क्रिया योग

April 1947

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

सम्पत्तिवान बनने के लिए यह आवश्यक है कि अधिक कमाया जाय और उस कमाई को सुरक्षित रखा जाय। आत्मिक दृष्टि से सम्पन्न बनने के लिए भी हमें यही करना पड़ता है। आत्मिक गुणों को, अध्यात्मिक तत्वों को अपने अन्दर बढ़ाना और उन तत्वों को क्रियात्मक रुप में चरितार्थ करना यही कमाना और जमा करना है। इसी रीति से साधक आत्म सम्पत्ति शाली बनता है।

आहार विहार की सुव्यवस्था से शारीरिक स्वास्थ्य को बढ़ाना, विद्या, विवेक, ज्ञान, विज्ञान, कला चातुर्य से मानसिक स्वास्थ्य को बढ़ाना, धन, प्रतिष्ठा, मित्रता लोक सेवा एवं सत्कार्यों द्वारा सामाजिक स्वस्थता बढ़ाना, हर साधक के लिए आवश्यक है। जो इनसे जितना संपन्न होगा उस की आन्तरिक स्थिति उतनी ही मजबूत होगी, मजबूत भूमि पर ही दया उदारता परोपकार, पवित्रता, संयम ईश्वर परायणता के पौधे उगते हैं। जैसे ऊसर भूमि में उत्तम बीज या तो जमते ही नहीं या जमते हैं तो अल्प काल में ही सूख जाते हैं उसी प्रकार जिनका शारीरिक, मानसिक, सामाजिक स्वास्थ्य ठीक नहीं वे आत्म बल की सम्पन्नता प्राप्त नहीं कर सकते। बीमार आदमी कुछ कमाता नहीं वरन् जो मौजूद है उसे भी गँवाता रहता है इसी प्रकार शरीर मन और समाज क्षेत्रों में जो व्यक्ति अस्वस्थ है उसके लिए पुण्य कमाना कठिन है। निर्बलता एक पाप है-पाप से पाप ही उत्पन्न होता है। अनुचित स्थिति में पड़े हुए व्यक्ति के लिए उचित विचार और कार्य कर सकना असंभव नहीं तो अत्यन्त कष्ट साध्य अवश्य है।

आत्म सम्पदाओं से सुसज्जित बनने की आकाँक्षा रखने वालों को चतुर्मुखी उन्नति करने की आवश्यकता है। धर्म अर्थ, काम, मोक्ष चारों एक ही पलड़े के चार पाये हैं। शरीर मन समाज और अन्तःकरण चारों की स्वस्थता मिल कर एक पूर्ण स्वस्थता कहलाती है। इसलिए आत्मोन्नति के इच्छुकों को अपनी चतुर्विधि उन्नति के लिए सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए। ताकि आत्मोन्नति से सुरम्य पौधे उगने लायक अन्तःभूमि तैयार हो जाये।

इसके साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि इन उपार्जित सम्पदाओं को स्थायी बनाया जाय और सुरक्षित किया जाय। इसका वैज्ञानिक तरीका ‘दान’ है। सत्पात्रों को देना ऐसे निर्मित के लिए देना- जिससे सात्विकता की वृद्धि हो, लोक कल्याण हो दान कहलाता है। केवल धन का ही दान नहीं होता शरीर, मन, वाणी, प्रभाव, प्रयत्न तथा धन से अपने निज के स्वार्थ के लिए कम से कम उपयोग करना चाहिए और उनका अधिकाँश भाग दान कर देना चाहिए। सम्पत्ति को सुरक्षित रखने का यही सबसे अच्छा तरीका है। जो कमाता तो खूब है पर दान नहीं करता वह भूसी को कूटने के समान पानी को बिलोने के समान निरर्थक प्रयत्न में अपनी शक्ति बराबर करता है। सोने का पहाड़ जमा कर लेना गधे के बोझ की बराबर पुस्तकें रट लेना, भैंसे की बराबर बलवान् हो जाना, हौवा की तरह प्रसिद्ध हो जाना निरर्थक है, यदि इन शक्तियों का आत्मोन्नति के मार्ग में उपयोग न हो। दान करने से ही यह शक्तियाँ आत्मा के बैंक में जमा होती हैं। दान करते ही तुरन्त, उसी क्षण, एक आन्तरिक सन्तोष प्राप्त होता है, यह उस बैंक की रसीद है जिस रसीद को देख कर यह अनुभव किया जा सकता है कि कमाई हुई पूँजी सम्राटों के सम्राटों परमात्मा के रिजर्व बैंक में जमा हो गई। यह कमाना और जमा करना क्रिया योग कहलाता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118