युगशक्ति गायत्री का अभिनव अवतरण

गायत्री की प्रथम प्रेरणा—श्रम व्यवस्था और संयम

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त्रिपदा गायत्री के तीन पादों में से प्रथम पाद—प्रथम खण्ड आठ अक्षरों का है। उसमें तत् सवितुः वरेण्यं यह तीन शब्द आते हैं। इन्हें शिक्षा की दृष्टि से स्थूल शरीर से सम्बन्धित माना गया है। स्थूल शरीर का तात्पर्य है—हाड़-मांस से बनी हुई—सोने खाने वाली काया। बाहर से यह चलते-फिरते खिलौने जैसी दीखती है। उसमें सुन्दरता, उपार्जन और रसानुभूति के कई तन्त्र जहां-तहां जुड़े देखे जा सकते हैं। इसे अन्न, जल, वायु की खुराक देनी पड़ती है, साथ ही मल-मूत्र, पसीना आदि के रूप में निकलते रहने वाले कूड़े-करकट की सफाई करनी होती है। मोटी बुद्धि से स्थूल शरीर का इतना ही स्वरूप और उपयोग दिखाई पड़ता है।

गहराई में उतरने पर उसमें तीन विशेषताएं दिखाई पड़ती हैं। इन विशेषताओं के आधार पर ही वे सुविधा साधन मिलते हैं जिन्हें सम्पत्ति एवं साधन सुविधा के नाम से पुकारा जाता है। भौतिक क्षेत्र की सफलताएं इसी आधार पर आंकी जाती हैं। इन्हें प्राप्त करने के लिए शरीर के अन्तराल में तीन ऐसे तत्वों का समावेश है जो आमतौर से प्रसुप्त-अनभ्यस्त और अनगढ़ स्थिति में पड़े रहते हैं। उनकी ओर ध्यान भी नहीं जाता और उनके जागृत करने का प्रयत्न भी नहीं होता। पर यदि उन्हें जगाया, बढ़ाया और स्वभाव में सम्मिलित किया जा सके तो समझना चाहिए कि भौतिक प्रगति का अवरुद्ध मार्ग खुल गया है और भाग्योदय की खोई हुई चाबी हाथ लग गई। इन तीन सद्गुणों का नाम है—(1) श्रम (2) व्यवस्था (3) संयम। इनका महत्व समझा जा सके और शरीर को इनमें रस लेने—आदत के रूप में स्वीकार करने के लिए सहमत किया जा सके तो समझना चाहिए कि आरोग्य, दीर्घजीवन, सौन्दर्य, कौशल एवं उपार्जन जैसी सफलताएं प्राप्त करने का दैवी वरदान मिल गया। संयम और वैभव एक ही सिक्के के दो पहलू मात्र हैं। ईश्वर ने शरीर रूपी रत्नाकर में जो मणि-माणिक भर दिये हैं उन्हें शरीर साधना के द्वारा खोजा और पाया जा सकता है। स्थूल शरीर का प्रत्यक्ष देवता अपनी उपासना के लिए जिन उपचारों की अपेक्षा करता है और जिनके प्राप्त होने पर भौतिक प्रगति के अनेक पक्षों का वरदान देता है उनका नाम उपरोक्त पंक्तियों में कहे अनुसार श्रम, व्यवस्था एवं संयम ही कहा जा सकता है।

व्यक्ति में तत्वतः समर्थता के अगणित आधार भरे पड़े हैं और उनका उपयोग कर सकने वाले अनायास ही वैभववान बनते चले जाते हैं। उन्हें निजी रूप से आरोग्य और सांसारिक रूप से साधनों की कमी नहीं रहती। इन दोनों से वंचित वे रहते हैं जो इन सत्प्रवृत्तियों को अपनाने में आना-कानी करते हैं। आलसी, प्रमादी और असंयमी ही पिछड़ेपन की स्थिति में पड़े रहते हैं और दुर्गति सहते हैं। श्रमशीलता का विरोधी पक्ष आलस है और व्यवस्था का प्रतिपक्ष प्रमाद। अनुशासन और नियन्त्रण का महत्व न समझने वाले असंयमी एवं अपव्ययी कहलाते हैं। आलस्य के कारण उपार्जन नहीं बन पड़ता। प्रमाद के कारण साज संभाल नहीं हो सकती और नियन्त्रण का अभ्यास न होने पर जो हाथ में आता है वह या तो व्यर्थ चला जाता है या फिर ऐसे परिणाम उत्पन्न करता है जिन्हें अनर्थ कहा जा सके। आलस, प्रमाद और असंयम का त्रिवर्ग शरीर पर छाया हुआ प्रत्यक्ष अभिशाप है। उनके रहते किसी की भी प्रगति नहीं हो सकती कोई भी साधन सम्पन्न नहीं पाया जा सकता है।

