युगशक्ति गायत्री का अभिनव अवतरण

त्रिपदा गायत्री—ब्रह्म विद्या की त्रिवेणी

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
गायत्री को त्रिपदा कहा गया है। अर्थात् तीन पैरों वाली। उसके तीन चरणों को सत्, रज, तम के—सत्यं शिवं सुन्दरम् के—उत्पादन, अभिवर्धन, परिवर्तन के—ब्रह्मा, विष्णु, महेश के रूप में अनेकों प्रतिपादनों, उपाख्यानों के माध्यम से शास्त्रकारों ने समझाया है। तीन लोक प्रख्यात हैं—भू लोक, भुवः लोक, स्वः लोक। इन्हीं को धरती-पाताल और आकाश अथवा स्वर्ग कहते हैं। यह लोक दृश्यमान नहीं अदृश्य हैं। पदार्थ से नहीं चेतना से बने हैं। भूलोक हाड़-मांस की काया को कहते हैं—भुवः लोक विचार संस्थान है और स्वः लोक भाव सम्वेदनाओं का उद्गम अन्तःकरण।

गायत्री महामन्त्र में सन्निहित भूः, र्भुवः स्वः की व्याहृतियों को गायत्री का मूल माना गया है। इसके त्रिक् का तीन-तीन शब्दों के तीन चरणों में विकास हुआ है। भूः से गायत्री के आठ अक्षर वाले प्रथम चरण का विस्तार हुआ है। तत् सवितु वरेण्यं, इस प्रथम पाद में आठ अक्षर और तीन शब्द हैं। इसी प्रकार भुवः शब्द का विस्तार गायत्री के द्वितीय चरण में हुआ है—‘भर्गो देवस्य धीमहि’ में भी आठ अक्षर और तीन शब्द हैं। तीसरी व्याहृति ‘स्वः’ है। इससे तीसरा चरण बना। ‘धियो योनः प्रचोदयात्’ इसमें भी आठ अक्षर और तीन शब्द हैं। यों प्रथम सूत्र ओ म् में भी अ-उ-म् तीन अक्षर हैं। उनसे तीन व्याहृतियों की उत्पत्ति मानी गई है।

बीज में वृक्ष का विशालकाय परिकर छिपा रहता है। शुक्राणु में पूरा मनुष्य छिपा बैठा रहता है। छोटी-सी माइक्रो फिल्म में विशालकाय ग्रन्थ अंकित हो जाता है। परमाणु में एक सौर-मण्डल ही समूचा ब्रह्माण्ड ही विद्यमान देखा जा सकता है। इसी प्रकार गायत्री मन्त्र में मनुष्य के शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक तीनों ही क्षेत्र केन्द्रित हैं। इनको सुविकसित बनाने की शिक्षाएं, प्रेरणाएं भी भरी पड़ी हैं। साथ ही वे दिव्य शक्तियां भी मौजूद हैं जो इन तीनों क्षेत्रों की विभूतियों एवं सम्पदाओं से—ऋद्धियों और सिद्धियों से—परिपूर्ण बना सके।

त्रिपदा की व्याख्या संसार क्षेत्र में तीन ऋतुएं—तीन काल—तीन वय के रूप में भी होती है। जल, थल और नभ के रूप में इसकी व्याख्या होती है। चेतना क्षेत्र में त्रिपदा का आलोक मनुष्य को सज्जन, महामानव, और देवात्मा बनाता है। इन्हीं को सन्त, ऋषि और अवतार कहते हैं। विभूतियों के क्षेत्र में सरस्वती, लक्ष्मी और काली की चर्चा की जाती है। त्रिवेणी में गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम है। रामायण के अनुसार इसमें मज्जन करने वाले ‘‘काक होंहि पिक—वकहु मराला’’ की स्थिति में बदल जाते हैं। आकृति यथावत् रहते हुए भी उनकी प्रकृति में काया-कल्प जैसा अन्तर आ जाता है।

