ब्रह्मचर्य का पालन कीजिए।

June 1950

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(महात्मा गान्धी)

शास्त्रकारों ने साधारण ब्रह्मचर्य को भी बड़ा कठिन बताया है। यह बात 99 फीसदी सब है, इसमें एक फीसदी कमी है। इसका पालन कठिन जान पड़ता है क्योंकि हम दूसरी इन्द्रियों का संयम नहीं करते। दूसरी इन्द्रियों में मुख्य है, जीभ। जो अपनी जीभ को वश में रख सकता है उसके लिये ब्रह्मचर्य सुगम हो जाता है। प्राणि शास्त्र-विशारदों का कहना है कि जिस हद तक पशु ब्रह्मचर्य का पालन करता है उस हद तक मनुष्य नहीं करता। यह बात सच है। इसका कारण मालूम करने पर पता चलेगा कि पशु अपनी जीभ पर पूरा काबू रखते हैं। इच्छा से नहीं, स्वाभाविक तौर पर। जानवर केवल चारे पर गुजर करते हैं। वे उतना ही खाते हैं जितने में उनका पेट भर सके। वे असल में जीने के लिये खाते हैं, खाने लिये नहीं जीते। परन्तु हम तो इससे बिल्कुल उलटा काम करते हैं। माँ अपने बच्चे को तरह-तरह के स्वादिष्ट भोजन कराती है। वह समझती है कि बच्चे के साथ प्रेम दिखाने का यही सबसे अच्छा रास्ता है। वास्तव में स्वाद तो रहता है भूख में, भूख के वक्त सूखी रोटी भी मीठी लगती है और बिना भूख के आदमी को लड्डू भी फीके और बेस्वाद मालूम पड़ेंगे। हम बहुत-सी चीजें खा-खा कर पेट को खूब ठूँस-ठूँस कर भर लेते हैं और फिर कहते हैं कि ब्रह्मचर्य का पालन नहीं होता। ईश्वर ने हमें देखने के लिए जो आँखें दी हैं, उनको हम मलिन करते हैं और देखने की चीजों को देखना नहीं सीखते। माता को गायत्री क्यों न पढ़नी चाहिये और वह बच्चों को गायत्री क्यों न सिखावें, इस विवाद के पचड़े में पड़ने की अपेक्षा हम उसके तत्व-सूर्योपासना को समझकर, सूर्योपासना करावें तो क्या ही अच्छा हो। सूर्य की उपासना तो सनातनी और आर्यसमाजी ही कर सकते हैं। यह तो मैंने आप के सामने स्थूल अर्थ रखा है। इस उपासना का अर्थ क्या है? अपना सिर ऊंचा रखकर, सूर्यनारायण के दर्शन करके आँखों को शुद्ध और स्वस्थ करना।

गायत्री के रचयिता ऋषि थे, द्रष्टा थे। उन्होंने देखा कि सूर्योदय में जो नाटक है, जो सौंदर्य है, जो लीला है, और कहीं नहीं देखी जा सकती। ईश्वर जैसा सुन्दर सूत्रधार और कहीं नहीं मिल सकता और प्रकाश से बढ़कर भव्य रंगभूमि कहीं नहीं मिल सकती, परन्तु आज कौन सी माता बालक को आँखें धोकर उसे आकाश-दर्शन कराती है? माता के भावों में तो बहुत-से प्रपंच भरे रहते हैं। बड़े-बड़े घरों में जो शिक्षा मिलती है उसके फलस्वरूप तो लड़का शायद बड़ा अधिकारी होगा। परन्तु इस बात पर कौन विचार करता है कि जाने-बेजाने घर में जो शिक्षा बालकों को मिलती है उससे वे कितनी बातें सीख जाते हैं। माता-पिता हमारे शरीर को कपड़ों से ढकते हैं, सजाते हैं, परन्तु इससे कहीं शोभा बढ़ सकती है? कपड़े शरीर को ढकने और सर्दी-गर्मी से उसकी रक्षा करने के लिये हैं सजाने के लिये नहीं। सर्दी से ठिठुरे हुये लड़के को जब हम अंगीठी के पास बैठा लेंगे, या मुहल्ले में कहीं खेलने-कूदने को भेज देंगे, तभी उसका शरीर वज्र की तरह मजबूत होगा। जो ब्रह्मचर्य का पालन करता है उसका शरीर वज्र की तरह मजबूत जरूर होना चाहिए। हम तो बच्चों के शरीर को नष्ट कर डालते हैं। हम उसे घर में बन्द रखकर गरम कर देना चाहते हैं। इससे तो उसके चमड़े में ऐसी गर्मी भर जाती है जिसे हम छाजन के नाम से पुकार सकते हैं। हमने शरीर को लाड़-प्यार से खराब कर दिया है।

घर में तरह-तरह की बातें करके हम बालकों के मन पर बुरा प्रभाव डालते हैं। हम उनकी शादी की बातें करते हैं और इसी तरह की चीजें और अनेक दृश्य भी उन्हें दिखाते हैं। मुझे तो ताज्जुब होता है कि हम जंगली ही क्यों न हो गये? ईश्वर ने मनुष्य की रचना इस प्रकार की है कि पतन के अनेक अवसर आने पर भी वह बच जाता है। उसकी लीला ऐसी गहन है। यदि हम ब्रह्मचर्य के रास्ते से ये सब विघ्न दूर कर दें तो उसका पालन बहुत सुगमता से हो जाय।

