दहेज की प्रथा का विरोध होना चाहिए।

June 1950

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हिन्दू समाज की अनेक कुरीतियों में आजकल दहेज की प्रथा अत्यधिक दुखदायी बनी हुई है। सभी लोग इससे दुखी हैं, साथ ही सभी लोग इससे बेतरह चिपके हुए हैं। कुत्ता जैसे सूखी हड्डी चबाने से अपने ही गलफटे छिलने से निकले हुए खून को पीकर प्रसन्न होता है और इस दुखदायी हड्डी को छोड़ना नहीं चाहता। वही बात हिन्दू समाज और दहेज प्रथा के सम्बन्ध में कही जा सकती है।

प्रत्येक परिवार में लड़के हैं और प्रत्येक परिवार में लड़कियाँ। लड़की की शादी में जो लोग दहेज देते हुए कुड़कुड़ाते हैं, इस प्रथा को बुरा बताते हैं वे ही अपने लड़के की शादी के समय लम्बी चौड़ी रकम माँगते हैं और यह भूल जाते हैं कि अपनी लड़की के लिए दहेज देते समय हमें कितनी कसक हुई थी, तथा आगे की लड़कियों को दहेज देते समय कितनी कठिनाई उठानी पड़ेगी लड़के का विवाह करते समय एक प्रकार के विचार मानना और लड़की के विवाह में दूसरे प्रकार का विचार बनाना, एक ऐसी विडम्बना है जिसकी छूत देखा-देखी औरों को भी लगती है और सभी लोग इस द्विविधा के कुचक्र में उलझे हुए दूसरों के लिए दुखदायी परिस्थितियाँ उत्पन्न किया करते हैं।

दहेज के पाप में कन्या-पक्ष और वर-पक्ष दोनों ही दोषी हैं। हाँ वर-पक्ष को अधिक दोषी मान लेने में कुछ हर्ज नहीं। लड़के वाले लड़की वाले से दहेज माँगते हैं। लड़के वाले, लड़की वाले से बढ़िया कपड़े, कीमती जेवर, ठाठ-वाट की बरात, बाजे, आतिशबाजी आदि चाहते हैं। दहेज का जो रुपया बेटे वाले ने लिया था वह इन खुराफातों में फुँक गया। बेटी वाला तबाह हो गया, बेटे वाले से हिसाब पूछिये तो वह बतायेगा कि दहेज के अतिरिक्त इतनी रकम घर से और लग गई। दोनों ही दुखी हैं। पर बाहरी मन से दोनों ही मिथ्या अभिमान में फूलते हैं। बेटी वाला शेखी मारता है- मैंने इतनी रकम देकर शादी की, मैं इतना अमीर आदमी हूँ। बेटे वाला कहता है मेरी “बात” इतनी बड़ी है, मेरी इज्जत “आबरू” इतनी बढ़ी चढ़ी है कि बेटे के विवाह में इतना दहेज आया। इस शेखी खोरी से-दोनों पक्ष मन बहलाते हैं, पर दोनों ही दुखी हैं। एक मर मिटा दूसरा खाली हाथ रह गया।

दहेज के नाम पर जो कुछ दिया जाता है उसमें नकद-रकम के अतिरिक्त बर्तन, कपड़े, मिठाई, जेवर, फर्नीचर आदि सामान का भी बड़ा भाग रहता है, यह सामान बेटे वाले के यहाँ एक निरर्थक कूड़े के समान घर में जमा हो जाता है। क्योंकि जीवनोपयोगी वस्तुएं तो प्रायः सभी लोग अपने घरों में रखते हैं। यह नई चीजें आ जाने से परिग्रह अधिक जमा भले ही हो जाय पर इसकी कोई विशेष उपयोगिता नहीं होती। इसी प्रकार बेटे वाले की ओर से बेटी वाले के यहाँ जो चीजें भेजी जाती हैं उनका कोई खास उपयोग नहीं है। वे क्षणिक वाहवाही के साथ बर्बाद हो जाती हैं और परिश्रम से उपार्जित की हुई कमाई का एक महत्वपूर्ण भाग यों ही बर्बाद हो जाती हैं।

इसमें सन्देह नहीं कि दहेज की प्रथा सामाजिक, आर्थिक, नैतिक और राष्ट्रीय दृष्टि से अत्यन्त हानिकारक और घोर निंदनीय है। इसके कारण गरीब घर की सुयोग्य कन्याएं, साधन सम्पन्न परिवारों में नहीं पहुँच सकतीं। जिस पिता के पास कई कन्याएं हैं वह अत्याधिक चिंतित रहता है, अनीति से, अति परिश्रम से, धन कमाने का प्रयत्न करता है जिससे उसका जीवन बड़ा दुखमय बन जाता है। इस पर भी यदि धन जुटाने में सफलता न मिली तो कई बार बड़ी लोमहर्षक, हृदयद्रावक घटनाएं घटित हो जाती हैं कई बार इसी उलझन में सुयोग्य कन्याओं को अयोग्य वरों के साथ और सुयोग्य वरों को अयोग्य कन्याओं के साथ बंधना पड़ता है। इन असमान जोड़ों को सदा असंतुष्ट और अशान्त जीवन बिताना पड़ता है।

