गायत्री महाशक्ति के दो रूप हैं—एक परोक्ष दूसरा प्रत्यक्ष। परोक्ष का तात्पर्य है उसका चिन्तन परक प्रयोग—जप, ध्यान, धारणा और लय। इसे तत्व ज्ञान या योगाभ्यास कह सकते हैं। यह प्रयोग अन्तरंग क्षेत्र में होता है। बाहर से तो आम जप भर दिखाई पड़ता है। उसका स्वरूप और प्रभाव साधन कर्त्ता को ही विदित रहता है। अन्य लोग तो उसे शान्त एकान्त में कुछ करते हुए ही देख पाते हैं। इसे व्यक्तिगत पक्ष भी कह सकते हैं।
गायत्री का दूसरा प्रत्यक्ष पक्ष है—यक्ष। इसका स्वरूप सर्व साधारण की दृष्टि में आता है। उसमें सामूहिक प्रयत्नों का समावेश रहता है। कृत्य और दृश्य का समावेश रहने से सर्व साधारण को उसकी हलचलों को देखते हुए कुछ निष्कर्ष निकालने और प्रभाव ग्रहण करने का अवसर मिलता है। उसमें आकर्षण भी रहता है और उत्साह भी। इसलिए उसे प्रचार एवं शिक्षण का माध्यम भी बनाया जा सकता है। यह सारी व्यवस्था समिधा, शाकल्प, यज्ञ पात्र, मण्डप, कुण्ड आदि के सहारे बनती है और पदार्थों द्वारा विनिर्मित की जाती है इसलिए उसे भौतिक भी कह सकते हैं।
गायत्री और यज्ञ का परस्पर अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। शास्त्रकारों ने गायत्री को धर्म संस्कृति का जननी और यज्ञ को उसका पिता कहा है। दोनों एक दूसरे के पूरक और अविच्छिन्न माने गये हैं। अनुष्ठानों को विधान में जप के अनुपात से हवन करने—आहुतियां देने का भी विधान है। उस विधान की अनिवार्यता है जो साधनों के अभाव में उसे कर नहीं पाये उनके लिए विकल्प यह है कि जप का दशांश जप अधिक करके उसकी पूर्ति करलें। यह स्थानापन्न—आपत्ति कालीन व्यवस्था है। मूलतः तो यज्ञ को आवश्यकता अपने स्थान पर यथावत् बनी ही रहती है।
गायत्री मन्त्र को नित्य कर्म में संध्या वन्दन का मेरुदण्ड माना गया है। भोजन के बाद विद्या का महत्व है। विद्यारम्भ संस्कार के समय गुरु मन्त्र के रूप में गायत्री मन्त्र की ही दीक्षा दी जाती है उसके उपरान्त अध्ययन प्रारम्भ होता है। ऋतम्भरा प्रज्ञा की ध्वजा के रूप में शिर पर शिखा की प्रतिष्ठापना होती है और शरीर से सत्कर्मों की प्रतिज्ञा रूप यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। दोनों गायत्री के प्रतीक हैं। यज्ञोपवीत के नौ धागे गायत्री मन्त्र के नौ शब्द—तीन लड़ें, तीन चरण, गांठें व्याहृतियां और प्रणव हैं। शिर पर सद्ज्ञान और कन्धे पर सत्कर्म की प्रेरणा देने का अनुशासन का शिखा सूत्र का समुच्चय है। इसे भारतीय धर्म और संस्कृति का प्रतीक माना गया है। मुण्डन संस्कार में शिखा की स्थापना और उपनयन संस्कार में यज्ञोपवीत की धारणा समारोहपूर्वक की जाती है। इसे मनुष्य जीवन के साथ गायत्री महाशक्ति की प्रतिष्ठापना का शास्त्रीय उपक्रम कहा जा सकता है।