इस दशा में, हम संसार के साथ शारीरिक मुकाबला करना चाहते हैं, उसके दो मार्ग हैं। एक आसुरी, दूसरा दैवी। आसुरी मार्ग है-शारीरिक बल प्राप्त करने के लिये हर तरह के उपायों से काम लेना-माँस आदि हर तरह की चीजें खाना। मेरे बचपन में एक दोस्त मुझसे कहा करता था कि हमें माँस जरूर खाना चाहिये, अन्यथा हम अंगरेजों की तरह हट्टे-कट्टे और मजबूत न हो सकेंगे। जापान को भी जब दूसरे देश के साथ मुकाबला करना पड़ा तब वहाँ माँस खाने की प्रथा चल पड़ी। यदि आसुरी ढंग से शरीर को तैयार करने की इच्छा हो तो इन चीजों का सेवन करना पड़ेगा। परन्तु यदि दैवी साधन से शरीर तैयार करना हो तो उसका एक मात्र उपाय ब्रह्मचर्य है। जब मुझे कोई नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहकर पुकारता है तब मुझे अपने ऊपर दया आती है। इस मानपत्र में मुझे नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहा गया है। जिन लोगों ने इस अभिनन्दन-पत्र का मसौदा तैयार किया है उन्हें पता नहीं है कि नैष्ठिक ब्रह्मचर्य किसे कहते हैं? और जिसके बाल बच्चे हो गये हैं उसे नैष्ठिक ब्रह्मचारी कैसे कह सकते हैं? नैष्ठिक ब्रह्मचारी को न तो कभी बुखार आता है, और न कभी उसके सिर में दर्द होता है। उसे न कभी खाँसी होती है और न कभी पेट के फोड़े की शिकायत ही होती है। डॉक्टर लोग कहते हैं कि नारंगी का बीज आँत में रह जाने से भी पेट का फोड़ा हो जाता है। परन्तु जिसका शरीर स्वच्छ और नीरोग होता है उसमें ये बीज टिक ही नहीं सकते।

मैं चाहता हूँ कि मुझे नैष्ठिक ब्रह्मचारी बताकर कोई मिथ्या-वादी न हों। नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का तेज तो मुझसे कई गुना अधिक होना चाहिये। मैं आदर्श ब्रह्मचारी नहीं हूँ। हाँ, मैं वैसा बनना जरूर चाहता हूँ। मैंने तो ब्रह्मचर्य की सीमा बताने वाले अपने अनुभव के कुछ कण आपके सामने रखे हैं।

ब्रह्मचारी रहने का यह मतलब नहीं है कि मैं किसी स्त्री को छु न सकूँ, या अपनी बहन को स्पर्श न करूं। ब्रह्मचारी रहने का अभिप्राय यह है कि स्त्री का स्पर्श करने से किसी तरह का विकार ऐसे न पैदा हो जैसे कि कागज को छू लेने से नहीं होता। मेरी बहन बीमार हो, और ब्रह्मचर्य के कारण उसकी सेवा करने या उसे छूने में मुझे हिचकना पड़े तो ऐसा ब्रह्मचर्य तीन कौड़ी का है। हम मुर्दा शरीर को छूकर जिस प्रकार निर्विकार दशा का अनुभव करते हैं उसी प्रकार किसी सुन्दर युवती को छूकर हम निर्विकार दशा में रह सकें तभी हम ब्रह्मचारी हैं। यदि आप यह चाहते हैं कि बालक ऐसे ब्रह्मचारी बनें, तो इसका कार्यक्रम आप नहीं बना सकते, ऐसा अभ्यास क्रम, तो मुझ ऐसा चाहे वह अधूरा ही क्यों न हो कोई ब्रह्मचारी ही बना सकता है। ब्रह्मचारी स्वाभाविक संन्यासी होता है। ब्रह्मचर्याश्रम तो संन्यासाश्रम से भी बढ़कर है। परन्तु हमने उसे गिरा दिया है। इससे हमारे गृहस्थाश्रम और वानप्रस्थाश्रम दोनों ही बिगड़ गये हैं, और संन्यास का तो नाम भी नहीं रह गया है। हमारी ऐसी असहाय अवस्था हो गई है।

ऊपर जो आसुरी मार्ग बताया गया है उस पर अनुगमन करके तो आप पाँच सौ वर्षों में भी पठानों का मुकाबला न कर सकेंगे। यदि आज दैवी मार्ग का अनुकरण हो तो आज ही पठानों का मुकाबला किया जा सकता है क्योंकि दैवी साधन से आवश्यक मानसिक परिवर्तन एक क्षण में हो सकता है। परन्तु शारीरिक परिवर्तन करने के लिये तो युग बीत जाते हैं। हम दैवी मार्ग का अनुकरण तभी कर सकेंगे जब हमारे पहले पूर्व जन्म का पुण्य होगा और हमारे लिये माँ-बाप उचित साधन पैदा करेंगे।


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