योग साधना की आवश्यकता

April 1947

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योग साधना मनुष्य की एक दैनिक आवश्यकता है। योग का कार्य है :- मिलना। दो बिछुड़े हुओं का मिलाप बड़ा आनन्ददायक होता है। यही आनन्द हम योग साधना द्वारा प्राप्त करते हैं। आत्मा का परमात्मा से जब मिलना होता है तो बिछुड़ी हुई भावुक माता और छोटी बिटिया के अन्तःस्तलों की जो दशा होती है वही अनुभूति साधक को प्राप्त होती है।

भक्त, लोग ईश्वर आराधना के समय जो आनन्द उपलब्ध करते हैं उसकी तुलना संसार के अन्य किसी आनन्द से नहीं की जा सकती। रामायण में बलि की मृत्यु के समय का बड़ा सुन्दर चित्रण मिलता है। मृत्यु शय्या पर पड़े हुए बालि से भगवान राम ने पूछा कि तुम स्वर्ग मुक्ति या जो सद्गति चाहो वह प्राप्त कर सकते हो। बालि ने उन्हें उत्तर दिया।

“जेहि योनि जन्मों कर्म वश तँह रामपद अनुरागऊँ”

यही भावनाएं प्रायः अन्य सभी अनुभवी आध्यात्मवादियों की होती हैं। स्वर्ग और मुक्ति सुख की अपेक्षा प्रभु मिलन का सुख उन्हें अधिक ऊँचे दर्जे का लगता है। अनेकों साधक अपनी भौतिक संपदाओं में लात मारकर आत्मिक साधनाओं में तल्लीन होते हैं। क्योंकि उन्हें इस त्याग की अपेक्षा आत्म प्राप्ति का सुख अनेक गुना महत्वपूर्ण लगता है।

आइए, इस प्रश्न पर विचार करें कि यह योग साधना क्या है? उसकी रूप रेखा क्या है? उसके द्वारा किस प्रकार हमारा क्या लाभ होता है? इन प्रश्नों का ठीक प्रकार उत्तर प्राप्त कर लेने पर इस मार्ग पर अग्रसर होना सुविधाजनक होगा।

मनुष्य के अन्तस्थल में जो शुद्ध बुद्ध चैतन्य सत, चित, आनन्द, सत्य शिव, सुन्दर, ऊजर, अमर सत्ता है वही परमात्मा है। मन बुद्धि चित्त अहंकार के चतुष्टय को जीव कहते हैं। यह जीव आत्मा से भिन्न भी है और अभिन्न भी । इसे द्वैत भी कह सकते हैं और अद्वैत भी। अग्नि में लकड़ी जलने से धुआँ उत्पन्न होता है। धुएं को अग्नि से अलग कहा जा सकता है, यह द्वैत है। धुआँ अग्नि के कारण उत्पन्न हुआ है, अग्नि बिना उसका कोई अस्तित्व नहीं, वह अग्नि का ही अंग है, यह अद्वैत है। आत्मा अग्नि है, और जीव धुआँ है। दोनों अलग भी हैं और एक भी। उपनिषदों में इसे एक वृक्ष पर बैठे हुए दो पक्षियों की उपमा दी गई है। गीता में इन दोनों का अस्तित्व स्वीकार करते हुए एक को क्षर (नाशवान) एक को अक्षर (अविनाशी) कहा गया है।

भ्रम से, अज्ञान से, माया से, शैतान के बहकावे से, इन दोनों की एकता, पृथकता में बदल जाती है। यही दुख का, शोक का, संताप का, क्लेश का, वेदना का कारण है। पिता पुत्र में, पति स्त्री में, भाई भाई में सास बहू में, नौकर मालिक में, जब एकता रहती है दोनों पक्ष आपस में प्रेम करते हैं, एक दूसरे का हित चाहते हैं। सामंजस्य रखते हैं तो घर में सब सुख रहता है श्री वृद्धि होती है और वह परिवार स्वर्गीय आनन्द का उपभोग करता है। यही स्थिति मानव जीवन की है। जहाँ मन और आत्मा का एकीकरण होता है, जहाँ दोनों की इच्छा रुचि एवं कार्य प्रणाली एक होती है वहाँ अपार आनन्द का स्रोत उमड़ता रहता है। पर जहाँ दोनों में विरोध होता है, जहाँ नाना प्रकार के अन्तर्द्वन्द्व चलते रहते हैं। वहाँ आत्मिक शान्ति के दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं।