यज्ञ प्रक्रिया भी ठीक गायत्री साधना की ही तरह आत्मिक प्रगति की आवश्यकता के रूप में स्वीकारी गई है और उसकी विधि-व्यवस्था को प्रायः सभी महत्वपूर्ण सांस्कृतिक परम्पराओं में गूंथा गया है। जन्म से लेकर मरण पर्यन्त षोडश संस्कारों का विधान है। उन सब में यज्ञ अनिवार्य है। विवाह यज्ञाग्नि की साक्षी में ही होता है और मरण के उपरान्त शरीर को चिता बनाकर यज्ञाग्नि में होमा जाता है। समस्त पर्व त्यौहारों में, शुभारम्भ समारोहों में धार्मिक विधान अपनाना हो तो यज्ञ कृत्य के लिए स्थान रखना ही होगा। होली सामूहिक वार्षिक यज्ञ ही है। जिसे चिह्न पूजा के रूप में अभी भी गांव-गांव में—गली-मुहल्लों में किसी न किसी तरह सम्पन्न कर ही लिया जाता है। अगरबत्ती और घृत दीप जलाकर उनके समन्वय से यज्ञ कृत्य की ही सरल आवश्यकता किसी प्रकार पूरी की जाती रहती है। महिलाएं देवी-देवताओं की पूजा करते समय अभी भी अंगारे पर लौंग, बताशा, पूड़ी, हलुआ, चढ़ा कर यज्ञ परम्परा को जीवित रखे रहती हैं। भूत भगाने वाले तक उलटा-सीधा कोई न कोई तरीका धूनी जलाने जैसा अपनाते देखे गये हैं। भोजन से पूर्व दैनिक पंच यज्ञों का शास्त्रीय विधान है उसकी पूर्ति के लिए अभी भी धर्म परायण व्यक्ति न्यूनतम पांच आहुतियों का हवन करके तब भोजन गृहण करते हैं।
इस सब पर दृष्टि डालने से प्रतीत होता है कि गायत्री के चिन्तन और यज्ञ का कृत्य दोनों ही समान रूप से देव संस्कृति के अविच्छिन्न अंग माने जाते रहे हैं और दोनों को समान महत्व मिलता रहा है। सद्ज्ञान और सत्कर्म का समन्वय ही व्यक्ति और समाज को ऊंचा उठाता है इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए सद्ज्ञान की अधिष्ठात्री गायत्री और सत्कर्म के प्रतीक प्रतिनिधि यज्ञ को देव संस्कृति के रथ में जुड़े हुए दो पहिये माना गया है।
सामान्य रूप से वैयक्तिक जप अनुष्ठानों में सर्वत्र हवन होते ही रहते हैं। पर्व, त्यौहारों और शुभारम्भ हर्षोत्सवों में भी उसका आयोजन छोटे या बड़े रूप में होता है। प्राचीन काल में सामयिक समस्याओं का व्यापक रूप से समाधान करने के लिए विज्ञ व्यक्तित्वों के विशालकाय सम्मेलन यज्ञों के नाम से ही नियोजित किये जाते थे। राज समस्याओं का समाधान राजसूय यज्ञों में और धार्मिक समस्याओं का निराकरण वाजपेय यज्ञों के मंच पर होता था। वाजपेय यज्ञों में गायत्री यज्ञ ही प्रमुख है। यों विशेष प्रयोजनों के लिए जिस-तिस देवता की प्रसन्नता के लिए विष्णु यज्ञ, रुद्र यज्ञ, चण्डी यज्ञ आदि भी होते रहते हैं, पर सामान्य अर्थ में—सर्व जनीन मान्यता और प्राचीन परम्परा के अनुसार यज्ञ का तात्पर्य गायत्री यज्ञ ही समझा जाता है। ‘गायत्री यज्ञ’ का संक्षिप्त ‘यज्ञ’ शब्द कह देने मात्र से भी काम चल जाता है।
युग शक्ति के रूप में गायत्री के अवतरण का एक स्वरूप इस महा मन्त्र में सन्निहित तत्व ज्ञान से जन-साधारण को परिचित करना और उसकी उपासना को लोक मान्यता दिलाना है। सामूहिक एवं संकल्प सूत्र में जुड़े हुए गायत्री जप अनुष्ठानों की श्रृंखला को व्यापक बनाया जा रहा है। इन प्रयत्नों में व्यक्तिगत अन्तराल और समूहगत वातावरण के परिष्कार की पूरी सम्भावना है। इसी प्रकार गायत्री यज्ञ अभियान को भी एक व्यापक आन्दोलन का रूप दिया गया है। सामूहिक जप और सामूहिक यज्ञों की आयोजन श्रृंखला गायत्री परिवार द्वारा चलाई और व्यापक बनाई