गायत्री का नाम त्रिपदा क्यों पड़ा? इसका सुविस्तृत वर्णन इन पंक्तियों में किया जाना कठिन है। उस तत्व ज्ञान की यथा समय चर्चा की जायगी। यहां तो इतना ही जान लेना पर्याप्त है कि नवयुग के अवतरण में त्रिपदा की क्या भूमिका हो सकती है? इस सन्दर्भ में यज्ञोपवीत के स्वरूप की चर्चा करना उचित है—उपनयन को गायत्री की मूर्तिमान प्रतिमा माना गया है। उसके नौ धागे—गायत्री के नौ शब्द हैं। तीन लड़ें—तीन चरण। तीन ग्रन्थियां—तीन व्याहृतियां। एक प्रणव—बड़ी ब्रह्म ग्रन्थि। देव संस्कृति की आत्मा को यज्ञोपवीत की प्रत्यक्ष प्रतिमा मानकर शरीर रूपी मन्दिर में उसकी धारणा-प्रतिष्ठापना कराई जाती है। कन्धा उत्तरदायित्व का-हृदय भावना का-कलेजा साहस का और पृष्ठ भाग कर्मठता का प्रतीक माना जाता है इन चारों अवयवों के ऊपर घुमाते हुए यज्ञोपवीत पहना जाता है और समझा जाता है कि इस महा मन्त्र में सन्निहित प्रेरणाओं से जीवन-क्रम को पूरी तरह जकड़ दिया गया है।

तीन लड़ों में शारीरिक, मानसिक और सामाजिक क्षेत्र को समुन्नत बनाने वाले संकेत सूत्र हैं। गायत्री के प्रथम चरण को शारीरिक, दूसरे को मानसिक और तीसरे को सामाजिक सुव्यवस्था का मार्ग दर्शक कहा जा सकता है। नौ गुण प्रसिद्ध हैं। नौ धागों में उन नौ गुणों का मार्ग दर्शन भरा पड़ा है जो उपरोक्त तीनों ही जीवन पक्षों को समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाते हैं। भूतकाल में भारतीय नागरिक इन नौ गुणों से सुसम्पन्न बनते और देव मानव कहलाते थे। नवयुग का अवतरण उसी सतयुग के अनुरूप होगा। इसलिए आस्थाएं एवं परम्पराएं भी प्राचीन काल जैसी ही अपनानी पड़ेगी। शरीर, मन और अन्तःकरणों को उन्हीं महान् सद्गुणों में ढालना पड़ेगा, जिनकी प्रामाणिकता और उपयोगिता गौरव भरे अतीत में सुनिश्चित रूप से जानी जा चुकी है।

गुण व्यवहार में प्रयुक्त होते हैं। तत्व दर्शन अन्तराल की आस्थाओं में प्रतिष्ठित रहता है और उसकी प्रेरणा से मनन संस्थान की विचारणा एवं काय कलेवर की गतिविधियां काम करती रहती हैं। गायत्री का तत्व दर्शन पक्ष तीन व्याहृतियों में सन्निहित है। भूः को आस्तिकता-भुवः को आध्यात्मिकता एवं स्वः को धार्मिकता कहा गया है। ब्रह्म विद्या का-विस्तार इसी क्षेत्र तक सीमित है। उसकी विवेचना में इन्हीं तीन प्रसंगों की चर्चा होती है।

मार्ग दर्शन-व्यवहार पक्ष में-यज्ञोपवीत के माध्यम से जिन नौ गुणों की गरिमा समझाई गई है, उन्हें भी तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है। शरीर क्षेत्र में—श्रम, व्यवस्था, संयम, मनःक्षेत्र में—विवेक, साहस, स्वावलम्बन। समाज क्षेत्र में—एकता, समता, सहकारिता। इन नौ सूत्रों के आधार पर ही व्यक्ति और समाज के आचार, व्यवहार का निर्धारण होता है। तत्व दर्शन का प्रयोजन आस्थाओं का निर्माण करना है। अध्यात्म आस्थाओं में आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता की त्रिवेणी का ऊपर की पंक्तियों में वर्णन हो चुका है।

आस्थाएं ही व्यक्तित्व का मूल हैं। इन्हीं का स्तर व्यक्तित्व है। ‘‘श्रद्धा मयोयं पुरुष यो चच्छ्रद्धः स ए वास’’ की सूक्ति में यही बताया गया है कि व्यक्ति वही है जो उसकी श्रद्धा। श्रद्धा एवं आस्था का उच्चस्तरीय निर्माण ही नवयुग के सूत्रपात का शुभारम्भ है।