जिनके सम्बन्ध दूर के हैं उनमें मतभेद, विरोध या द्वेष हो तो बहुत बड़ी हानि नहीं, पर जिनके सम्बन्ध अति निकट के हैं उनमें थोड़ा सा भी विरोध होना भारी गड़बड़ी उत्पन्न करता है। पति पत्नी का आपसी सम्बन्ध बहुत घनिष्ठ है इसलिए उन दोनों को आपस में एक दूसरे से पूर्णतया सहयोग रखना आवश्यक समझा जाता है पतिव्रत धर्म का महात्म्य इसीलिए है कि इन दोनों सहचरों में पूर्ण एकता रहे। कदाचित इन दोनों में विरोध हो, एक दूसरे से बैर रखें, कार्य प्रणाली पृथक रखें तो दांपत्ति जीवन कितना अशान्त हो जायेगा उसकी भयंकरता की कल्पना सहज ही की जा सकती है।

मन और आत्मा का सम्बन्ध पति पत्नी और पिता पुत्र की अपेक्षा अधिक घनिष्ठ है इसलिए उन दोनों की एकता की और भी अधिक आवश्यकता है। दोनों का दृष्टिकोण एक होना चाहिए, दोनों की इच्छा रुचि एवं कार्य प्रणाली एक होनी चाहिए तभी जीवन में सच्ची शान्ति के दर्शन हो सकते हैं। पर इस स्थिति को विरले ही लोग प्राप्त कर पाते हैं। जिस प्रकार हमारे घर कुटुम्ब और समाज में अनैक्य के कारण क्लेश और संतापों की भरमार है वैसे ही आन्तरिक आत्मिक एकता न होने से मनुष्य के मन क्षेत्र में घोर अशान्ति मची रहती है। इस अव्यवस्था के संताप से उसका अन्तःलोक दावानल की तरह जलता रहता है। उसके पास भौतिक सुख साधन कितने ही अधिक क्यों न हों उससे अन्तःकरण को जरा भी शान्ति उपलब्ध नहीं होती। कितने ही लखपती करोड़पती व्यक्तियों को हम जानते हैं जिनके पास धन दौलत की, ऐश आराम के साधनों की, किसी प्रकार कमी नहीं है फिर भी वे अनेकों चिन्ताओं आवेशों, वेदनाओं, संतापों से घिरे रहते हैं इससे प्रकट है कि केवल धन दौलत से ही कोई व्यक्ति जीवन का आनन्द प्राप्त नहीं कर सकता। इसी प्रकार ऐसे भी अनेकों व्यक्ति हैं जिनके पास रुपया पैसा या अन्य संपदाएं नहीं हैं फिर भी वे खूब मस्त रहते हैं, सुख की नींद सोते हैं और अपने चारों ओर आनन्द देखते हैं। इससे प्रकट है कि धन दौलत के या साधनों के न होने से सच्चे सुख में कोई कमी नहीं आती। अमीरों का भी दुखी रहना और गरीबों का भी सुखी होना इस बात का प्रमाण है कि सुख का वास्तविक स्थान बाहर नहीं है, बाहर की वस्तुओं में नहीं है।

मन और अन्तःकरण के मिलन में एकता में सुख है। इसी को आत्मा और परमात्मा का मिलन कहते हैं। इस मिलन का दूसरा नाम योग है। दो वस्तुओं के मिलने से एक नवीन तन्त्र उत्पन्न होता है। पति पत्नी का मिलन एक मनोहर सन्तान का उपहार उपस्थित करता है, बिजली की ऋण और धन (ठंडी और गरम) शक्ति के तार जब आपस में मिलते हैं तो एक नवीन शक्ति उत्पन्न होती है। आत्मा और परमात्मा के योग से एक ऐसे आनन्द का आविर्भाव होता है जिसकी तुलना संसार के अन्य किसी भी सुख से नहीं की जा सकती। इस सुख को परमानन्द जीवन मुक्ति, ब्रह्मनिवारण आत्मोपलब्धि, प्रभुदर्शन आदि नामों से पुकारा जाता है।

