यों मनुष्य के पास प्रत्यक्ष सामर्थ्य भी कम नहीं है और उनका सदुपयोग करे भी वह अपने तथा दूसरों के लिए बहुत कुछ कर सकता है। किन्तु उसकी असीम सामर्थ्य को देखना हो तो मानवी चेतना के अन्तराल में प्रवेश करना होगा। व्यक्ति की महिमा तो बाहर भी देखी जा सकती है, पर गरिमा का पता चलाना हो तो अन्तरंग ही टटोलना पड़ेगा। इस अन्तरंग को समझने, उसे परिष्कृत एवं समर्थ बनाने, जागृत अन्तःक्षमता का सदुपयोग कर सकने के विज्ञान को ही ब्रह्म विद्या कहते हैं। ब्रह्मविद्या के विशाल कलेवर का बीज सूत्र गायत्री को समझा जा सकता है। प्रकारान्तर से गायत्री को मानवी गरिमा के अन्तराल में प्रवेश पा सकने वाली और वहां जो रहस्यमय है उसे प्रत्यक्ष में उखाड़ लाने की सामर्थ्य को गायत्री कह सकते हैं। नव युग के सृजन में सर्वोपरि उपयोग इसी दिव्य शक्ति का होगा।
मनुष्य की बहिरंग सत्ता को भी कई तरह की सामर्थ्य प्राप्त हैं, पर वे सभी सीमित होती हैं और अस्थिर भी। सामान्यतया सम्पत्ति, बलिष्ठता, शिक्षा प्रतिभा, पद अधिकार जैसे साधन ही वैभव में गिने जाते हैं और इन्हीं के सहारे कई तरह की सफलताएं सम्पादित की जाती हैं। इतने पर भी इनका परिमाण सीमित ही रहता है और उनके सहारे व्यक्तिगत वैभव सीमित मात्रा में ही उपलब्ध किया जा सकता है। भौतिक सफलताएं मात्र अपने पुरुषार्थ और साधनों के सहारे ही नहीं मिल जाती, वरन् उनके लिए दूसरों की सहायता और परिस्थितियों की अनुकूलता पर भी निर्भर रहना पड़ता है। यदि बाहरी अवरोध उठ खड़े हों—परिस्थितियां प्रतिकूलता की दिशा में उलट पड़ें तो साधन और कौशल अपंग बनकर रह जाते हैं और असफलता का मुंह देखना पड़ता है। आत्मशक्ति के साथ जुड़ा हुआ ‘वर्चस्’ भौतिक साधनों की तुलना में अत्यधिक सुनिश्चित है। उसमें न तो ससीमता का बन्धन है और न स्वल्पता का असन्तोष। उस क्षेत्र की प्रचुरता असीम है। आत्मा का संबंध सूत्र परमात्मा के साथ जुड़ा होने के कारण आवश्यकतानुसार उस स्रोत से बहुत कुछ, सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है।
कुएं में सीमित पानी भरा रहता है पर खींचने पर जो कमी पड़ती है, उसे भूमिगत जल स्रोत ही पूरी करते रहते हैं। चिनगारी छोटी होती है, पर ईंधन जैसे साधन मिलते ही उसे दावानल का विकराल रूप धारण करने में देर नहीं लगती। व्यापक अग्नितत्व का सहयोग मिलने का ही यह चमत्कार है। नदी की धारा सीमित होती है। उसमें थोड़ा-सा ही जल बहता है पर हिमालय जैसे विशाल जल स्रोतों के साथ तारतम्य जुड़ा होने के कारण वह अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित ही बनी रहती है जब कि पोखर का पानी अपने तक ही सीमित रहने के कारण उपयोग कर्त्ताओं का—धूप, हवा का दबाव सह नहीं पाता और जल्दी ही सूख कर समाप्त हो जाता है। भौतिक सामर्थ्यों की तुलना पोखर के पानी से की जा सकती है और आत्मिक शक्तियों को हिमालय से निकलने वाली नदियों के समतुल्य समझा जा सकता है।
