मौन व्रत

April 1947

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कितने ही व्यक्तियों को ऐसी आदत होती है कि उनसे चुप नहीं रहा जाता। हर वक्त कतरनी की तरह उनकी जीभ चलती रहती है। कोई कहने योग्य आवश्यक बात हो या न हो, उन्हें कुछ न कुछ कहे बिना चैन नहीं पड़ता। व्यर्थ की, अनर्गल, झूठी, मनगढ़ंत, निष्प्रयोजन, गपशप करते हुए उन्हें बड़ा मजा आता है। वास्तव में यह एक बड़ा दुर्गुण है। वाणी हमारी पवित्र आध्यात्मिक एवं महत्वपूर्ण शक्ति है। इसके एक-एक अणु का सदुपयोग होना चाहिए।

लोग नहीं समझते कि शब्द के साथ हमारी कितनी विद्युत शक्ति, जीवनी शक्ति एवं प्राण शक्ति मिली रहती है। वाणी के साथ-साथ हमारी संचित शक्तियों का क्षरण होता है। देखा जाता है कि वाणी के द्वारा शत्रुओं को मित्र और मित्रों को शत्रु बनाया जा सकता है। किसी के शब्दों में रस बरसता है और अमृत झरता है किन्तु किसी की जीभ जब चलती है तो दुर्गन्ध, द्वेष, घृणा और विग्रह ही उत्पन्न करती है। इससे प्रकट है कि हमारे भीतरी तत्व वाणी के साथ सम्मिश्रित होते हैं। वाणी जब निकलती है तो अपने साथ हमारे शक्ति कोण को लपेट लाती है। इस कोण को यदि अकारण, अनुपयुक्त दिशा में खर्च किया जाय तो न केवल हमारी प्राणशक्ति नष्ट होगी वरन् बकवास की एक दूषित आदत भी हमारे पीछे पड़ जायगी।

महात्मा गाँधी अपना अधिक समय मौन में बिताते हैं। सप्ताह में एक दिन तो मौन उनका रहता ही है। इसके अतिरिक्त वे काम करते समय चुप रहते हैं महत्वपूर्ण राजनैतिक वार्ताओं में भी वे उतना ही बोलते हैं जितना बोले बिना काम नहीं चलता उनका कथन है कि- “मौन एक ईश्वरीय अनुकम्पा है, मौन के समय मुझे आन्तरिक आनन्द मिलता है।”

किसी वक्ता का भाषण सुनने के लिए हमें चुप होना पड़ता है। कोलाहल में हम पास के शब्द भी नहीं सुन पाते किन्तु निस्तब्ध वातावरण में दूर-दूर की शब्द ध्वनियाँ भी आसानी से सुनी जा सकती हैं। दिव्य लोकों से हमारे लिए जो दिव्य आध्यात्मिक सन्देश आते हैं उन्हें सुनने के लिए मौन होने की आवश्यकता पड़ती है। आत्मा के प्रति परमात्मा की जो सन्देश ध्वनियाँ आती हैं उन्हें मन और वाणी से मौन होकर ही सुना जा सकता है। यह एक दैवी रेडियो है। चुप रह कर अंतर्मुखी होकर साधक परमात्मा के प्रकाश को ग्रहण कर सकता है। जो लप लप हर घड़ी जीभ चलाता रहता है दुनिया भर की अगड़म बगड़म बकता रहता है उसके लिए अंतर्मुखी होना और मौन के दैवी लाभ को प्राप्त करना कठिन है।

एक बार ऋषि भाष्कलि ने अपने आचार्य से प्रश्न किया कि- ‘भगवान ब्रह्मा को कैसे प्राप्त किया जा सकता है?” आचार्य ने कोई उत्तर न दिया। भाष्कलि ने सात बार यह प्रश्न पूछा कि आचार्य सातों बार चुप रहे। अन्त में उनने कहा- भद्र! मैं बार बार उत्तर दे रहा हूँ, पर तू समझता ही नहीं। उस ब्रह्म को वाणी से कहा सुना नहीं जा सकता उसे तो मौन होकर ही समझा और प्राप्त किया जा सकता है।

