‘मैं पवित्र अविनाशी और निर्लिप्त आत्मा हूँ।” इस महान सत्य को स्वीकार करते ही मनुष्य अमरत्व के समीप पहुँच जाता है जो अपनी आत्मा का सम्मान करता है अपनी सत्ता को श्रेष्ठ, पवित्र महान एवं विश्वसनीय अनुभव करता है वह सचमुच वैसा ही बन जाता है। योग शास्त्र पुकार-पुकार कर कहता है कि “जो समझता है कि मैं शिव हूँ वह शिव है, जो समझता है कि मैं जीव हूँ वह जीव है,” यदि आप अपने को महान बनाना चाहते हैं तो अपनी महानता को देखिए, अनुभव कीजिए और उसे द्रुत गति से चरितार्थ करना आरम्भ कर दीजिए।
जो व्यक्ति बार-बार अपने सम्बन्ध में बुरे विचार करेगा, हीनता और तुच्छता के भाव रखेगा वह निस्सन्देह कुछ समय में वैसा ही बन जायेगा। मैं नीच हूँ पापी हूँ, तुच्छ हूँ, दास हूँ, असमर्थ हूँ, अयोग्य हूँ, आलसी हूँ, भाग्यहीन हूँ, दीन हूँ, दुखी हूँ इस प्रकार के मनोभाव रखने का स्पष्ट फल यह होता है कि हमारी अन्तः चेतना उसी ढाँचे में ढल जाती है।
आप अपने को तुच्छ मत मानिए ईश्वर का अविनाशी राजकुमार -मनुष्य किसी भी प्रकार तुच्छ नहीं हो सकता। अपने पिता की सम्पूर्ण शक्तियाँ उसके अन्दर सन्निहित हैं। आवश्यकता केवल इस बात की है कि वह अपनी महानताओं को अनुभव करे और अपने जीवन को सब ओर से महान बनाने का प्रयत्न करे। इस साधना पथ पर कदम बढ़ाने वाला अपनी वास्तविक महत्ता को शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है।