युगशक्ति गायत्री का अभिनव अवतरण

गायत्री जप और उसकी सामूहिक शक्ति

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जप योग की प्रक्रिया आत्म-परिष्कार की दृष्टि से अत्यंत उपयोगी विज्ञान-संगत और बुद्धि-सम्मत उपाय है। गायत्री उपासना में ‘जप’ विधान का पक्ष ही सबसे अधिक है। इस धर्मानुष्ठान के अन्य उपचार कृत्यों में तो थोड़ा-सा ही समय लगता है। प्रधानता जप संख्या में लगने वाले समय की ही रहती है।

जप का मोटा रूप है—निर्धारित मन्त्र की पुनरावृत्ति। रगड़ने, घिसने, पीसने, मांजने, चीरने आदि की क्रियाओं से पदार्थों की स्थिति को बदलना सम्भव होता है। इसे पुनरावृत्ति का ही चमत्कार कह सकते हैं।

बर्तन मांजने में उन्हें किसी कड़ी और खुरदरी चीज से रगड़ना पड़ता है। घर में झाड़ी लगानी हो तो झाड़ने की क्रिया में पुनरावृत्ति ही करनी पड़ती है। कपड़े धोने हों तो उन्हें पानी में भिगो कर फचफचाने, पीटने, रगड़ने के रूप में पुनरावृत्ति ही करनी होती है। स्नान करते समय शरीर का मलना—रगड़ना ही स्वच्छता का उद्देश्य पूरा करना है। सफाई के लिए हाथ धोते समय भी यही होता है। जूतों पर पालिश करने से लेकर बालों में कंघी करने तक के साधारण कामों में यही करना होता है।

लकड़ी चीरने में आरी की और धातु काटने में रेती की यही रीति अपनानी पड़ती है। पैरों को पीछे से आगे को निरन्तर उठाते चलने पर ही लम्बी यात्राएं सम्पन्न होती हैं। चन्दन घिसने, मेहंदी पीसने में, तेल मालिश में एक ही कृत्य को बार-बार करने का तरीका अपनाया जाता है। आटा गूंथने, रोटी बेलने, दीवारें पोतने, फर्नीचर रंगने जैसे दैनिक कार्यों में पुनरावृत्ति का ही बोलबाला है। एक बार हाथ को इधर से उधर कर देने पर तो उपरोक्त कार्यों में से एक भी सिद्ध नहीं हो सकता। जप प्रक्रिया में इसी सिद्धान्त को चरितार्थ होते देखा जा सकता है। कड़े पत्थर पर रस्सी की रगड़ पड़ने से उस पर गहरे निशान बन जाते हैं तो कोई कारण नहीं कठोर दीखने वाली मनोभूमि पर जप जैसे सुसंस्कारी प्रयोगों का उपयोगी सत्परिणाम उत्पन्न न हो सके।

मैल छुड़ाने के लिए जितने भी प्रकार हैं उन सबमें—रगड़ का सिद्धान्त सर्वत्र क्रियान्वित होते पाया जायगा। पालिश का एक तरीका तो चमकदार रसायनों को ऊपर से पोत देना भी होता है, पर दूसरा तरीका भी कम महत्वपूर्ण नहीं है—रगड़ने का। धातुओं पर सस्ती और अच्छी पालिश उन्हें मात्र रगड़ने भर से पूरी हो जाती है। धातु पालिश की मशीनों में प्रायः घिसने का कार्य होता रहता है। संगमरमर और उसके छोटे टुकड़े चिप्स लगा कर मकान बनाये जाते हैं और पत्थर में चिकनाई की सुगढ़ता बढ़ने के लिए उसकी रगड़ाई, घिसाई पर मशीनों या मजूरों को लगाया जाता है। यह रगड़ने की पुनरावृत्ति के ही चमत्कार हैं। जप साधना में शरीर और मन के दिव्य संस्थानों को खोद निकालने में भी यही सब होता रहता है। कुंआ खोदने में बार-बार फावड़े चलते हैं। छैनी और हथौड़ी का कार्य भी लगातार ही चलता है उसके बीच में तनिक-सा विश्राम भर रहता है। ऐसा तो हृदय की धड़कन और फेफड़े के श्वास-प्रश्वास क्रमशः लगातार चलते रहने पर भी बीच-बीच में तनिक-सा विराम होता रहता है। मांस पेशियों का आकुंचन-प्रकुंचन—रक्त का दौड़ना-लौटना यह सब भी अनवरत क्रम से चलते हैं। घड़ी के पेण्डुलम क्रम की तरह ही शरीर की सारी मशीन पुनरावृत्ति क्रम से उत्पन्न होने वाली शक्ति द्वारा ही परिचालित होती है। जीवन धारण में आन्तरिक अवयवों की निरन्तर गतिशीलता पुनरावृत्ति के रूप में ही देखी जा सकती है।