मन का वस्तुतः स्वतन्त्र कोई अस्तित्व नहीं है। वह आत्मा का ही एक उपकरण, औजार, यंत्र है। आत्मा की कार्यपद्धति को सुसंचालित करके चरितार्थ करके स्थूल रूप देने के लिए मन का अस्तित्व है। इसका वास्तविक कार्य यह है कि आत्मा की इच्छा एवं रुचि के अनुसार विचारधारा एवं कार्य प्रणाली को अपनाए। इस उचित एवं स्वाभाविक मार्ग पर यदि मन की यात्रा जारी रहे तो मानव प्राणी जीवन के सच्चे सुख का रसास्वादन करता है। पर दुर्भाग्य की बात है कि आज हममें से अधिकाँश को यह स्थिति उपलब्ध नहीं है। आत्मा सत् प्रधान है। उसकी इच्छा एवं रुचि सात्विकता की दिशा में होती है। जीवन की हर घड़ी सात्विकता में सराबोर हो, हर विचार और कार्य सात्विकता से परिपूर्ण हो यह आत्मा की माँग है। पर माया या अविद्या के कुचक्र में फँसकर वे यह दूसरी ओर चल देता है। रज और तम में उसकी प्रवृत्ति दौड़ती है। इस कार्य विधि को निरन्तर प्रोत्साहन मिलने से वह इतनी प्रबल हो जाती है कि आत्मा की पुकार के स्थान पर मन की तृष्णा ही प्रधानता प्राप्त कर लेती है। आत्मा कहती है जीवन का उपयोग सात्विकतामय होना चाहिए, परमार्थ सेवा, तप, संयम, ईश्वराधना, कर्तव्य पालन उचित उपार्जन, निर्दोष मनोरंजन, प्रेम सद्भाव, सहयोग की प्रवृत्तियों को अपनाना चाहिए। पर मन की दौड़ इससे विपरीत दिशा की होती है वह ऐश आराम, बड़ाई पद दम्भ काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार व्यसन, मनोरंजन में रस लेता है और इन की पूर्ति के लिए इतना आतुर हो जाता है कि उचित अनुचित का पाप पुण्य का भी विचार छोड़ देता है और जैसे भी हो आत्मा की आवाज को कुचल कर भी अपनी अभिलाषाओं को पूर्ण करना चाहता है।

यह संघर्ष यह अनैक्य, यह विरोध ही आत्मिक अशान्ति का मूल कारण है। व्यभिचारिणी स्त्री की स्वच्छंदता के कारण धर्मपाण पति की जो दशा होती है, व्यसनी आवारा कुसंगति में पड़े हुए फिजूल खर्च, दुराचारी, बदमाश बेटे की हरकतों से प्रतिष्ठित पिता को जो कष्ट होता है, वैसा ही कष्ट इस आत्मिक विपरीतता के कारण आत्मा को होता है। इस कष्ट के कारण वह कराहती रहती है, इसका संताप, भोगों के छींटों से किसी प्रकार शान्त नहीं होता। यह आन्तरिक अशान्ति एक प्रकार का नरक है। बन्धन है। इस नरक और बन्धन से छुटकारा तभी मिल सकता है जब एकता का अभिमान हो। मन और अन्तःकरण में मेल हो। इस मेल को, एकता को एवं उसकी कार्य पद्धति को योग साधना कहते हैं।

यह योग साधना जीवन का एक नित्य कर्म होना चाहिए। संसार के वातावरण का कुप्रभाव मन पर जमता है, इसको नित्य ही साफ करने की जरूरत पड़ती है। कमरे में नित्य धूलि जमती है, इसलिए नित्य झाड़ू लगानी पड़ती है, त्वचा पर, नाक कान, आँख, दाँत, जीभ पर नित्य मैल जमता है इसलिए उनको जल से नित्य स्वच्छ करते हैं, इसी प्रकार मन पर साँसारिक दुष्प्रवृत्तियों के कुसंस्कार नित्य जमते हैं। उनको हटाने के लिए नित्य योग साधना की जरूरत पड़ती है। रोज जमने वाले मानसिक मैलों की सफाई के लिए और मन की आत्मा विरोधी प्रवृत्तियों को हटाने के लिए योग साधना आवश्यक है। और इतनी आवश्यक है कि उसे स्नान, शौच, भोजन, शयन की ही भाँति नित्य कर्मों में स्थान मिलना चाहिए। साधना, अन्तःकरण का शौच और आहार है इसलिए उसकी ओर तो शरीर की अपेक्षा अधिक सावधानी बरतनी चाहिए।

तेज धूप में चलकर थका हुआ पथिक जिस प्रकार शीतल सरोवर के तीर सघन वृक्षों की छाया में शान्ति अनुभव करता है। उसी प्रकार साँसारिक संघर्षों से व्यथित मनुष्य अंतर्मुखी होकर आत्मा के निकट जब बैठता है तो एक शान्ति अनुभव करता है। इस थोड़ी देर के सुस्ता लेने से उसे एक स्फूर्ति, चैतन्यता एवं ताजगी प्राप्त होती है, जिसके आधार पर जीवन पथ को उचित रीति से पार करना उसके लिए सुगम हो जाता है।

सच्ची सुख शान्ति प्राप्त करना हमारे जीवन का चरम लक्ष्य है। उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए योग साधना ही एक आधार है। उस आधार के लिए यों तो जितना अधिक से अधिक समय लगाया जा सके उतना अच्छा है, पर कम से कम 2 घण्टे नित्य अनिवार्य रूप से लगना चाहिए। साधना के बिना केवल वाचक ज्ञान से, किसी का वास्तविक भला नहीं हो सकता।


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