मनुष्य में देवत्व के उदय की प्रक्रिया ही धरती पर स्वर्ग का अवतरण कर सकेगी। नवयुग के यही दो आधार हैं। उन्हें पूरा करने के लिए सर्व प्रथम मनुष्य के व्यक्तित्व को उच्चस्तरीय बनाना होगा। इसके लिए उसके अस्तित्व का केन्द्र बिन्दु ही सम्भालना, सुधारना होगा। आस्थाओं का स्तर ऊंचा उठा देना ही वह कार्य है जिसके फलस्वरूप व्यक्ति की उत्कृष्टता और प्रखरता में प्रगति हो सकती है और उसे तेजस्वी एवं यशस्वी बनने के अवसर पग-पग पर मिल सकते हैं।

कहा जा चुका है कि त्रिपदा के आस्था क्षेत्र में प्रवेश कर पाने पर उसके अन्तःकरण में इन तीन विश्वासों का प्रादुर्भाव एवं परिपाक होने लगता है। गायत्री मन्त्र के व्याहृति भाग को ब्रह्म विद्या कहा गया है। भूः भुवः और स्वः को त्रयी विद्या के नाम से जाना जाता है। इन तीनों में प्रथम है—आस्तिकता। द्वितीय आध्यात्मिकता और तृतीय धार्मिकता। इन तीनों को भक्तियोग, ज्ञानयोग एवं कर्मयोग के अन्तर्गत भी गिना जाता है। उन्हीं की व्याख्या, श्रद्धा, प्रज्ञा और निष्ठा के रूप में सुविस्तृत विवेचन के साथ होती रहती है। इन समस्त परिचर्चाओं में गायत्री मूलक ब्रह्म विद्या को ही व्याख्या, विस्तार समझा जा सकता है।

आस्तिकता का अर्थ है—ईश्वर विश्वास। ईश्वर विश्वास अर्थात् उसकी न्याय परायणता पर विश्वास-कर्मफल की सुनिश्चितता पर सघन आस्था भले-बुरे कर्मों का फल मिलने में विलम्ब होने से मनुष्य में सत्कर्मों की सुखद प्रतिक्रिया और कुकर्मों की परिणिति दुःखद दुर्गति में होने के तथ्य पर से डगमगाने लगती है। बाल बुद्धि को विलम्ब असह्य होता है। वह तुर्त बीजारोपण और फुर्त फलदार वृक्ष की अपेक्षा करती है। देर लगते ही बागवानी पर से उसकी रुचि हठ जाती है। हथेली पर सरसों न जमे तो बच्चे कृषि विज्ञान को ही चुनौती देने लगते हैं। आस्तिकता के सिद्धान्त ईश्वर को सर्वव्यापी और न्यायकारी होने का विश्वास दिलाते हैं और समझाते हैं कि देर तो होती है, पर अन्धेर नहीं है। इस मान्यता को अपनाने वाला न तो गुप्त पाप कर पाता है और न प्रकट में उसके लिए उसका दुस्साहस उभरता है। पुनर्जन्म-स्वर्ग-नरक की मान्यताएं भविष्य में कर्मफल मिलने का आश्वासन देती है। फलतः आस्तिकता से प्रभावित व्यक्ति की नैतिकता अक्षुण्ण बनी रहती है। व्यक्ति के जीवन परिष्कार में यह एक महती उपलब्धि है। इस विश्वास के कारण पतन के गर्त में गिराने वाले कदम ही लौह श्रृंखला से जकड़ जाते हैं और भविष्य अन्धकारमय बनने से बच जाता है। साथ ही सत्प्रयोजनों के प्रति भी उत्साह शिथिल नहीं होने पाता। किसान, विद्यार्थी, व्यापारी आदि सभी अपने परिश्रम का प्रतिफल पाने में मिलने वाली देरी लगते हुए भी विचलित नहीं होते फिर आस्तिकता की आस्था रहते हुए किसी मनुष्य को कर्मफल में विलम्ब होने से अधीरता क्यों होगी?

