आत्म जागरण योग

April 1947

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

योग शास्त्रों के कथनानुसार साधना का प्रयोजन यह है कि “हम अपने वास्तविक स्वरूप को समझें, आत्मा का दर्शन और अनुभव करें एवं विचार और कार्यों को उस ढाँचे में ढालें जो आत्मा की रुचि के अनुरूप हो।”

हम अपनी ‘मैं क्या हूँ’ और ‘ईश्वर कौन है? कहाँ है? कैसा है?’ पुस्तकों में उस साधना विधियों का उल्लेख कर चुके हैं जिनके द्वारा आत्म दर्शन की ओर कदम बढ़ाया जा सकता है। आत्म दर्शन के लिए इस प्रकार के विचार और विश्वासों को मन में स्थान देना चाहिए कि ‘मैं शरीर नहीं आत्मा हूँ।” अपने अहम् को शमार से भिन्न अविनाशी आत्मा और शरीर मन बुद्धि को अपना औजार समझने की मान्यता जब सुदृढ़ हो जाती है तो मनुष्य उसी ढाँचे में ढलने लगता है जो आत्मा के स्वार्थ एवं गौरव के अनुरूप है।

आमतौर से सभी लोग यह जानते हैं कि प्राणी शरीर से भिन्न है। पर यह उनका ज्ञान मस्तिष्क के अग्रभाव तक ही सीमित होता है। वे इस तथ्य को जानते तो हैं पर मानते नहीं। व्यवहार में लोग अपने को शरीर ही अनुभव करते हैं और शरीर को जिन कामों में लाभ होता है सुख मिलता है मनोरंजन होता है उन्हें करने के लिए दिन रात लगे रहते हैं। धन कमाने में और इन्द्रिय भोगों में आमतौर से लोगों का समय खर्च होता है। जिन चिन्ताओं में व्यस्त रहते हैं वे शरीर के लाभ हानि से ही सम्बन्धित होती हैं। शरीर के लिए आत्मा की परवाह नहीं की जाती, पाप, अनीति, छल, दुराचार असत्य को अपनाकर भी लोग स्वार्थ साधन करते हैं वह शरीर से ही सम्बन्धित होते हैं। जन साधारण का स्वार्थ शरीर स्वार्थ से ही सम्बन्धित होता है। मेरा स्वार्थ किसमें है? इस प्रश्न पर विचार करते हुए लोग “मेरा” आत्मा का अर्थ शरीर ही करते हैं। आत्मा के स्वार्थ को आमतौर से स्वार्थ नहीं कहा जाता, वह तो एक लोकोत्तर असाधारण, पुण्य परमार्थ कहा जाता है। उसे करने की कभी भी ही आवश्यकता समझी जाती है। इससे स्पष्ट है कि संसार में शरीर को ही ‘मैं’ समझने की आम प्रवृत्ति है। ‘मैं’ का अर्थ आत्मा है इसे जानते जरूर हैं पर व्यवहार में मानते यह हैं कि ‘मैं’ का अर्थ है- मेरा शरीर।

इस दृष्टिकोण से जीवन की गतिविधि में भारी अन्तर आ जाता है। आत्मवादी और भौतिक दृष्टि कोण में वैसे बहुत थोड़ा अन्तर दिखाई पड़ता है पर अन्तर के कारण जो परिणाम उपस्थित होते हैं। उनमें उतना ही भेद होता है जितना आकाश पाताल में। रेल की पटरी में लाइन बदलने की कैंची जहाँ लगी होती है वहाँ कोई बहुत भारी अन्तर दिखाई नहीं देता पर जब एक गाड़ी एक तरफ की गुजरती है और दूसरी गाड़ी दूसरी तरफ से तो अन्त में जब चलते-चलते दोनों गाड़ियाँ पहुँचती हैं उन स्थानों में सैंकड़ों हजारों मील का अन्तर होता है। एक पूर्व में पहुँचती है तो दूसरी पश्चिमी में, कैंची के काटने में दो चार अंगुल का फर्क होता है पर अन्त में उसका प्रतिफल बहुत ही भिन्न होता है। ठीक यही हालत आत्मिक और भौतिक दृष्टिकोणों के बीच में है। जो व्यक्ति अपने को आत्मा मानता है वह अपना स्वार्थ उसे समझाता है जिससे आत्मकल्याण होता है। वह आत्मकल्याण करने वाले विचार और कार्यों को अपनाता है। यदि इस मार्ग में चलते हुए उसे शरीर पर प्रभाव डालने वाली कोई भौतिक हानि होती है तो वह उसकी परवाह नहीं करता। इसके विपरीत भौतिक दृष्टिकोण का फलितार्थ हमारे सामने मौजूद है कि असंख्यों मनुष्य स्वर्ग नरक की, मुक्ति बंधन की चिन्ता न करके आत्म हनन करते हुए भौतिक संपदायें कमाते हैं जिससे उनको मनोवाँछित सुख सामग्री प्राप्त हो सके।

