विकास-क्रम की उपयोगिता तभी है जब वह समग्र और संतुलित हो। शरीर का कोई एक भाग अधिक बड़ा-मोटा, भारी हो जाय और अंग दुबले-पतले बने रहें तो उससे शोभा नहीं कुरूपता ही बढ़ेगी। उस एकाकी प्रगति को रुग्णता का चिह्न माना जायगा। स्वास्थ्य, शिक्षा, सम्पत्ति के साथ-साथ शालीनता का भी समन्वय रहना चाहिए। इनमें से कोई एक पक्ष तो बढ़ चले किन्तु सब पिछड़ी स्थिति में पड़े रहें तो, स्थिति सन्तोषजनक नहीं मानी जायगी और वह असन्तुलन उपहासास्पद ही समझा जायगा।
आत्मिक प्रगति के लिए सद्कर्म, सद्ज्ञान और सद्भाव सम्वर्धन की आवश्यकता रहती है। कर्म, ज्ञान और आस्था के तीनों क्षेत्रों को समुन्नत बनाने का प्रयत्न करते हुए समग्र आत्मिक प्रगति के पथ पर चल सकना सम्भव होता है। इन तीनों का ही तीन तरह अभिवर्धन—परिपोषण करा सकने में समर्थ होने के कारण भी गायत्री को त्रिपदा कहा गया है। यों इस नामकरण के और भी कितने ही प्रयोजन हैं।
शरीर से कर्म—मन से ज्ञान और अन्तःकरण से भाव बन पड़ते हैं। इन तीनों ही क्षेत्रों में सक्रियता, सदाशयता एवं सात्विकता की अभिवृद्धि जिस क्रम से होती है, उसी अनुपात से मनुष्य में देवत्व बढ़ता चला जाता है। देवत्व के साथ अनेकानेक ऋद्धियों और सिद्धियों का समुच्चय जुड़ा-हुआ रहता है। सर्वतोमुखी प्रगति का आधार गायत्री के त्रिपदा स्वरूप से बनता है। उसकी उपासना में ऐसे ही धकापेल शब्दों की रटन्त भर नहीं होती, वरन् साधक को शरीर, मन एवं अन्तःकरण को परिष्कृत करने के भाव भरे उपचार भी करने होते हैं और इसके लिए कितने ही प्रकार के अनुशासन, प्रतिबन्ध अपने ऊपर लादने पड़ते हैं। तपश्चर्या इन्हीं अनुबन्धों को कहते हैं। उपासना में प्रखरता भर जाने का रहस्यमय आधार इन तप अनुशासनों को ही माना गया है।
शरीर से संयम, मन से ध्यान और अन्तःकरण से समर्पण की त्रिविधि प्रक्रियाएं अपनाने से त्रिपदा की समग्र साधना बन पड़ती है।
उच्चस्तरीय गायत्री उपासक को आहार और विहार का संयम बरतना चाहिए। आहार में सात्विकता का अधिकाधिक समावेश किया जाय। आहार की उत्कृष्टता बढ़े किन्तु मात्रा घटे तो उससे शरीर को स्वास्थ्य सम्वर्धन का और चेतना को देवत्व की अभिवृद्धि का लाभ मिलता है। अस्वाद व्रत पालन से लेकर शाकाहार जैसे उपवास उपक्रमों में आहार का रजोगुण, तमोगुण भी घटता है और पेट और मन पर अनावश्यक भार की तरह लदी रहने वाली उत्तेजना भी शान्त होती है। खाद्य-पदार्थों की प्रकृति सात्विक रहेगी तो फलस्वरूप मन में एकाग्रता, शान्ति एवं सौम्यता की सत्प्रवृत्तियां बढ़ेंगी। अन्न से मन का स्तर बनने की बात सर्वविदित है। आहार संयम के इन्द्रिय निग्रह को मन को वश में करने का—प्रथम चरण माना गया है। उसी प्रकरण में दूसरा चरण ब्रह्मचर्य है। रजवीर्य को जीवनी शक्ति का भण्डार माना गया है। उसका कोष बढ़ता है तो वह पूंजी