रगड़ने की तरह ही दूसरी क्रिया गतिचक्र की है। उससे भी शक्ति उत्पन्न होती है। मशीनों का चक्कर घूमता है तो उनमें अपने-अपने ढंग की सामर्थ्य उत्पन्न होती है। बिजली की मोटरें तेल के इंजन सभी की संरचना गोलाई वाली गति उत्पन्न करने की है। इस गतिशीलता में भी गोलाई स्तर की पुनरावृत्ति ही होती है। ग्रह-नक्षत्र अपनी कक्षाओं में अनवरत गति से दौड़ते और अपने अयन-कक्ष में परिक्रमा करते हैं। इसी से उनमें आकर्षण शक्ति उत्पन्न होती है और उसी के सहारे वे अन्य ग्रह-नक्षत्रों से सम्बन्ध सूत्र बनाकर अधर में लटके रहते हैं। परिक्रमण की शक्ति एवं चुम्बकीय क्षमता प्राप्त करते हैं उसके बिना उनकी स्थिरता ही संदिग्ध हो जायगी।

गोलाई में परिभ्रमण करना समस्त वाहनों में लगे रहने वाले पहियों की चमत्कारी उपलब्धि है। इसके बिना परिवहन और यातायात में काम आने वाले किसी भी यन्त्र का कार्य चल नहीं सकता। धकेल गाड़ी से लेकर रेलगाड़ी तक की सभी मशीनें चक्कर घूमने पर ही चलती हैं। आगे-पीछे वाली रगड़ की तरह गोलाई वाली अग्रगामी गति भी शक्ति उत्पन्न करती है। उसे हर कोई जानता है। मन्त्र जप में शब्द क्रम की पुनरावृत्ति भी होती है और उसका अनवरत क्रम गोलाई वाली गति भी बना देता है फलतः उस उपाय उपचार से दुहरा लाभ होता है। इस लाभ से मनुष्य को अपने प्रकट और अप्रकट शक्ति संस्थानों को प्रखर बनाने में असाधारण सहायता मिलती है।

बिजली का पंखा जब तेजी से घूमता है तो उसका एक चक्र बन जाता है, लट्टू घूमता है तो वह खड़ा जैसा घूमता है। जलती बारूद के खिलौने जब तेजी से घूमते हैं तो भी देखने में गोल चक्र जैसा दीखते हैं। पक्षी उड़ाने की ‘गोफन’ भी जब तेजी से घुमाई जाती है तो लगता है कोई बड़ा पहिया घूम रहा हो। एक कक्षा में अनवरत गति का चलते रहना गति चक्र बनाता और उससे वही सब काम सम्पन्न हो सकते हैं जो गोलाई में घूमने वाली मशीनों द्वारा सम्भव होते हैं। भगवान कृष्ण का चक्र सुदर्शन असाधारण शक्तिशाली था। पर गति न होने पर तो वह भी एक साधारण-सा धार दार पहिया बन कर कहीं पड़ा रहता होगा। गति की तीव्रता से एक शक्तिशाली स्वतन्त्र इकाई बन कर खड़ी हो जाती है। उसके मध्यवर्ती विरामों का पता भी नहीं चलता। ऊपर से बरसने वाली बूंदें एक छड़ की तरह खड़ी दिखाई देती हैं यद्यपि वे वस्तुतः अलग अलग ही होती हैं। मन्त्र जप में चलने वाली शब्दों की क्रमबद्ध गतिशीलता न केवल रगड़ का प्रयोजन पूरा करती है वरन् उससे गोलाई जैसी गति भी बनती है और सामर्थ्य का उपयोग व्यक्तित्व की विभिन्न परतों को समुचित एवं परिष्कृत करने के काम आता है। जपकर्ता अनेक लाभों से लाभान्वित होते हैं, इसके पीछे पुनरावृत्ति के कारण उत्पन्न हुई रगड़ एवं गोलाई दोनों ही शक्ति संधान का काम करते हैं।