ब्रह्मचर्य केवल वीर्य संचय को ही कहते हों सो बात नहीं, शक्तियों के क्षरण को रोकना ब्रह्मचर्य है। वाणी का संयम ‘वाक् ब्रह्मचर्य’ कहलाता है जिस प्रकार वीर्य के अपव्यय से रोग, जरा और अकाल मृत्यू की गोद में जाना पड़ता है वैसे ही वाणी का दुरुपयोग, अपव्यय करने पर मानसिक शक्तियों की न्यूनता होती जाती है। कहते हैं कि- “ जो गरजते हैं सो बरसते नहीं।” कारण स्पष्ट है बकवास में जिसकी शक्तियाँ अधिक खर्च हो जाती हैं। कार्य करते समय उसे उन शक्तियों की कमी पड़ जाती है। संसार के जितने भी रचनात्मक कार्य करने वाले महापुरुष, वैज्ञानिक ग्रन्थकार, सेनापति, एवं महात्मा हुए हैं वे सभी प्रायः मितभाषी थे। शक्ति के साधकों को मौन रहना चाहिए। मितभाषण को शास्त्रकारों ने मौन कहा है। जो भाषण किसी के लाभ हित या कल्याण के उद्देश्य से किया जाता है वह मौन है। उतना ही बोलना चाहिए जितना बोलना आवश्यक है। शेष समय में चुप रहना चाहिए।

योग शास्त्रों में चार वाणी बताई हैं। (1) परावाणी (2) पश्यन्ति वाणी (3) मध्यमा वाणी (4) वैखरी वाणी। इनमें से परा और पश्यन्ति सूक्ष्म तथा मध्यमा और वैखरी स्थूल हैं। मन में जो संकल्प उठते हैं, जो सोच विचार ऊहापोह, तर्क वितर्क आयोजन वियोजन होते हैं। उनमें सूक्ष्म वाणी का प्रयोग होता है। मध्यमा वाणी कन्ठ में और वैखरी जिव्हा में रहती है। घुस पुस, अस्पष्ट, वाणी कन्ठ से और स्पष्ट ध्वनि वाली वाणी जिव्हा से उत्पन्न होती है। इन चारों वाणियों का हमें संयम एवं सदुपयोग करना चाहिए।

जिव्हा खोलने से पहले शब्दोच्चार करने से पहले यह विचार करना चाहिए कि जो बात कहने जा रहे हैं वह किसी के लाभ के लिए कही जा रही है या नहीं? जितने विस्तार से कहनी चाहिए इन दोनों प्रश्नों को सामने रखकर भाषण करना इस प्रकार ध्यान रखकर जो वार्तालाप किया जाता है वह मौन है। लोक हित की, परमार्थ की दृष्टि से से कुछ कहा जाता है वह मौन ही है। निष्प्रयोजन फिजूल बातों से बचना मौन का प्रधान उद्देश्य है।

मन में उठने वाले विचारों में विविध कल्पनाएं होती हैं, उनमें दृश्य और वाणी दो अंग होते हैं। इसमें भी संयम बरता जाना चाहिए। लोक हितकारी, परमार्थिक, सात्विक, वास्तविक, उचित कल्पनाओं को ही मस्तिष्क में स्थान मिलना चाहिए व्यर्थ की चिंताएं कल्पनाएं तृष्णाएं मन में भरे रहने से परा एवं पश्यन्ति वाणियों का क्षरण होता है। आत्मिक शक्तियों का अपव्यय होता है।

मन और शरीर दोनों का मिलाकर ही एक पूर्ण कौन बनता है। जो एकाँगी है वह अधूरा है। जबान से चुप रहना और मन में तूफान चलाते रहना, यह तो अधूरी चीज हुई। मौनी का ही दूसरा नाम मुनि है मुनि से जीवन शक्ति दूर नहीं होती।

मौन की साधना।

मौन की अंतिम सफलता प्राप्त करने के लिए उसकी विधिवत साधना करनी चाहिए। सप्ताह में एक दिन या पखवाड़े में एक दिन मौन व्रत होना चाहिए। यह कम से कम 4 घन्टे लगातार का होना चाहिए। यदि प्रति 2 घन्टे की साधना हो सके तो और भी अच्छा। सुविधानुसार यदि समय और भी अधिक बढ़ाया जा सके तो और भी अच्छा है। मौन के समय अन्य शारीरिक कार्य न करने चाहिएं। पूर्ण विश्राम लेते हुए एकान्त स्थान में रहना चाहिए। मौन काल में पुस्तकें नहीं पढ़नी चाहिएं और न विविध विषयों पर मन ढ़ुलाना चाहिये इस समय चित्त को सब ओर से हटा कर इष्ट देव का या प्रकाश ज्योति का ध्यान करना चाहिए। मौन काल में भोजन नहीं करना चाहिए।

इस छोटी सी साधना को करते रहने से मौन में सफलता मिलती है। साधक मुनि बनता है। मौनी की वाणी बड़ी प्रभावशाली होती है। उसका शाप वरदान सफल होता है। चित्त में शान्ति रहती है और आत्म बल बढ़ता है।


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