‘मैं शरीर हूँ इसलिए शरीर सुख के लिए धर्म अधर्म की परवाह न करता हुआ भौतिक संपदाएं कमाऊँ उसी के लिए जीवन का प्रत्येक क्षण लगाऊँ” आज के इस लोकव्यापी दृष्टिकोण में परिवर्तन किये बिना कोई मनुष्य, कोई समाज, कोई राष्ट्र, सुख शान्ति से नहीं रह सकता। “मैं आत्मा हूँ, ईश्वर का अविनाशी राजकुमार हूँ, अपने औजार शरीर और मन का उपयोग केवल उन्हीं कार्यों में करूंगा जो मेरे गौरव के, धन के, कर्तव्य के, अनुकूल हैं।” यह आध्यात्मिक दृष्टिकोण जिन व्यक्तियों ने अपना लिया है उनका जीवन क्रम एक सतोगुणी ढाँचे में ढल जाता है। भौतिक दृष्टिकोण मनुष्य को चिन्ता, क्रोध, शोक, द्वेष, कलह, ईर्ष्या, मद, प्रस्तर, मोह, रोग, उद्वेग आवेश का नारकीय प्रतिफल उपस्थित करता है और आत्मिक दृष्टिकोण के कारण प्रेम सहयोग, प्रसन्नता, साहस, अभय, सन्तोष एवं सात्विक आनन्द का उपहार प्राप्त होता है। इनमें एक को नरक और दूसरे को स्वर्ग कहा जा सकता है।

योग साधना द्वारा स्वर्गीय आनन्द की प्राप्ति की जाती है। इस साधना मंदिर का पहिला द्वार आत्म जागरण है। ‘मैं आत्मा हूँ- इस भाव का अन्तःकरण में प्रत्यक्ष होना उस पर पूर्ण श्रद्धा, विश्वास, निष्ठा तथा इस आस्था का होना साधना का प्रयोजन है। सोते जागते, चलते, काम करते, साधक के मन में यह गहरा विश्वास होना चाहिए कि मैं ईश्वर का पवित्र अंश अविनाशी आत्मा हूँ केवल वही विचार और कार्य अपनाऊँगा जो मेरे वास्तविक आत्मिक स्वार्थ के अनुकूल हैं।” यह छोटी शब्दावली एक कागज पर लिखकर उस स्थान पर टाँग लेनी चाहिए जहाँ बराबर नजर पड़ती हो। इन भावनाओं को जितनी अधिक बार हो सके मानसिक जप की तरह हृदयंगम करना चाहिए। लगातार बहुत दिनों तक इस तथ्य पर अन्तःकरण को केन्द्रित करने से मन पर वैसे ही संस्कार जम जाते हैं और साधक अपने वास्तविक स्वरूप को समझ जाता है। इसको आत्मिक भूमिका का जागरण कहते हैं।

आत्म जागरण योग की साधना।

किसी शान्त या एकान्त स्थान में जाइए। निर्जन, कोलाहल रहित स्थान इस साधना के लिए चुनना चाहिए। इस प्रकार के स्थान पर घर का स्वच्छ, हवादार कमरा भी हो सकता है और नदी तट अथवा उपवन भी। हाथ मुँह धोकर साधना के लिए बैठना चाहिए। आराम कुर्सी पर अथवा दीवार वृक्ष या मसनद के सहारे बैठ कर यह साधना भली प्रकार होती है।

सुविधापूर्वक बैठ जाइए। तीन लम्बे-लम्बे साँस लीजिए पेट में भरी हुई वायु को पूर्ण रूप से बाहर निकालना और फिर फेफड़ों में पूरी हवा भरना एक पूरा साँस कहलाता है। तीन पूरे साँस लेने से हृदय और फुएफल की भी उसी प्रकार एक धार्मिक शुद्धि होती है जैसे स्नान करने, हाथ पाँव धोकर बैठने से शरीर की शुद्धि होती है।