पदार्थ विज्ञान के विद्यार्थी जानते हैं कि समस्त ऊर्जा स्रोतों के अन्तराल में ताप की तरह ही शब्द शक्ति का भी बहुत ऊंचा स्थान है। दोनों की तरंगें होतीं तो भिन्न भिन्न प्रकार की हैं, पर उनकी समर्थता किसी से किसी की कम नहीं। बिजली, भाप, तेल, कोयला आदि के ईंधनों के माध्यम से प्रकट होने वाली शक्ति के पीछे जो शक्ति तरंगें काम करती हैं उनमें ताप की तरह समय-समय पर शब्द की शक्ति भी अपनी प्रचण्डता का परिचय देती देखी गई है। किसका उपयोग अधिक होता है किसका कम प्रश्न यह नहीं, वरन् यह है कि क्षमता की दृष्टि से दोनों के स्तर में अन्तर तो नहीं है। इस दृष्टि से विश्व के अन्तराल में काम करने वाली, समर्थ तरंगें, शब्द शक्ति अपनी सहेलियों में किसी से हलकी नहीं पड़तीं।

शब्द के साथ चेतना का समावेश हो जाने से उसका स्तर भौतिक क्षेत्र की सामान्य शब्द तरंगों की अपेक्षा अत्यधिक सामर्थ्यवान बन जाता है। फिर उसमें साधक की आस्थाएं, तपश्चर्याएं भी अपना योगदान करती हैं। फलतः मन्त्र जप द्वारा उत्पन्न की गई शब्द सामर्थ्य में और भी उच्च स्तरीय धाराएं जुड़ जाती हैं, फलतः उनका स्तर इतना ऊंचा उठ जाता है जिसके प्रभाव को देखते हुए उसे अद्भुत एवं चमत्कारी कहने में कोई संकोच नहीं रह जाता।

मन्त्रों में गायत्री मन्त्र सर्वोपरि है। उसकी शब्द रचना में अक्षरों का गुंथन ध्वनि विज्ञान के रहस्यमय सिद्धान्तों के आधार पर विनिर्मित किया गया लगता है। अर्थ की दृष्टि से इन 24 अक्षरों में दिव्य चेतना से ऋतम्भरा प्रज्ञा का अन्तःचेतना में अवतरण सम्भव करने के लिए आग्रह अनुरोध भर किया गया है। यह स्तवन अनुरोध श्रुति साहित्य के अन्य छन्दों में भी मौजूद है। गायत्री की विशिष्टता अर्थ की दृष्टि से अनुपम नहीं कहीं जा सकती, पर उसका ध्वनि गुंथन ऐसा है जिससे उसकी जप प्रक्रिया असाधारण स्तर के ध्वनि प्रवाह उत्पन्न करती है। उसके सत्परिणाम न केवल जपकर्ता को मिलते हैं, वरन् वह उन लाभों को अन्यों के लिए स्थानान्तरित कर सकता है। इस जप प्रवाह की प्रक्रिया का समूचे वातावरण पर उपयोगी प्रभाव पड़ने से उसका लाभ समस्त संसार को—मनुष्यों एवं अन्यान्य प्राणियों को—भी मिलता है।