प्रगतिशीलता के इतिहास में हर सफल व्यक्ति में यह तीनों विशेषताएं अनिवार्य रूप से पाई जाती हैं। वे कठोर परिश्रम करते हैं—बेगार भुगतने की तरह काम नहीं करते वरन् उसमें रस लेते हैं। वे जानते हैं कि लक्ष्मी प्राप्त करने की साधना श्रम बिन्दुओं का अर्घ चढ़ाने से ही बन पड़ती है। आलसी तो साक्षात दरिद्री ही होते हैं। इसी प्रकार प्रगतिशीलों द्वारा व्यवस्था बुद्धि का समुचित विकास किया होता है। वे अपने काम में पूरी तरह जागरूक रहते हैं। शारीरिक तत्परता की तरह किसी काम को समग्र बनाने के लिए तन्मयता भी आवश्यक है। मनोयोग के अभाव में मात्र श्रम का कोई विशेष महत्व नहीं रह जाता, उसकी तुलना अश्व शक्ति की तराजू में तोल कर की जा सकती है। काम में चमत्कार तो तब दिखाई पड़ता है जब उसमें रुचि पूर्ण मनोयोग भी लगता है। तत्परता का अर्थ है—श्रमशीलता और तन्मयता का तात्पर्य है रुचि और उत्साह से भरा-पूरा मनोयोग। जहां भी इन दोनों का समन्वय होगा वहां किये हुए काम का स्तर बहुत बढ़ा-चढ़ा होगा। उसका मूल्यांकन सामान्य परिश्रम की तुलना में कहीं अधिक ऊंचा किया जायगा। मानसिक जागरूकता और तन्मयता को ही दृश्य रूप में ‘व्यवस्था’ कहा जाता है। योग्यताओं में सर्वोच्च स्तर व्यवस्था शक्ति का ही है। शासन में इसी को ला एण्ड आर्डर कहते हैं। घर कारखानों में इसी का परिचय सुव्यवस्था के रूप में मिलता है। उपहासास्पद तो आलसी प्रमादी बनते हैं। उन्हीं की तुलना अपंगों और विक्षिप्तों से की जाती है। सम्पत्ति का अर्थ है भौतिक क्षेत्र की सफलता। वह समर्थता के रूप में देखी जा सकती है और उसके फलस्वरूप अभीष्ट पक्ष को उत्साह वर्धक सफलता मिल सकती है। सम्पत्ति का यही आधार है। वैभव इसी आधार पर कमाया जाता है। यह उपार्जन शरीर को श्रमशील और मन को सामने आये काम में पूरा रस लेने का अभ्यस्त बनाने से ही बन पड़ता है। शरीर और मन की तत्परता में जितनी कमी रहेगी उतनी दरिद्रता और असफलता की विपत्ति मनुष्य पर छाई रहेगी। लगता है दुर्भाग्य कहीं ऊपर से उतरता है, पर वस्तुतः वह अपने भीतर का ही अशुभ उत्पादन होता है। आकस्मिक और अप्रत्याशित विपत्तियां तो कदाचित ही कहीं-कहीं—कभी-कभी ही दृष्टिगोचर होती हैं।

वर्षा का पानी आमतौर से जिधर-तिधर बहता हुआ अन्ततः समुद्र में जा पहुंचता और खारी बन जाता है, किन्तु यदि उसे बांध में बांध लिया जाय तो सिंचाई से लेकर बिजली बनने तक के अनेकों उपयोगी कार्य उससे पूरे होते हैं। भाप आमतौर से हवा में उड़ती और छितराती रहती है पर थोड़ी-सी भाप का यदि संग्रह और उपयोग किया जा सके तो उससे रेल-गाड़ी का इंजन दौड़ाने जैसे महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न हो सकते हैं। ‘‘छलनी में दुहना और भाग्य को दोष देना’’ की उक्ति असंयमी लोगों पर ही लागू होती है।

इन्द्रिय शक्ति को बर्बाद करते रहने वाली दुर्बल बनते जाते हैं और रुग्ण बनकर रोते-कलपते अकाल मृत्यु के मुंह में जा घुसते हैं। मनः शक्ति को एकाग्र न करने वाले अपने कामों की उपेक्षा करते और निरर्थक कल्पनाओं में उड़ते रहते हैं। फलतः हाथ में लिये काम अधूरे रहते हैं, उपहासास्पद बनते हैं। असफलता जन्य लज्जा ऐसे ही लोगों को सहनी पड़ती है। अर्थ शक्ति में अपव्यय के तत्व जुड़ जाने से अच्छी आमदनी भी व्यर्थ की बातों में नष्ट होती रहती है और दरिद्रता का अभिशाप लदा रहता है। आवश्यक काम सामने आने पर हाथ खाली दीखता है और ऋण लेने अथवा बेईमानी करने का सर्वनाशी कदम उठता है। श्रम शक्ति को किसी नियत काम पर केन्द्रित न करने वाले ऐसे ही बन्दरों की तरह जिस-तिस काम पर उचक-मचक करते रहते हैं और प्रायः सभी कामों को अधूरा छोड़ देते हैं। ऐसे लोगों से काम कराने की अपेक्षा काम न कराना अधिक अच्छा समझा जाता है। यह समस्त दुष्परिणाम विभिन्न प्रकार के असंयमों के ही हैं। अपव्यय से तो कुबेर का भण्डार भी खाली हो सकता है। श्रम, समय, बल, मन, धन आदि की कितनी उपयोगी समर्थताएं मनुष्य के पास प्रकृति के अजस्र अनुदान की तरह प्रचुर परिमाण में मिली हुई हैं किन्तु इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि उन सबकी असंयम में बर्बादी होती रहती है और मनुष्य दीन-दरिद्रों की तरह दुःख पाता और तिरस्कार सहता रहता है। असंयम को—नियन्त्रण के अभाव का व्यक्तिगत जीवन का अभिशाप ही माना जा सकता है। अनुशासन हीन की स्थिति कितनी दयनीय होती है इसे सभी जानते हैं।

