(श्री ठा. महिपालसिंहजी निमदीपुर)
करुणा निधान, भगवान्, दीन के दुःखों का अनुमान करो।
तुम अपने तुल्य आप ही हो, संतप्त हृदय का ताप हरो॥
दिन रात घात खल पाती है, उत्पात मचाने वालों की।
क्यों बात रोकली जाती है, इन दुःख उठाने वालों की॥
जो ध्यान आपका धरते हैं, डरते हैं अत्याचारों से।
हाँ! उन्हें निपटना पड़ता है अत्याचारी हत्यारों से॥
यदि कहने का विश्वास न हो तो दशा देखलो आकर के।
तुम भी कुचक्र से डरते हो, हाँ! चक्रपाणि कहला कर के ॥
सुन कर पुकार तुम भक्तों की, रुकने वाले भगवान् न थे।
निष्पक्ष न्याय के साथी थे, झुकने वाले भगवान् न थे॥
देखो पुकार है मची हुई दुनिया के कोने-कोने में।
क्या अब भी देर समझते हो, मायाघिप दुर्गति होने में॥
जब जब दुष्टों का जोर हुआ तब-तब रक्षा तुमने की है।
विश्वास आप पर था जिनका उन भक्तों की सुधि भी ली है॥
दिन रात हाथ धोकर पीछे ये उत्पाती हैं पड़े हुए।
इस ओर आपके विश्वासी, छाती खोले हैं अड़े हुए॥
प्रतिबन्ध नहीं क्या हो सकता? षड़यन्त्र रचाने वालों का।
अथवा हो सकता न्याय नहीं? अन्याय मचाने वालों का॥
दुख से क्यों द्रवित न होते हो? क्यों दया दिखाना भूल गये।
रावण का-खरदूषण का-दल, उत्पात मचाता नये नये॥
तुमसे तो सही न जाती थी, गतिविधि भी अत्याचारी की।
मानव समाज में मनोतीत पदवी थी गर्व प्रहारी की॥
क्या यह संकट का समय नहीं? या करुणा क्रन्दन थोड़ा है।
अथवा मारग ही भूल गये या जान बूझ मुख मोड़ा है॥
ऐसा तो लाखों बार हुआ है टेर लगाते देर हुई।
पर दीनों के हित दीन बन्धु को कभी न आते देर हुई॥
यह उदासीनता दीनों से अनुचित है दीनानाथ तुम्हें।
इस धर्म क्षेत्र में अर्जुन का देना है भगवन् साथ तुम्हें॥
*समाप्त*