सम्पदा, विद्या, बलिष्ठता आदि शक्तियों के बदले जिस प्रकार भौतिक सुविधा साधन खरीदे जाते हैं उसे प्रकार आत्म शक्ति के द्वारा सूक्ष्म जगत और स्थूल जगत की अनेकों शक्तियों के जगने एवं काम में लाने की परिस्थिति बनती है। आत्म-शक्ति के उत्पादन अभिवर्धन में सहायक यों और भी कई प्रकार एवं साधन हैं, पर उन सबमें सरल तथा प्रभावी उपाय मन्त्र जप का है। उसे समग्र विधि-विधान से—योगाभ्यास एवं तपश्चर्या के सहयोग से किया जा सके तो इसकी प्रतिक्रिया चमत्कारी होती है। उससे आत्म-शक्ति का उत्पादन प्रचुर मात्रा में होता है। यही बढ़ी-चढ़ी आत्म-शक्ति की मात्रा साधक को सिद्ध पुरुष बनाती है और उसके द्वारा अन्य अनेकों पिछड़े हुए, आगे बढ़ने का—संत्रस्त और संतप्त संकट से उबरने का, अभावग्रस्त सुसम्पन्न बनने का लाभ उठाते हैं।

एक ही उपक्रम अनेकों स्थानों पर बड़े परिणाम में चलता है तो उसका संयुक्त उपार्जन सारे वातावरण को प्रभावित करता है। बड़े नगरों में घर-घर चूल्हे जलते हैं फलतः उस क्षेत्र में गर्मी अधिक मात्रा में बढ़ी पाई जाती है। औद्योगिक नगरों में जगह-जगह चिमनियां जलती हैं। फलतः सबका मिला-जुला धुंआ उस सारे इलाके पर धुंध छाये रखता है। यह प्रदूषण के बुरे उदाहरण हुए। जहां पुष्पों की खेती होती है—चन्दन जैसे सुगन्धित उद्यान लगे होते हैं, वह सारा क्षेत्र सुवाष से महकता रहता है। यह एक अच्छे उदाहरण हुए। गायत्री जप अनेकों द्वारा—अनेक स्थानों पर किये जाने लगे तो उससे उत्पन्न अध्यात्म ऊर्जा उस क्षेत्र के व्यक्तियों की मनःस्थिति एवं परिस्थिति को प्रभावित करती है। संयुक्त साधना के फलस्वरूप दूर-दूर तक का वातावरण सत्प्रवृत्तियों से भरता है और सुख-शान्ति की संभावना बढ़ाता है।

सामूहिक गायत्री अनुष्ठानों का और भी अधिक पुण्य फल माना गया है। लाभ तो एकाकी—पृथक-पृथक प्रयत्नों का भी है, पर संयुक्त प्रयासों के परिणाम तो और भी अद्भुत होते हैं। सींकें अलग-अलग रहना और उनकी एक बुहारी बंधने—धागे अलग-अलग रहना और उनका इकट्ठा रस्सा बटने—बूंदों का अलग बिखरना और एक तालाब में जमा होने में कितना अन्तर होता है, इसे हर कोई सहज बुद्धि से जान सकता है। गायत्री उपासकों का एक संकल्प के अन्तर्गत एक संगठन सूत्र में बंध कर संयुक्त साधना का उपक्रम करना हर दृष्टि से हर किसी के लिए कहीं अधिक श्रेयस्कर सिद्ध होता है। गायत्री परिवार के तत्वावधान में लाखों साधकों द्वारा-दिव्य मार्ग दर्शन के अन्तर्गत—संयुक्त साधना संकल्प का जो उपक्रम इन दिनों चल रहा है उससे आत्म-शक्ति का प्रचण्ड शक्ति समुच्चय होना प्रत्यक्ष है। इसी संयुक्त साधना शक्ति की महाकाली को महाकाल द्वारा इन दिनों नव-निर्माण के लिए—युग-निर्माण के लिए—प्रयुक्त किया जा रहा है। उसके सत्परिणामों की अपेक्षा आशा और विश्वास पूर्वक की जा सकती है। इन प्रयासों से उज्ज्वल भविष्य की संरचना में महत्वपूर्ण योगदान मिलना निश्चित है।
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