर जलने का तमाशा निष्क्रिय होकर देख रहे थे अपने घर की सुरक्षा के लिये निश्चित रह सकेंगे? किसी विशेष प्रदेश में बाढ़, अकाल, भूकम्प, अग्निकाण्ड, बलवा महामारी आदि का संकट उपस्थित हो जाय और वहाँ के पीड़ितों की सहायता न की जाय तो उसके बड़े गम्भीर परिणाम हो सकते हैं। यह आपदा ग्रस्त अन्यत्र जाकर चोरी, लूट, भिक्षा, सतीत्व विक्रय आदि अनैतिक कार्य करके सामूहिक शाँति को खतरे में डाल सकते हैं। उजड़े हुए प्रदेशों का नाश और बेकार बेघरबार लोगों की वृद्धि यह एक व्यापक संकट होगा। इसे रोकने का एक मात्र उपाय उनकी सहायता करना ही हो सकता है।

साधारण पशु-पक्षियों की अपेक्षा मनुष्य में दैवी-तत्व अधिक है। इसी तत्व के कारण वह सामाजिक प्राणी बना है। और एक-दूसरे की सहायता करने की अपनी विशेषता के कारण वह उन्नति के इतने ऊंचे शिखर तक चढ़ने में समर्थ हो सकता है। यह दैवी तत्व, यह मानवी विशेषता “प्रेम” है। प्रेम का लक्षण है दूसरों के प्रति उदार होना, उनके दुख-सुख को अपना दुख-सुख समझना, दूसरों की सेवा सहायता करना, यह प्रेमतत्व अन्य जीव जंतुओं में बहुत ही स्वल्प मात्रा में होता है। मादा की अपने बच्चे में तब तक ममता रहती है जब-तक वह असहाय रहता है उसके अतिरिक्त वे अपने साथियों के बिछुड़ने पर कुछ समय तक याद भी करते हैं। बंदर आदि जीव अपनी जाति बन्धुओं को छेड़ने पर विरोधी से लड़ने भी आते हैं। इतना कुछ तो वे करते हैं पर एक दूसरे को अपने अनुभवों का लाभ देने, परस्पर प्रगाढ़ प्रेम रखने, उदारता का व्यवहार करने सहायता देने, आपसी विश्वास और सहयोग के आधार पर कार्य करने का भाव उनमें नहीं होता। इसी प्रभाव के कारण सिंह, व्याघ्र, हाथी, घोड़ा जैसे बलवान जानवर भी विनाश और दासत्व में ग्रस्त हो गये। उनकी तुलना में बहुत ही कमजोर प्राणी मनुष्य अपनी प्रेम भावना के कारण आपसी सहयोग अर्जित करके इतना सबल समुन्नत और स्वतंत्र बन गया।

आज अनेकों प्रकार के साधन मनुष्य के पास है। वैज्ञानिक यंत्र, जल, थल और नभ के वाहन, बिजली, रेडियो, बम, युद्ध-शस्त्र, कानून, धर्म, भाषा, साहित्य, रसायन, चिकित्सा, शासन, शिल्प, संगीत, कला आदि की उपलब्धि किसी एक व्यक्ति ने स्वतंत्र रूप से नहीं की है। असंख्यों बुद्धिमानों का प्रयत्न परिश्रम और सहयोग मिल कर यह सब जन साधारण के उपयोग में आने योग्य हो सका है। यदि मनुष्य स्वभावतः स्वार्थी होता, ‘दूसरों के लिए झंझट में क्यों पड़े’ की उसकी वृत्ति होती तो निश्चय ही आज मनुष्य जाति भी शृंगाल या खरगोशों की तरह किसी तरह किन्हीं भूखण्ड में देखने को मिल जाती। शारीरिक दुर्बलता का कारण वह प्रकृति के आघातों और बलवान हिंसक पशुओं के आक्रमण से अपनी रक्षा करने में समर्थ न होने पर संभवतः वह इस भूतल पर से अन्य अनेक जीवधारी जातियों की तरह मिट भी गई होती।

“प्रेम” मनुष्य की बड़ी भारी विशेषता महत्ता एवं शक्ति है। इसी के द्वारा वह स्वार्थों की रक्षा कर सकता है, इसी के द्वारा वह उन्नत हुआ, इसी के कारण वह आनंदित रहता है और पुण्य परमार्थ का दिव्य धन संचित करता है। इस ईश्वर प्रदत्त स्वाभाविक प्रवृत्ति से विमुख होकर जब मनुष्य सोचता है कि “मुझे अपने मतलब से मतलब” तब वह भूल जाता है कि दूसरों का सुकून बिगाड़ने के लिये अपनी नाक काटने का प्रयत्न कर रहा है। किसी की हम सहायता न करेंगे तो दूसरों का काम रुका न पड़ा रहेगा। परमात्मा इतना दीन-हीन नहीं है कि वह आपकी सहायता के बिना अपनी सृष्टि की सुव्यवस्था चला सके। वह अपनी व्यवस्था आप कर लेगा पर हम उस प्रेम और परमार्थ के दैवी तत्व से वंचित हो जायेंगे जो हमारे लिए दूसरों के हृदय में श्रद्धा और सहायता का भाव पैदा करता है। स्वार्थी मनुष्य दूसरों की घृणा, उपेक्षा, और तिरष्कृति का ही पात्र हो सकता है। ऐसे अभागे मनुष्य दूसरों का जितना अहित कर सकते हैं उससे अनेक गुना अपना अहित कर लेते हैं। दूसरों को अपनी सहायता से जितना वंचित रखते हैं उससे अनेक गुना घाटा दूसरों के सहयोग के अभाव में स्वयं उठाते हैं।

स्वार्थ की रक्षा का सबसे अच्छा तरीका परमार्थ है। संचय का सबसे उत्तम मार्ग त्याग करना है। स्मरण रखिए हमारा सबसे बड़ा हित साधन, स्वार्थ साधन, सुख साधन, केवल मात्र यही हो सकता है कि हम दूसरों के लिये उदार बनें, उनसे सहयोग रखें और यथाशक्ति सेवा करने को तत्पर रहें।


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