गई है। पिछले 25 वर्ष के प्रयास हैं। अब उसे लोक रुचि और अभ्यस्त परम्परा के रूप में मान्यता मिल गई है। इन आयोजनों के साथ अनिवार्य रूप से ज्ञान यज्ञ का लोक-शिक्षण जुड़ा रहता है। बहुधा इसे युग-निर्माण सम्मेलन का नाम दिया जाता है। उसे जन-मानस के परिष्कार के लिए धर्म तन्त्र के माध्यम से किया गया लोक-शिक्षण कह सकते हैं। इन आयोजनों में अंट-संट बकवास करने पर पूरा प्रतिबन्ध रहा है। सुनियोजित गायत्री यज्ञों में इस मर्यादा का पूरी तरह पालन किया जाता है कि उस मंच से गायत्री महाशक्ति के युग अवतरण का स्वरूप और क्रिया कलाप को ही विज्ञ व्यक्तियों द्वारा समझाया जाय। प्रवचनों की इस मर्यादा का सतर्कता के साथ पालन करने और उद्बोधनकर्ताओं के अपने विषय में अध्ययनशील होने की शर्त रहने का ही प्रभाव है कि गायत्री यज्ञों के माध्यम से युग परिवर्तन के अनुरूप लोक-मानस ढालने में आशातीत सफलता मिली है। भविष्य में इस प्रयास को और भी अधिक व्यापक एवं सरल बनाया जाना है ताकि विचार क्रान्ति का—जन जागृति का युगान्तरकारी उद्देश्य पूरा हो सके।
यज्ञ अनुष्ठान में सामूहिक श्रमदान और समस्वर अनुशासन यह दो प्रत्यक्ष तथ्य हैं जिन्हें नवयुग की भौतिक प्रगति के मूलभूत आधार माना जा सकता है। इस कृत्य में आरम्भ से लेकर अन्त तक इन दो प्रवृत्तियों को पग-पग पर कार्यान्वित होते हुए देखा जा सकता है। सामूहिक जप की अंश गणना में आहुतियों का होना, यज्ञशाला, कुण्ड निर्माण सज्जा, महिलाओं द्वारा जलयात्रा, जुलूस शोभायात्रा अनेक कुण्डों पर अनेक होताओं का यजन करना—मिल-जुलकर अर्थ-व्यवस्था बनाना—सहभोज, प्रचार यात्रा आदि सभी कार्य मिल-जुलकर करने होते हैं। एकाकी प्रयत्न में इतने साधन जुटाये जाने कठिन हैं। निजी पैसे से निजी यज्ञ करना हो तो भी यजमान, यजमान पत्नी, अध्वर्यु, उद्गाता, ब्रह्मा, आचार्य, दृढ़ पुरुष आदि कितनों की नियुक्ति उसमें करनी होती है। नित्य कर्म की आहुतियां भर एकाकी हो सकती हैं अन्यथा प्रत्येक सुनियोजित यज्ञ सामूहिक श्रमदान और मनोयोग जुटाये बिना हो ही नहीं सकता। इस प्रक्रिया में यज्ञ के माध्यम से सामूहिकता का—श्रम प्रतिष्ठा का लोक-शिक्षण उदाहरण प्रस्तुत करते हुए किया जाता है।
अस्त-व्यस्तता को निरस्त करने के लिए ब्रह्मा और आचार्य को सतर्कता अधिकारी की तरह नियुक्त किया जाता है। वे बारीकी से देखते हैं कि सर्वत्र स्वच्छता, सजगता और व्यवस्था बनी हुई है या नहीं। अपनी पैनी दृष्टि से वे त्रुटियों का पता लगाते हैं और उसे तत्काल सुधारते हैं। मन्त्रोच्चारण सस्वर, साथ-साथ बोला जाना-आहुतियां सभी हाथों से एक साथ पड़ना—सबकी वेष-भूषा एवं शरीर स्थिति एक जैसी रहना, स्वच्छतापूर्वक यज्ञशाला में प्रवेश करना, घृत अवघ्राण आदि में व्यवस्था, पंक्तिबद्ध परिक्रमा जैसे कार्यों में अनुशासन की ही प्रधानता है। इनके लिए जो नियम बांधे गये हैं, उनमें अनुशासन के परिपालन पर पूरा ध्यान रखा जाता है। इसे मोटी दृष्टि से देखा जाय तो उसे फौजी परेट जैसी सतर्कता का प्रशिक्षण भी कहा जा सकता है। ये दोनों ही सत्प्रवृत्तियां ऐसी हैं जिनका जन-जीवन में जितना गहरा समावेश होगा उसी अनुपात से व्यक्ति को समुन्नत, सुसंस्कृत बनने का—समाज को सुसम्पन्न, सुदृढ़, सुव्यवस्थित होने का—अवसर मिलता चला जायगा। प्रगति और शान्ति का यही मार्ग है।