ओजस्, तेजस् और वर्चस् में परिवर्तित होकर चेतना की उच्चस्तरीय समर्थता बढ़ाती जाती है। ब्रह्मचर्य का स्थूल रूप वीर्य-पात पर नियन्त्रण करने से होता है और सूक्ष्म रूप में नारी के प्रति पवित्र भावना अपनाने का अभ्यास करना होता है। सूक्ष्म वीर्य का—ओजस् का—क्षरण कुत्सित दृष्टि से होता है। वही वास्तविक व्यभिचार है। नारियों के प्रति कुदृष्टि रखने और अचिन्त्य चिन्तन करने से ओजस् का बुरी तरह क्षरण होता है और आन्तरिक समर्थता घटती है। इस अशक्तिता की स्थिति से आत्मिक पुरुषार्थ बन नहीं पड़ता और साधना के जो सत्परिणाम होने चाहिए उन्हें प्राप्त कर सकना कठिन बनता चला जाता है। अस्तु शरीर साधना में संयम बरतना होता है और अनुशासित सुव्यवस्थित दिनचर्या बनाकर कर्मयोगी की तरह जीवनयापन करना होता है। यह त्रिपदा के एक पक्ष की—स्थूल शरीर की—तपश्चर्या समझी जा सकती है।
दूसरा पक्ष है—मन। इसी संस्थान को सूक्ष्म शरीर भी कहते हैं। त्रिपदा के द्वितीय चरण की साधना मनोनिग्रह से सम्बन्धित है। इसके लिए ‘ध्यान-योग’ का अभ्यास करना होता है। ध्यानयोग के दो प्रयोजन हैं—एक मन की अनावश्यक और अवांछनीय भगदड़ को नियन्त्रित करना, एकाग्र होना। इससे बिखराव में नष्ट होने वाली शक्ति का अपव्यय बच सकता है और इस बचत का उपयोग रचनात्मक उपयोगी कार्य में हो सकता है। ध्यान का दूसरा प्रयोग है—मनःशक्ति का प्रगतिशील प्रयोजनों में उपयोग। प्रसुप्त अतीन्द्रिय क्षमताओं को उभारने के लिए एकाग्र मनःशक्ति को ही समर्थ उपकरण की तरह प्रयुक्त किया जाता है। जीवन-लक्ष्य की दिशा धाराएं प्रायः भौतिक लिप्साओं की बहुलता के कारण विस्मृत जैसी हो जाती हैं। जीवन किसलिए मिला है? और उस दिव्य अनुदान का उपयोग किन कार्यों में किस प्रकार होना चाहिए इस प्रसंग पर कदाचित ही कभी गम्भीर मनन-चिन्तन होता है। ध्यान में बहिर्मुखी प्रवृत्तियों को अन्तर्मुखी किया जाता है और अन्तःक्षेत्र की दिव्यता को प्रखर परिष्कृत बनाने का प्रयत्न किया जाता है। उन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ध्यान की अनेकों विधियां साधकों की मनःस्थिति को देखते हुए बताई, सिखाई जाती हैं। शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श की तन्मात्राएं कान, नेत्र, जिह्वा, नासिका एवं त्वचा की पांच ज्ञानेन्द्रियों से सम्बन्धित है। पांच तत्वों का प्रतिनिधित्व इन्हीं से होता है। शब्द आकाश से, रूप अग्नि से, रस जल से, गन्ध पृथ्वी से और स्पर्श पवन से सम्बन्धित है। इस परिकर के अन्तराल में जो रहस्य छिपे पड़े हैं उन्हें उपलब्ध करने के लिए क्रमशः जपयोग आकृति ध्यान, तप संयम, प्राणायाम, सोहम् साधना क्रियायोग का अभ्यास कराया जाता है। इन पांच तथ्यों पर आधारित पंचकोशी साधना को ही पंचमुखी गायत्री के नाम से जाना जाता है। यह सारा अभ्यास ध्यान योग के