परमात्मा और आत्मा के परस्पर मिलने की प्रतिक्रिया बिजली के ठण्डे-गरम तारों के मिलने पर उत्पन्न होने वाली चिनगारियों जैसी होती है। आत्मा में परमात्मा का अवतरण होते ही सद्भावना, सद्विचारणा एवं सत्प्रयत्नों की चिनगारियां उछलने लगती हैं। वर्षा ऋतु आने पर सर्वत्र हरियाली उग पड़ने की तरह सत्प्रवृत्तियों से समूचा जीवन क्षेत्र भर जाता है। भक्ति का अर्थ है—प्यार। ईश्वर भक्ति अर्थात् आदर्शों के प्रति अनन्य निष्ठा। ईश्वर भक्ति के माध्यम से किया गया प्रेम भावना के विकास विस्तार का अभ्यास जब परिपक्व होता है तो प्राणि मात्र के प्रति आत्मीयता की दिव्य सम्वेदनाएं विकसित होती हैं। फलतः हर किसी से केवल सद्व्यवहार का आचरण ही बन पड़ता है। ईश्वर के अवतरण, प्रसंगों में मनोयोग लगने से यह विश्वास जमता है कि धर्म की स्थापना और अधर्म के विनाश की प्रवृत्ति एक मात्र वह कसौटी है जिसके आधार पर मनुष्य से ईश्वर के अवतरण का अनुपात जाना जा सकता है। इष्टदेव की पूजा, अर्चा का तात्पर्य है—देवत्व की ओर अन्तरात्मा को उन्मुख और अग्रसर करना। किस सांचे में अपने को ढालना है इसका निर्धारण ही इष्टदेव का चयन एवं वरण है। विश्व-व्यापी चेतना में ईश्वर का दर्शन करना—विराट् दर्शन कहलाता है। इसका तात्पर्य है अपने विश्व ब्रह्माण्ड को परमात्मा की प्रत्यक्ष प्रतिमा मानना और प्राणियों के प्रति सदाचरण और पदार्थों के सदुपयोग का निरन्तर ध्यान रखना। ऐसे-ऐसे असंख्यों आस्था परक लाभ ईश्वर विश्वास के हैं। यदि सही रीति से सही आराधना—सही प्रयोजनों के लिए की जाय तो उसका भरपूर लाभ आस्तिक व्यक्ति को तथा समूचे समाज को मिलना सुनिश्चित है।

त्रिपदा का दूसरा दार्शनिक है—आध्यात्मिकता। आध्यात्मिकता अर्थात्—अपने वास्तविक स्वरूप एवं उद्देश्य का ज्ञान। इसका उदय होते ही आत्मावलम्बन एवं आत्मगौरव की अनुभूति होती है। आत्मावलम्बन अर्थात् आत्म निर्भरता। आत्म-निर्माण का उत्तरदायित्व अपने कन्धों पर ओढ़ना। अपनी परिस्थितियों का कारण मनःस्थिति को मानना और बहिरंग क्षेत्र की प्रगति के लिए प्रयासों का आरम्भ आत्मिक क्षेत्र में अभीष्ट सत्प्रवृत्तियों को व्यवहार अभ्यास में उतारता। आत्म-निरीक्षण, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण एवं आत्म-विकास के चार अवलम्बन अपना कर आत्मिक प्रगति की सर्वांग पूर्ण व्यवस्था जुटाई जाती है।

अपना दृष्टिकोण बदलने से परिस्थितियों के मूल्यांकन और उनसे निपटने के निर्धारण में होती रहने वाली भयंकर भूलों का सिलसिला बन्द हो जाता है। फलतः जीवन-क्रम में ऐसा बदलाव आता है मानो किसी ने काया-कल्प करके रख दिया हो। अपने को दरिद्र, अभावग्रस्त, हेय स्थिति में पड़ा हुआ मानना पूर्णतया सापेक्ष है। सम्पन्नों के साथ तुलना करने पर अपनी स्थिति विपन्नों जैसी लगती है और विपन्नों के साथ तोलने से लगता है अपनी जैसी सम्पन्नता भी बहुत कम भाग्यवानों को मिल पाती है। अपने अभावों को गिनते रहने और दूसरों के अपकारों को सोचते रहने से लगता है नरक में पड़े हैं। आशंकाओं, सन्देहों और कुकल्पनाओं से, मस्तिष्क भरे रहने से हर घड़ी यही लगता रहता है कि विपत्ति के बादल अब टूटे-तब टूटे। संसार दर्पण की तरह है इसमें प्रायः अपना ही प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता है। अपने गुण, कर्म, स्वभाव की श्रेष्ठता और निकृष्टता ही बाहर का सहयोग और विरोध आमन्त्रित करती रहती है। मनुष्य अपने ही अन्तराल की प्रतिध्वनि चारों ओर गूंजती हुई सुनता है। अपनी ही विकृतियां भूत-पिशाच का रूप धारण करके डराती, धमकाती रहती हैं।