यज्ञ शब्द के तीन अर्थ हैं—(1) दान, उद्गाता (2) संगति करण, संगठन (3) देव-पूजन उत्कृष्टता का वरण समर्थन। इन तीनों सत्प्रवृत्तियों को अपनाया जायगा वहां सज्जनता और महानता के चिह्न उभरते चले जायेंगे और समस्याओं के सुलझते देर न लगेगी। मनुष्य में देवत्व के उदय के लिए इन तीन धाराओं की गंगा-यमुना और सरस्वती की उपमा दी जा सकती है और उनके संगम को त्रिवेणी कहा जा सकता है। रामायण के अनुसार इस संगम में स्नान अवगाहन करने वालों का आन्तरिक काया-कल्प होता है। रामायण में कहा गया है—
‘‘मज्जन फल देखिय तत काला ।
काक होहिं पिक-वकहु मराला ।।’’
इसी स्तर का आन्तरिक परिष्कार ही युग परिवर्तन का आधार माना गया है। अस्तु यज्ञ की व्याख्या विवेचना करते हुए—उस तत्व ज्ञान का स्वरूप, प्रयोग और परिणाम समझाते हुए यह मार्ग दर्शन भली प्रकार किया जा सकता है जो युग परिवर्तन की समग्र आवश्यकता को पूरा करने के लिए आवश्यक है। स्वतन्त्रता संग्राम के दिनों राष्ट्रीय झण्डे के तीन रंगों की व्याख्या करते हुए स्वाधीनता के तीन उद्देश्य और तीन कार्य-क्रम समझाये जाते थे। ठीक उसी प्रकार व्यक्ति परिवार और समाज का, बौद्धिक नैतिक एवं सामाजिक क्रान्ति का, भाव-ज्ञान एवं कर्म के परिष्कार का—सर्वतोमुखी प्रगतिशील लोक-शिक्षण भली प्रकार सम्भव हो सकता है। जीवन में यज्ञीय आस्थाएं और समाज में यज्ञीय परम्परा प्रतिष्ठापना के लिए आवश्यक सभी सूत्र यज्ञ के तत्व ज्ञान में बीज रूप में मौजूद है। धर्म परम्पराओं के आधार पर प्रगतिशीलता का प्रशिक्षण करने की प्रक्रिया कितनी हृदयग्राही और कितनी सफल हो सकती है इसका अनुभव प्राचीन काल की तरह ही इन दिनों भी किया जा सकता है। वही किया भी जा रहा है।
यज्ञ कृत्य के अन्तर्गत कितने ही छोटे-छोटे विधि-विधान आते हैं। इन सबके पीछे वे सभी दृष्टिकोण सन्निहित हैं जिन्हें अपनाने से व्यक्ति और समाज का—नवयुग का—उत्कृष्टता सम्पन्न ढांचा खड़ा किया जाता है। उन सभी कृत्यों की—प्रयुक्त होने वाली मन्त्रों की—विधि-विधानों की साथ-साथ व्याख्या भी होती चलें तो यज्ञ आयोजन से बहुमुखी लोक-शिक्षण की उच्चस्तरीय आवश्यकता भली प्रकार पूरी होती रह सकती है। यज्ञाग्नि के रूप में युग क्रान्ति की प्राणवान प्रतिभा की स्थापना-अभ्यर्थना का भाव-भरा उपक्रम ऐसा है जिसके सहारे जन भावना को अवांछनीयता के उन्मूलन एवं शालीनता के पुनर्जीवन के लिए उभारा और जुटाया जा सकता है।