भौतिक पदार्थ परिवर्तनशील हैं। इस जगत का सारा क्रम ही उतार चढ़ाव के गतिचक्र पर परिभ्रमण करता है। यहां अणु से लेकर सूर्य तक सभी गतिशील हैं। वे चलते, बढ़ते और बदलते हैं। स्थिरता दीखती भर है वस्तुतः है नहीं। पदार्थ का स्वभाव ही परिवर्तन है। जन्म और मरण से कोई भी बच नहीं सकता इसी प्रकार स्थिरता के लिए भी कहीं कोई गुंजायश नहीं है। शरीर शैशव से यौवन तक बढ़ता तो है, पर वृद्धता और मरण भी उतने ही सुनिश्चित हैं। शिक्षा और अनुभव अभ्यास के सहारे बुद्धि वैभव बढ़ता तो है, पर यह भी निश्चित है कि आयु वार्धिक्य के साथ-साथ स्मरण शक्ति से लेकर कल्पना और निर्णय के काम आने वाले बुद्धि संस्थान के सभी घटक अशक्त होते चले जाते हैं। एक समय ऐसा आता है जब एक समय का बुद्धिमान दूसरे समय ‘मतिहीन’ माना जाता है और ‘सठियाने’ के तिरस्कार का भाजन बनता है। वृद्धावस्था की अशक्तता और रुग्णता से तो सभी परिचित हैं। बुद्धिबल की तरह इन्द्रिय बल भी ढलान के दिन आने पर क्रमश घटता ही चला जाता है। विभूतियां दुर्बल का साथ छोड़ देती हैं। तब पद अधिकार को हस्तगत किये रहना तो दूर गृहपति का पद भी नाम मात्र के लिए ही रह जाता है। परिवार का संचालन कमाऊ लोगों के हाथ में चला जाता है। किसी समय का गृहपति इन परिस्थितियों में मूक दर्शक और कुछ करने बदलने में अपने आप को असहाय ही अनुभव करता है। राजनैतिक क्षेत्रों में बूढ़े नेताओं को हटाने का जो आन्दोलन चल रहा है उसके पीछे यह अशक्तता के तत्व ही काम करते दिखाई पड़ते हैं।
साधनों का भी यही हाल है। धन उपार्जन से मिलने वाली सफलताएं—बढ़े हुए खर्च के छेद में होकर टपकती रहती हैं और संग्रह का भंडार अपूर्ण ही बना रहता है। फिर उपार्जन की कमी एवं खर्च की वृद्धि के असंतुलन भी आते ही रहते हैं। न तो अमीरी स्थिर है न गरीबी। ऐसी दशा में धन के आधार पर बनने वाली योजनाएं भी अस्त-व्यस्त बनी रहती हैं। इस क्षेत्र की सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि अर्थ साधनों के उपयोगकर्त्ता यदि प्रमादी या दुर्बुद्धि हुए तो सम्पत्ति का दुरुपयोग होता है और उससे उलट कर विग्रह और संकट ही उपज पड़ते हैं।
प्रत्यक्षतः सब कुछ दीखने वाले भौतिक साधनों की ससीमता, अस्थिरता, अनिश्चितता को देखते हुए उनके द्वारा जो सफलताएं मिलती हैं उन्हें भाग्योदय जैसी आकस्मिकता ही माना जा सकता है। सांसारिक सफलताओं तक के संबंध में उनके सहारे अभीष्ट मनोरथ पूरा हो सकने की आधा भर लगाई जा सकती है, विश्वास नहीं किया जा सकता। जब सामान्य प्रयोजनों तक के सम्बन्ध में इतना असमंजस है तो युग परिवर्तन जैसे कल्पनातीत विस्तार