अन्तर्गत ही आता है। मस्तिष्क की सचेतन, अचेतन और उच्च चेतन की तीनों परतों में मानवी चेतना की समस्त विशिष्टताएं और विभूतियां दबी पड़ी हैं उन्हें ढूंढ़ निकालने परिपक्व करने एवं महान प्रयोगों में लाने की स्थिति उत्पन्न करना ध्यान योग का उद्देश्य है। सूक्ष्म शरीर में गायत्री का प्रयोग करना सामान्य एवं असामान्य मानसिक शक्तियों से लाभान्वित होने का उद्देश्य ध्यानयोग से ही पूरा होता है। गायत्री साधना का द्वितीय पक्ष मनःसंस्थान को भौतिक एवं आत्मिक प्रगति के उपयुक्त बनाने के लिए है। ध्यान इसी प्रयोजन को पूरा करता है।
त्रिपदा के तीन चरणों में उपासना के माध्यम से समग्र जीवन विकास के आधार भूत कारणों को परिष्कृत करने की शिक्षा दी गई है। अध्यात्म शास्त्र के अनुसार शरीर तीन माने गये हैं—(1) स्थूल—रक्त मांस से बनी हुई प्रत्यक्ष काया (2) सूक्ष्म—मन, बुद्धि और चित्त की तीन मानसिक परतों का समुच्चय मनःसंस्थान (3) कारण—अन्तःकरण, अन्तर्जगत। आस्थाओं एवं इच्छाओं का मर्म स्थल। विकास इन तीनों का ही अपेक्षित है। उन्हें पैर, धड़ और शिर के तीन वर्गों की तरह समझा जा सकता है। समग्र और सन्तुलित विकास के लिए इन तीनों को ही परिपुष्ट बनाया जाना चाहिए। इसी के संकेत गायत्री साधना में सन्निहित हैं। उपासना उपक्रमों का दर्शन और प्रशिक्षण इस उद्देश्य की पूर्ति करता है।
अन्तःकरण की उत्कृष्टता तीन तथ्यों पर आधारित है। एक आदर्शवादी आस्थाएं-दूसरी ममता भरी भाव सम्वेदनाएं-उत्कृष्ट स्तर की आकांक्षाएं। गायत्री उपासना में शरीरगत तप संयम—आत्मसत्ता की विशिष्टता सम्बन्धी ध्यान के उपरान्त तीसरी महत्वपूर्ण बात रह जाती है-अन्तःकरण की उत्कृष्टता। इसके तीनों ही पक्ष उपासना के अवसर पर प्रयुक्त होने वाली भाव सम्वेदनाओं के माध्यम से पूरे होते हैं। नारी तत्व के प्रति पवित्रता की श्रेष्ठता को आस्थाओं को अन्तराल की गहराई तक जमाने के लिए युवा नारी के रूप में गायत्री माता की प्रतिमा बनी है। आस्थाओं के क्षेत्र में व्यापक भ्रष्टता, कामुकता ही भरी रहती है। चिन्तन क्षेत्र में मर्यादाओं का सबसे अधिक उल्लंघन इसी क्षेत्र में होता है। युवा नारी की प्रतिमा में पवित्रतम मात्र बुद्धि की स्थापना का अर्थ है चिन्तन क्षेत्र की अभ्यस्त भ्रष्टता के उलट देने का अभ्यास करना। यह अभ्यास इसलिए कराया जाता है कि नारी मात्र के प्रति दृष्टिकोण में पवित्रता की आस्थाएं परिपक्व हो सकें। इस कठिन मोर्चे को जीतने के उपरान्त अन्यान्य आदर्शवादी आस्थाओं की अन्तराल में प्रतिष्ठापना होते चलना अति सरल हो जाता है। भाव सम्वेदनाओं की दृष्टि से माता का वात्सल्य ही सर्वोपरि है। प्रेम की उससे ऊंची उत्कृष्टता अन्य किसी मानवी सम्बन्ध में देखी नहीं जा सकती। गायत्री माता के प्रति भक्ति भाव के गहरे सम्बन्ध स्थापित करने के प्रयास में