युग परिवर्तन का श्रीगणेश ‘हम बदलेंगे युग बदलेगा’ के उद्घोष से आरम्भ होता है। इसमें व्यक्ति के बदलने से समाज बदलने की सम्भावना व्यक्त की गई है। मनःस्थिति की प्रतिक्रिया परिस्थिति के रूप में दृष्टिगोचर होने की बात कही गई है। इसे आत्म-निर्माण का अभियान भी कह सकते हैं। आध्यात्मिकता ही आत्मज्ञान है। आत्म-गौरव को अक्षुण्ण रखने वाला चिन्तन और कर्तृत्व बनाये रहने की इसमें प्रेरणा है। आत्मावलम्बन, स्वावलम्बन की अन्तःचेतना को जगाने की दिव्य प्रेरणा भी इसे समझा जा सकता है। त्रिवेणी की दूसरी धारा इस आध्यात्मिकता की तत्व दृष्टि को ही कहा गया है।

तीसरी धारा है धार्मिकता। धर्म-निष्ठा अर्थात् कर्त्तव्य-परायणता है। अपने कृत्यों की, उद्देश्य की ईमानदारी-सम्बन्धित व्यक्ति के प्रति वफादारी और करने की प्रक्रिया में जिम्मेदारी का समावेश किया जाय तो ‘कर्म ही पूजा है’ का सिद्धान्त अक्षरशः सही सिद्ध हो सकता है। काम करते समय यह ध्यान रखा जाय कि इसमें आदर्शों का हनन एवं नीति मर्यादाओं का उल्लंघन तो नहीं होता। लोभ, मोह से प्रेरित होकर ऐसा कुछ तो नहीं किया जा रहा है, जिसके औचित्य पर उंगली उठाई जा सके। हर कृत्य ऐसा होना चाहिए जिससे आत्म-सन्तोष आत्म-गौरव बढ़ता हो और समाज का हित होता हो। धर्म मर्यादाओं का निर्धारण मनीषियों द्वारा उन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया हो। इनके परिपालन की निष्ठा अपनाई और सुदृढ़ बनाई जानी चाहिए।

धर्म के दो पक्ष हैं—एक श्रेष्ठता का सम्वर्धन, दूसरा निकृष्टता का निराकरण। स्थापना एवं अभिवर्धन के लिए रचनात्मक प्रयास करने होते हैं और उन्मूलन के लिए असहयोग, विरोध एवं संघर्ष की नीति अपनानी होती है। भगवान के अवतारों में यह संस्थापन और उन्मूलन के दोनों ही तत्वों को समान महत्व दिया गया है। धर्म प्रेमी को जहां सदाचरण एवं परमार्थ का आदर्श अपनाना होता है वहां अनैतिकता, अवांछनीयता एवं मूढ़ मान्यता के अनाचार का डट कर विरोध भी करना पड़ता है। धर्म धारणा का ही एक अंग धर्म युद्ध भी है।

अपने शरीर, मन और आत्मा के प्रति, परिवार और समाज के प्रति, ईश्वर और आदर्शों के प्रति, अपने कर्तव्य एवं उत्तरदायित्वों का अविचल भाव से पालन करते रहना धार्मिकता है। ब्रह्म विद्या का—गायत्री तत्व ज्ञान का तीसरा चरण यही धार्मिकता है। इसे त्रिपदा, त्रिवेणी की तीसरी धारा कहा गया है।

मानवी आस्थाओं के निर्माण में इन तीनों तथ्यों की प्रतिष्ठापना अन्तःकरण में इतनी गहराई तक होनी चाहिए कि वे सघन विश्वासों के रूप में परिलक्षित होने लगें। लक्ष्य और व्यक्तित्व बन जायं। आकांक्षाएं इन्हीं से प्रेरित हों।

युग शक्ति गायत्री का तत्व दर्शन इन्हीं तीन धाराओं में प्रवाहित होता है। व्यक्ति और समाज की अभिनव संरचना में आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता के तीनों ही तथ्यों का प्रयोग उपयोग करना होगा। जन-मानस का परिष्कार इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति कर सकने योग्य हो सकें, यही ध्यान में रखना होगा। गायत्री तत्व ज्ञान में इन्हीं त्रिविधि प्रेरणाओं का सघन समावेश है।
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118