वाले—असीम शक्ति साधनों की आवश्यकता वाले महान कार्य को उस आधार पर कैसे सम्पन्न किया जा सकता है। इतिहास साक्षी है कि हर दृष्टि से समर्थ समझी जाने वाली सत्ताएं अपने सम्प्रदाय को व्यापक बनाने जैसा छोटा मनोरथ तक पूरा न कर सकीं। इस्लाम और क्रिश्चियनियों के विस्तार के लिए आतुर सत्ताधारी हर सम्भव उपाय अपनाने पर भी बहुत थोड़ी सफलता पा सके हैं। ऐसी दशा में यह सोचना हास्यास्पद ही होगा कि भौतिक साधनों के बल बूते शालीनता का विश्वव्यापी वातावरण बनाया जा सकना शक्य है। अधिनायक वादियों ने अपने देशों की समूची शक्ति सामर्थ्य मुट्ठी में करके इच्छित परिवर्तन के जो सपने देखे थे उनकी आंशिक पूर्ति भी नहीं हो पाई है। जर्मनी, इटली, रूस, चीन आदि में साधनों के आधार पर परिवर्तन के प्रयोग बड़े पैमाने पर हुए हैं। उचित से अनुचित तक सब कुछ उस महत्वाकांक्षा की रक्षा के लिए बरता गया है। पर्यवेक्षक जानते हैं कि इन प्रयत्नों में कितनी सफलता मिली। जो मिली वह कितनी देर ठहर सकी। जो ठहरी हुई है वह कितने समय टिक सकेगी और प्रयोक्ताओं का मनोरथ कितना पूरा कर सकेगी इसमें अभी भी पूरा-पूरा सन्देह है।
भौतिक प्रगति के लिए जो प्रयत्न और प्रयोग चलते रहते हैं—जो सरंजाम खड़े होते हैं उनमें प्रचुर परिणाम में शक्ति लगानी पड़ती है। उद्योग, व्यवसाय, शिक्षा, चिकित्सा, शान्ति, सुरक्षा, धर्म-धारणा, जैसे कामों में जितनी साधन शक्ति लगती है उसका विशाल परिमाण और विस्तार देखते हुए हतप्रभ रह जाना पड़ता है। इतने पर भी शान्ति और प्रगति की समस्या का आंशिक हल ही हो पाता है। साधनों के अभाव का असमंजस सदा ही बना रहता है। योजनाएं स्थगित होती रहती हैं। जब बाह्य सुविधा सम्वर्धन का उद्देश्य प्रस्तुत शक्ति साधनों के सहारे पूरा होने में इतनी कठिनाई है तो जन मानस का परिष्कार और वातावरण के परिवर्तन जैसा विशाल कार्य इतने भर से किस प्रकार पूरा हो सकेगा? यह ठीक है कि नव निर्माण के लिए भौतिक साधनों की भी आवश्यकता है और उन्हें जुटाने के लिए सामर्थ्य भर प्रयत्न करने होंगे; पर उन्हें आधार मान कर नहीं चला जा सकता। कोई भौतिक योजना चाहे वह कितनी ही बड़ी और कितने ही अधिक साधनों पर अवलंबित क्यों न हो, इतने महान, इतने व्यापक उद्देश्य को पूरा कर सकने में समर्थ हो नहीं सकेगी।
परिवर्तन व्यक्ति के अन्तराल का होना है। दृष्टिकोण बदला जाना है। आस्थाओं का परिष्कार किया जाना है और आकांक्षाओं का प्रवाह मोड़ना है। सदाशयता का पक्षधर मनोबल उभारना है। आत्मज्ञान करना और आत्म गौरव जगाना है, यही है युग परिवर्तन का मूलभूत आधार। आन्तरिक परिष्कार की प्रतिक्रिया ही व्यक्ति की उत्कृष्टता और समाज की श्रेष्ठता के रूप में परिलक्षित होगी। सारा प्रयास, पुरुषार्थ अन्तर्जगत से सम्बन्धित है। इसलिए साधन भी उसी स्तर के होने चाहिए। सामर्थ्य ऐसी होनी चाहिए जो अभीष्ट प्रयोजन को पूरा कर सकने के उपयुक्त सिद्ध हो सके। निश्चित रूप से यह कार्य आत्म शक्ति का ही है। उत्पादन और उपयोग उसी का किया जाना है। युग निर्माण के लिए इसी ऊर्जा का उपार्जन आधार भूत काम समझा जा सकता है। ऐसा काम—जिसे करने की आवश्यकता ठीक इन्हीं दिनों है।