उसके वात्सल्य की अनुभूति का रसास्वादन करना होता है, अपने ऊपर बरसने वाले वात्सल्य की अनुभूति की जाती है। इसके प्रतिदान में साधक अपनी ओर से कृतज्ञता की अभिव्यक्ति अनेकानेक भाव भरी श्रद्धांजलियों के रूप में समर्पित करता है। उपासना काल की भाव सम्वेदना में एक ओर से वात्सल्य की वर्षा—दूसरी ओर से कृतज्ञता का भरा आत्म-समर्पण—इन्हीं दोनों आदान-प्रदान चलता रहता है।
आस्थाओं और सम्वेदनाओं के उपरान्त तीसरा भाव पक्ष है—आकांक्षाओं का सामान्य जीवन पर वासना, तृष्णा और अहंता की त्रिविध महत्वाकांक्षाएं ही छाई रहती हैं और इन्हीं की पूर्ति के लिए चिन्तन एवं श्रम को जुटा रहना पड़ता है। साधक जीवन में आकांक्षाओं का स्तर ऊंचा उठाना पड़ता है। उसका केन्द्रबिन्दु ‘राजहंस’ होता है। परमहंस स्थिति पूर्णता में होती है। राजहंस बनाने का प्रयास साधना काल में चलाना होता है। राजहंस गायत्री का वाहन है। अर्थात् त्रिपदा की घनिष्ठता, समीपता एवं अनुकम्पा राजहंस पर लदी रहती है। तात्पर्य यह है कि साधक की आकांक्षाएं राजहंस स्तर की होनी चाहिए। उस पक्षी के बारे में यह आरोपण है कि वह मोती खाता है, कीड़े नहीं। दूध पीता है, पानी नहीं। इसमें मात्र उत्कृष्टतावादी आकांक्षाओं को ही अपनाने और निकृष्ट अभिलाषाओं को
दृढ़तापूर्वक परित्याग कर देने की दृढ़ता है। मोती ही खाने में चरित्र-निष्ठा का और जल दूध के मिश्रण को अलग कर देना और श्रेष्ठ अंश ही ग्रहण करना विवेकशीलता को अपनाया जाना है। अध्यात्मवादी की आकांक्षाएं, अभिलाषाएं इसी वर्ग की होनी चाहिए। उसकी इच्छाएं आत्म-कल्याण और लोक-कल्याण के उच्चस्तरीय उद्देश्यों को पूरा कर सकने के लक्ष्य के साथ जुड़ी रहनी चाहिए। नीतिनिष्ठा, परमार्थ-परायणता और विवेकशीलता का समन्वय जिन आकांक्षाओं में हो रहा है, उन्हें राजहंस स्तर की कहना चाहिए। भक्ति भावना से अन्तराल को भर लेने का माहात्म्य समूचे अध्यात्म शास्त्र में भरा पड़ा है। उसे भावोन्माद, भावुकता का आवेश नहीं समझा जाना चाहिए। ऐसे ज्वार-भाटे तो आये दिन चढ़ते-उतरते रहते हैं। उनमें उमंगें और उचंगें ही उछलती-डूबती रहती हैं। इनकी आत्मिक प्रगति में कोई महत्ता या उपयोगिता नहीं है। आस्थाएं, सम्वेदनाएं और आकांक्षाओं की उत्कृष्टता ही ‘भक्ति’ का वास्तविक स्वरूप है। गायत्री उपासना में इसी भक्ति भावना को उभारने का अभ्यास किया जाता है। साधना काल का यह अभ्यास व्यावहारिक जीवन में उतरता है तो व्यक्तित्व का समग्र उत्कृष्टता के रूप में परिलक्षित होता है। तीनों शरीरों का—चेतना के तीनों प्रकरणों को क्रमिक विकास के पथ पर तेजी से धकेल देना ही त्रिपदा गायत्री की साधना में प्रयुक्त होने वाले तीन विधि-विधानों का उद्देश्य है। एक शब्द में इस पुण्य प्रक्रिया को समग्र आत्म-विकास की प्राणवान प्रयत्नशीलता भी कहा जा सकता है।