कन्या विक्रय के समान ही वर विक्रय भी एक नैतिक पाप है। यह पाप जाति को पददलित, अपमानित और निरुत्साही करने वाला है। इसी कुप्रथा के कारण आज कन्या को जन्म दुर्भाग्य सूचक माना जाता है और उसकी मृत्यु पर लोग खुशी मनाते हैं। पिछले दिनों तो कई जातियों में जन्मते ही कन्या को मार डालने का रिवाज चल पड़ा था और कहीं-कहीं तो गुप-चुप रूप से यह अब भी होता है। इतना तो निश्चित है कि खाते-पीते लोग भी पुत्र की अपेक्षा कन्या के लालन-पालन तथा शिक्षण में उपेक्षा तथा कंजूसी करते हैं। वे सोचते हैं कि उसके विवाह का ही इतना भारी बोझ सिर पर रखा है तो अन्य बातों में भी उसके लिए खर्च करके उस बोझ को क्यों बढ़ाया जाय।

जहाँ कन्या के सम्बन्ध में उसके अभिभावकों को इस प्रकार सोचना पड़े वहाँ कन्या को सुसंस्कृत बनाने के लिये प्रयत्न होने की क्या आशा की जा सकती है? फलस्वरूप उपेक्षित कन्याएं ज्यों-त्यों बढ़ती रहती हैं। यदि पिताओं पर दहेज का भार न होता तो अवश्य ही वे उन्हें सुयोग्य बनाने के लिए अधिक प्रयत्न करते। आज जो कन्या पिता के लिए दुर्भाग्य की प्रत्यक्ष प्रतिमा बनी हुई है वह पति के लिए भी दुर्भाग्य से अधिक और क्या सिद्ध होगी। यदि दहेज का राक्षस हमारे समाज में न होता तो हमारी कुसुम सी कलियाँ कन्याएं पिता के घर में भी मोद करतीं और पतिओं के यहाँ भी गृहलक्ष्मी सिद्ध होतीं।

प्रत्येक विचारशील व्यक्ति दहेज की निन्दा करेगा। प्रत्येक भारत वासी इससे दुखी है क्योंकि कोई विरला ही ऐसा होगा जिसके घर में कन्या न हो। इतना होते हुए भी आश्चर्य है कि यह कुप्रथा कम होने की अपेक्षा दिन-दिन अधिक रूप से बढ़ती जाती है इस कुचक्र को तोड़ने में सफलता नहीं मिलती। यदि चक्र इसी प्रकार चलता रहा तो हिंदू जाति का भारी अहित होगा। दहेज आर्थिक दृष्टि से एक शैतानी चक्र है जिसमें फंसा हुआ हमारा समाज दिन-दिन निर्धन, अस्थिर और अव्यवस्थित होता जाता है। सामाजिक सुरक्षा की दृष्टि से जनता और सरकार का समान रूप से कर्तव्य है कि इस कुप्रथा के विरुद्ध वातावरण तैयार करें। इसके लिए निम्न उपाय किए जाने चाहिए।

(1) दहेज के सम्बन्ध में अधिक दोष वर-पक्ष वालों का है। उनकी ओर से इसे हटाने का विशेष प्रयत्न किया जाना चाहिए। लड़के वालों को चाहिए कि गुप्त या प्रकट रूप से दहेज लेने से इन्कार कर दें।

(2) कन्या-पक्ष वाले विवाह के समय जेवर, बहुत बढ़िया कपड़े तथा अन्य ऐसी चीजें लेने से इन्कार कर दें जिनमें वर-पक्ष वालों को दिखाने के लिए खर्च करने को विवश होना पड़े। यदि वर-पक्ष वालों को जेवर पहनाना ही हो तो अपने घर जाकर पहनावें। उन्हें दिखाने के लिए न लावें।

(3) कन्या-पक्ष वर-पक्ष के और वर-पक्ष कन्या-पक्ष के उन खर्चों को कम कराए, जिन्हें कम कराया जा सकता है।

(4) युवक, विचारशील और उदार बनें। वे अपने अभिभावकों को स्पष्ट कह दें कि यदि उनके विवाह में दहेज लिया गया तो वे विवाह नहीं करेंगे।

(5) कन्याएं शिक्षा की ओर अग्रसर हों और अध्यापन एवं समाज सेवा कार्य करने में रुचि लेकर अधिक समय तक कुमारी रहने का आदर्श उपस्थित करें ताकि 15-16 वर्ष की आयु देख कर पिता को घबराहट न हो और जहाँ-तहाँ जल्दी-जल्दी में जैसे-तैसे विवाह करके कोई दुःखदायी परिणाम उपस्थित न करें।

(6) दहेज के विरुद्ध लेखनी और वाणी द्वारा घोर घृणा उत्पन्न की जाय। जो लोग ऐसा करें उनका सामाजिक असहयोग किया जाय।

(7) सरकार कानून बनाकर दहेज लेना-देना दण्डनीय घोषित कर दे।

(8) उपजातियों के बन्धन ढीले किये जायं। ब्राह्मणों के ब्राह्मणों में, क्षत्रियों के क्षत्रियों में इसी प्रकार प्रत्येक वर्ण में बिना उपजातियों के बंधन का विचार किये हुए विवाह हों।

(9) कुछ सम्पन्न और नेतृत्व करने वाले परिवार इस दशा में पहल करके समाज का पथ प्रदर्शन करें।

(10) जो उपरोक्त विचारों से सहमत हों उनका एक संगठन बने और यह संगठन अपने सदस्यों से सुयोग्य जोड़े चुन कर आदर्श विवाहों की प्रथा चालू करे।

इन सुझावों के आधार पर यदि दहेज प्रथा के विरुद्ध धर्म-युद्ध छेड़ा जाये तो हमारा विश्वास है कि इस सत्यानाशी कुरीति से हिंदू जाती अपना पीछा छुड़ा सकती है और अपने समाज के पारिवारिक तथा दांपत्ति जीवनों को सुख-शाँतिमय बना सकती है।


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