आत्म-शक्ति का उत्पादन जिन यंत्रों द्वारा—जिन कारखानों में किया जाता है उसे व्यक्ति चेतना ही नाम दिया जा सकता है। मानवी अन्तःकरण को अणु ऊर्जा उत्पादन केन्द्र के तुल्य माना जा सकता है। शरीर तो आवरण मात्र है इसकी तुलना आयुध, औजार, वाहन आदि से की जाती है। उससे कितना कुछ हो सकता है इसे श्रमिक से लेकर पहलवान तक की तुच्छ सफलताओं को देखते हुए जाना जा सकता है। बुद्धिबल इससे ऊंचा है। पर वह भी तथा कथित व्यवहार कुशल बुद्धिमानों से लेकर शोध कर्ताओं की सीमा तक पहुंच कर समाप्त हो जाता है। उस आधार पर व्यक्ति की उन्नति और समाज की सुविधा कुछ न कुछ तो बढ़ती ही है पर उतने भर से व्यापक परिवर्तनों की आशा नहीं की जा सकती। पैसा महाशय तो जैसा कुछ है वैसा है ही। उसके सहारे लम्बी योजनाएं बनाने से पहले यह सोचना पड़ता है कि वे जिनके हाथ में रहेंगे उन्हें नैतिक दृष्टि से जीवित भी छोड़ेंगे या नहीं। सार्वजनिक उपयोग में आने से पहले ये प्रयोगकर्ताओं को भी लुभाते और उन्हीं में अटक कर रह जाते हैं। लोक मंगल के लिए बनी सरकारी योजनाओं के लिए निश्चित की गई धन राशि का कितना अंश अभीष्ट प्रयोजन में लगता है और कितना बिचौलिये हड़प जाते हैं। यह कौतुक हर किसी को पग-पग पर देखने के लिए मिलता रहता है। ऐसी दशा में युग-निर्माण के लिए उस शक्ति का संचय कर लेने पर भी क्या कुछ प्रयोजन पूरा हो सकेगा इसमें पूरा-पूरा संदेह है।
आत्मिक क्षेत्र की योजनाएं आत्म शक्ति के उपार्जन और नियोजन से ही संभव हो सकेंगी मनुष्य के अन्तराल में सन्निहित ज्ञात और अविज्ञात शक्तियों की समर्थता और संभावना असीम है। उसे अनन्त कहा जाय तो भी अत्युक्ति न होगी। मनःशास्त्री बताते हैं कि मानवी मस्तिष्क अद्भुत है। उसकी सुविस्तृत क्षमता में से अभी तक मात्र 7 प्रतिशत को जाना जा सकता है। इसमें से मुश्किल से एक या दो प्रतिशत का उपयोग सामान्य जीवन में हो पाता है। इससे अधिक का जो उपयोग कर लेते हैं वे मनीषियों और तत्व दर्शियों में गिने जाते हैं। परामनोविज्ञान द्वारा अतीन्द्रिय क्षमताओं की जो जानकारी मिल रही है उससे पता चलता है कि मानवी मस्तिष्क सचमुच ही जादुई तिलिस्म है उसे भानमती का पिटारा, विलक्षणताओं का भण्डार बताया जाता रहा है। बात वैसी ही है। मस्तिष्क की सचेतन परत को उभारने और उपयोग कर सकने में समर्थ व्यक्ति कालिदास वरदराजाचार्य जैसी भूमिकाएं निभा सकते हैं। अचेतन परतों का तो कहना ही क्या? वे ही व्यक्तित्वों के निर्माण और विकास के लिए पूरी तरह जिम्मेदार हैं। वर्तमान और भविष्य की इसी टकसाल के अन्तर्गत ढलाई होती है। कर्म लेख—भाग्य विधान विधि के अंक-चित्र गुप्त का आलेखन कहां होता है? इसका स्पष्ट संकेत मस्तिष्क के सुनियोजित दफ्तर की ओर ही होता है।