तीन पूरे साँस लेने के बाद शरीर को शिथिल कीजिए शरीर के हर अंग में से खिंच कर प्राण शक्ति हृदय में एकत्रित हो रही है ऐसा ध्यान कीजिए। हाथ पाँव आदि सभी अंग प्रत्यंग शिथिल ढीले निर्जीव, निष्प्राण हो गये हैं ऐसी भावना करनी चाहिए। मस्तिष्क से सब विचारधाराएं और कल्पनाएं शान्त हो गई हैं, और समस्त शरीर के अन्दर एक शान्त नील आकाश व्याप्त हो रहा है। इस शान्त शिथिल व्यवस्था को प्राप्त करने के लिए कुछ दिन लगातार प्रयत्न करना पड़ता है। अभ्यास से दिन-दिन अधिक शिथिलता एवं शान्ति अनुभव होती जाती है।

शरीर के भली प्रकार शिथिल हो जाने पर हृदय स्थान में एकत्रित अंगूठे के बराबर शुभ श्वेत ज्योति स्वरूप प्राण शक्ति का ध्यान करना चाहिए। अजर, अमर, शुद्ध, बुद्धि चेतन, पवित्र ईश्वरीय अंश आत्मा मैं हूँ। मेरा वास्तविक स्वरूप वही है। मैं सत् चित आनन्द स्वरूप आत्मा हूँ। उस ज्योति के कल्पना नेत्रों से दर्शन करते हुए उपरोक्त भावनाएं मन में रखनी चाहिए।

दूसरी साधना- उपरोक्त शिथिलासन के साथ आत्म दर्शन करने की साधना इस योग में प्रथम साधना है। जब यह साधना भली प्रकार अभ्यास में आ जाय तो आगे सीढ़ी पर पैर रखना चाहिए। दूसरी भूमिका की साधना का अभ्यास नीचे दिया जाता है।

ऊपर लिखी हुई शिथिलावस्था में अखिल आकाश में नील वर्ण आकाश का ध्यान कीजिए। उस आकाश में बहुत ऊपर सूर्य के समान ज्योति स्वरूप आत्मा को अवस्थित देखिए। “मैं ही यह प्रकाशवान आत्मा हूँ,” ऐसा निश्चित संकल्प कीजिए। अपने शरीर को नीचे भूतल पर निस्पंद अवस्था में पड़ा हुआ देखिए उसके अंग प्रत्यंगों का निरीक्षण एवं परीक्षण कीजिए। वह हर एक कल पुर्जा मेरा औजार है। मेरा वस्त्र है यह यंत्र मेरी इच्छानुसार क्रिया करने के लिए प्राप्त हुआ है। इस बात को बार-बार मन में दुहराइए। इस निस्पंद में मन और बुद्धि को दो सेवक शक्तियों के रूप में देखिए। वे दोनों हाथ बाँधे आपकी इच्छानुसार कार्य करने के लिए नतमस्तक खड़े हैं। इस शरीर और मन बुद्धि को देखकर प्रसन्न हूजिए की इच्छानुसार कार्य करने के लिए यह मुझे प्राप्त हुए हैं। मैं उनका उपयोग सच्चे आत्मस्वार्थ के लिए ही करूंगा। यह भावनाएं बराबर उस ध्यानावस्था में आपके मन में गूँजती रहनी चाहिए।

तीसरी साधना- जब दूसरी भूमिका का ध्यान भली प्रकार होने लगे तो तीसरी भूमिका का ध्यान कीजिए।

अपने को सूर्य की स्थिति में ऊपर आकाश में अवस्थित देखिए। मैं समस्त भूमंडल पर अपनी प्रकाश किरणें फेंक रहा हूँ। संसार मेरा कर्म क्षेत्र और लीला भूमि है, भूतल की वस्तुओं और शक्तियों को इच्छित प्रयोजन के लिए काम में लाता हूँ पर ये मेरे ऊपर प्रभाव नहीं डाल सकतीं। पंच भूतों की गतिविधि के कारण जो हलचलें संसार में हर घड़ी होती हैं वे मेरे लिए एक विनोद और मनोरंजक दृश्य मात्र हैं। मैं किसी की साँसारिक हानि लाभ से प्रभावित नहीं होता। मैं शुद्ध चैतन्य सत्यस्वरूप पवित्र निर्लिप्त अविनाशी आत्मा हूँ। मैं आत्मा हूँ, महान आत्मा हूँ। महान परमात्मा का विशुद्ध स्फुल्लिंग हूँ।

तीसरी भूमिका का ध्यान जब अभ्यास में कारण पूर्ण रूप से पुष्ट हो जाय और हर घड़ी वही भावना रोम रोम में प्रतिभाषित होने लगे तो समझना चाहिए कि इस साधना की सिद्धावस्था प्राप्त हो गई यही जागृत समाधि या जीवन मुक्त अवस्था है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118