त्रिपदा गायत्री के प्रथम पाद के तीन शब्दों का—‘‘तत्सवितु-वरेण्यं’’ का तात्पर्य है वह वरण करने योग्य—अपनाने योग्य सविता। सविता अर्थात् सूर्य। सूर्य से ग्रहण करने योग्य अपनाने योग्य प्रेरणाएं क्या क्या है इन्हें सहज चिन्तन से भली भांति जाना जा सकता है। सूर्य का अथक श्रम और जागरूक मनोयोग स्पष्ट है। वह अहर्निशि-अनवरत श्रम में संलग्न रहता है। यही वरेण्य है, यही अनुकरणीय और अपनाने योग्य है।

आत्म संयम, नियमन, नियन्त्रण, आत्मानुशासन की क्रम व्यवस्था सूर्य की गतिविधियों में कूट-कूटकर भरी हुई हैं। निर्धारित समय पर उदय और अस्त होना—अपनी भ्रमण कक्षा में बाल बराबर भी अन्तर न होने देना सौर परिवार के ग्रह-उपग्रहों को अपने साथ बांधे रहना और उन्हें उचित अनुदान देना जैसी रीति-नीति अपनाने वाले सविता के बारे में यही कहा जायगा कि वे स्वयं अनुशासन में रहते हैं और सम्बद्ध परिवार को अनुशासन में रखते हैं। संयम और अनुशासन लगभग समान स्तर की ही सुव्यवस्था का बोध कराते हैं।

मानवी संज्ञा की तीन परतें हैं—(1) स्थूल (2) सूक्ष्म (3) कारण। इन्हें त्रिपदा गायत्री का क्षेत्र विस्तार कहा गया है। तीन लोक भी यही हैं। प्रथम चरण को स्थूल शरीर की उपमा दी जा सकती है और उसके अन्तर्गत जुड़े हुए तीन शब्दों में श्रम, मनोयोग एवं संयम का संकेत और सन्देश ग्रहण किया जा सकता है।

इन तीन सत्प्रवृत्तियों को व्यक्तिगत जीवन की प्रगति का आधार भूत कारण माना जा सकता है। समर्थता भले ही भौतिक क्षेत्र को प्राप्त करनी हो, भले ही आत्मिक क्षेत्र की अभीष्ट हो। इन तीनों को अपनाया जाना हर दृष्टि से आवश्यक है। आलस, प्रमाद और असंयम बरतने वाला न तो समृद्ध बन सकता है और न आत्मबल सम्पन्न। दूसरों के सहयोग एवं दैवी अनुग्रह प्राप्त करने से मनोरथ पूरे होने की बात सोची जाय तो भी यह मानना पड़ेगा कि इस प्रकार के अनुदान भी पात्रता के अनुरूप ही मिलते हैं और वह पात्रता शारीरिक क्षेत्र में श्रम शीलता, जागरुकता एवं अनुशासन अपनाये बिना उग ही नहीं सकती। वैयक्तिक, भौतिक प्रगति के लिए स्थूल शरीर की स्थिति को समुन्नत बनाया जाना आवश्यक है और यह उपरोक्त तीन गुणों के संचय अनुपात से ही उपलब्ध होता है।

युग परिवर्तन से मनुष्य में देवत्व का उदय होगा। इसके लक्षण उसके स्थूल जीवन में उपरोक्त तीन सत्प्रवृत्तियों की बढ़ी-चढ़ी मात्रा के अनुसार ही जाने-आंके जा सकेंगे। समूह व्यवस्था में भी इन्हीं तीन गुणों को सार्वजनिक मान्यता देनी होगी और इन्हें व्यक्ति की उत्कृष्टता का चिह्न मानकर उन्हें लोक-सम्मान प्रदान करना पड़ेगा। नवयुग में श्रमनिष्ठा की सराहना होगी। जागरूक लोगों को सम्मान मिलेगा और अनुशासन प्रिय लोगों की अग्रिम पंक्ति में खड़ा किया जायगा। वे ही सार्वजनिक नेतृत्व करेंगे। युग क्रान्ति के अनुरूप ढले हुए व्यक्तियों में से प्रत्येक को परिश्रमी, उत्साही और आत्मानुशासित देखा जा सकेगा।
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