यज्ञ का अपना विज्ञान है। उसमें मन्त्र शक्ति का, विशिष्ठ शाकल्य का, रहस्यमय विधि-विधान का, संयुक्त सत्प्रयत्नों को परिणिति प्रतिक्रिया का-सम्मिलित प्रभाव ऐसा होता है जिससे सूक्ष्म जगत में उपयोगी हलचलें होने लगती हैं। इन उद्भूत दिव्य तरंगों के फलस्वरूप रुग्णता का निवारण—मनोविकारों का निराकरण-कुसंस्कारों का उन्मूलन सम्भव होता है शास्त्रकारों ने यज्ञ से पर्जन्य की उत्पत्ति होने की बात कही है और पर्जन्य को समृद्धि बरसाने वाला कहा गया है। यह मात्र बादलों से पानी बरसने जैसी सामान्य बात नहीं है। पर्जन्य का तात्पर्य है—प्राण वर्षा। प्राण अर्थात् समर्थता। यह जल, वायु, ऊर्जा, पृथ्वी आदि पर आकाश से बरसती है और प्राणियों तथा पदार्थों का स्तर ऊंचा उठाती है। पर्जन्य को सर्वतोमुखी प्रगति का सशक्त आधार माना गया है यज्ञ प्रक्रिया से उसी की उत्पत्ति और वर्षा होती है। संक्षेप में इसे सूक्ष्म जगत में बनने और बढ़ने वाली उपयोगी अनुकूलन कह सकते हैं। इसी से पर्जन्य को सर्वतोमुखी सुख-शान्ति का आधार माना गया है। यज्ञ इस विभूति का जनक होने के कारण श्रेष्ठतम सत्कर्म माना गया है और उसे यज्ञ पुरुष कह कर दृश्यमान विष्णु का सम्मान दिया गया है।
मनु ने यज्ञ कर्ता के शरीर से ब्राह्मणत्व के उत्पन्न होने की बात कही है। उसी को युग परिवर्तन प्रक्रिया के अन्तर्गत मनुष्य में देवत्व का उदय कहा गया है। पर्जन्य के सहारे बरसने वाली समृद्धि को सतयुगी सुख-शान्ति का उद्गम कहा गया है। यज्ञ प्रक्रिया द्वारा सूक्ष्म जगत का परिशोधन करने और इस प्रयोजन के लिए दिव्य शक्तियों का सहयोग प्राप्त करने का ऐसा आधार बनाया जा सकता है जो सामान्य भौतिक प्रयत्नों से सम्भव नहीं हो सकता। नव-निर्माण के लिए ये आवश्यकता तो भौतिक शक्तियों और साधनों को भी पड़ेगी, पर चूंकि वह सारा क्षेत्र चेतना के परिष्कृत करने का है इस लिए उसमें सूक्ष्म शक्तियों का—देव शक्तियों का उपयोग ही प्रधान भूमिका सम्पादित करेगा। गायत्री यज्ञों से उसी आवश्यकता की पूर्ति होती है।
प्रस्तुत गायत्री यज्ञों के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई प्रक्रिया ‘देव दक्षिणा’ की है। जिसका अर्थ होता है दुष्प्रवृत्तियों के परित्याग और सत्प्रवृत्तियों के ग्रहण का अग्निदेव की साक्षी में लिया गया संकल्प। युग निर्माण योजना द्वारा आयोजित सभी यज्ञों में हवन करने वाले को कुछ न कुछ देव दक्षिणा देनी पड़ती है और उसका संकल्प पत्र भरना होता है। यह दक्षिणा पैसे की नहीं वरन् आत्म-परिष्कार की होती है, जिसका तात्पर्य है अपनी वर्तमान बुरी आदतों में से कम से कम एक का परित्याग और एक सत्प्रवृत्ति को बढ़ाने के लिए विशेष रूप से प्रयत्न। वैयक्तिक अनैतिकताएं—प्रचलित मूढ मान्यताएं, सामाजिक कुप्रथाएं मिलकर दुष्प्रवृत्तियां बनती हैं। इनमें से प्रत्येक वर्ग की अवांछनीयता का परित्याग करना और विवेक सम्मत औचित्य को अपनाया जाना यही है देव दक्षिणा अभियान का प्रयोजन। इसे युग निर्माण का आधार और युग शक्ति के अवतरण का—मूलभूत प्रयोजन कहा जा सकता है। धर्म की स्थापना और अधर्म का विनाश, अवतार का एक मात्र उद्देश्य रहा है। गायत्री यज्ञ की पुण्य प्रक्रिया में यों आदि से अन्त तक यही चिन्तन और कर्तृत्व भरा पड़ा है। यज्ञ के देव दक्षिणा पक्ष को तो स्पष्टतया उसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए कार्यरत समझा जा सकता है।