अतीन्द्रिय क्षमताओं को ही ऋद्धियां और सिद्धियों के नाम से जाना जाता है। यह कहीं आसमान से नहीं उतरतीं और न किसी देवी-देवता द्वारा उपहार में दी जाती हैं। वे निश्चित रूप से अपने ही अन्तराल का उत्पादन होती हैं। धरती की परतें खोदते जाने और गहरे उतरते जाने पर बहुमूल्य खनिज सम्पदा प्राप्त होती है समुद्र में गहरी डुबकी लगाकर गोताखोर मोती समेट कर लाते हैं। मानवी अन्तराल भी ऋद्धि-सिद्धियों का अनूठा भंडार है। परमात्मा का अंश होने के कारण आत्मा में उसकी सभी क्षमताएं और विशेषताएं बीज रूप से विद्यमान हैं। अन्तर आकार भर का है। सौर मण्डल और अणु परिवार की संरचना और गति व्यवस्था में मात्र आकार का ही अन्तर है। तत्व और तथ्य दोनों में एक ही स्तर के हैं। समूचा मनुष्य छोटे से शुक्राणु में छिपा बैठा होता है। वृक्ष की विशालता और विशेषता बीज के छोटे से कलेवर में पाई जाती है। परमात्मा में जो कुछ है वह सब प्रसुप्त रूप से आत्मा की छोटी सत्ता में उसी प्रकार विद्यमान है जैसे विशाल ग्रन्थ के सहस्रों पृष्ठ छोटी सी माइक्रो पर अंकित कर लिये गये होते हैं।
सर्व समर्थ परमात्मा के छोटे घटक आत्मा की मूर्छना को जागृति में बदल देने की प्रक्रिया अध्यात्म साधना है और अध्यात्म साधना के विभिन्न विधि-विधानों में गायत्री उपासना को ही सर्व श्रेष्ठ और सर्व सुलभ माना गया है। आदिकाल से लेकर- अद्यावधि उस महाविज्ञान के सम्बन्ध में अनुभवों और प्रयोगों की विशालकाय श्रृंखला जुड़ती चली आई है। प्रत्येक शोध में उसकी नित नूतन विशेषताएं उभरती चली आई हैं। प्रत्येक प्रयोग में उसके अभिनव शक्ति स्रोत प्रकट होते रहे हैं।
व्यक्ति का बहिरंग-भौतिक पक्ष सामान्य है। असामान्य तो उसका अन्तराल ही है। इस रहस्यमय क्षेत्र के विशिष्ट उत्पादनों में गायत्री का कृषि विज्ञान आशाजनक सफलताएं प्रस्तुत करता है। नवयुग के व्यक्ति को आत्मिक सम्पदाओं से सुसम्पन्न बनना है। धरती पर स्वर्ग के अवतरण में आत्मिक विभूतियों की ही सुसम्पन्नता का विस्तार होगा। भाव संवेदनाओं की उत्कृष्टता ही मनुष्य में देवत्व का उदय करेगी। और इसी उत्पादन के बलबूते इस संसार में स्वर्गीय परिस्थितियों का—बाहुल्य और दिव्य शक्तियों का वर्चस्व स्थापित हो सकेगा। इस कार्य में गायत्री के तत्व ज्ञान और साधना विधान का अनुपम योगदान होगा। अस्तु उसे युग शक्ति गायत्री के रूप में समझा और अपनाया जाना उचित ही माना जायगा।