युगशक्ति गायत्री का अभिनव अवतरण

युग परिवर्तन के उपयुक्त वातावरण बनाना होगा

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एकाकी प्रयत्न और पुरुषार्थ का भी महत्व है और उसे सम्मानित, प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। कई बार तो एकाकी प्रयत्न भी इतने प्रचण्ड होते हैं कि वे भी न केवल व्यष्टि सत्ता को वरन् समष्टि सत्ता तक को प्रभावित करने और उलटने तक में बहुत हद तक सफल हो जाते हैं। यों ऐसे यदा कदा ही अपवाद रूप में होता है पर इसमें यह तो पता चलता ही है कि ईश्वर का अंश राजकुमार अपने पिता की समस्त विभूतियां साथ लेकर आता है और यदि वह चाहे तो अपनी प्रसुप्ति को जागृति में बदलकर—प्रखरता को अपनाकर समष्टि क्षेत्र में भी इतना कुछ कर सकता है जिसे चमत्कारी कहा जा सके। तेजस्वी मनस्वी स्तर के व्यक्ति ऐसा ही कुछ कर गुजरते हैं। ऐसी प्रतिभायें महामानवों के रूप में प्रतिष्ठा पाती हैं और अपने असाधारण कर्तृत्व से सामयिक समस्याओं का समाधान करती हैं। अवतारी आत्मायें इसी स्तर की होती हैं। युग नेतृत्व कर सकने की विलक्षणता ही उन्हें भगवान स्तर का श्रेय सम्मान प्रदान करती है। यह व्यक्ति के चरम उत्कर्ष का उल्लेख होगा।

इतने पर भी वातावरण की महत्ता अपने स्थान पर यथावत् ही बनी रहती है। उसके प्रभाव की प्रचण्डता पग-पग पर परिलक्षित होती रहती है और आवश्यकता यह भी बनी रहती है कि किसी प्रकार समूचे वातावरण का अनुकूलन संभव बनाया जाय। इसके लिए सुनिश्चित उपचार सामूहिक साधना ही जाना और माना जाता रहा है। इन दिनों इन प्रयत्नों को युग शक्ति के उदय—उद्भव का उद्देश्य पूरा करने के लिए प्रयुक्त किया जा रहा है।

वातावरण का प्रभाव मनुष्यों की आकृति एवं प्रकृति में पाये जाने वाले अन्तर को देखकर जाना जाता है। काले, पीले, सफेद और लाल रंगों की चमड़ी में वातावरण का प्रभाव ही मुख्य है। यह विशेषतायें रक्त गत मानी जाती हैं, किन्तु यह भी स्पष्ट है कि चमड़ी को प्रभावित करने वाली रक्त गत विशेषता अन्ततः विभिन्न देशों और क्षेत्रों में पाई जाने वाली जलवायु की भिन्नता से ही सम्बन्धित है। मनुष्यों के छोटे बड़े आकार देश और क्षेत्रों के हिसाब से होते हैं। पंजाबी और बंगाली की बीच शरीरों की सुदृढ़ता में जो कमीवेशी रहती है उसमें वातावरण के प्रभाव को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। रूस के उजबेकिस्तान प्रान्त में अधिकांश व्यक्ति शतायुष होते हैं। उनके आहार विहार में—सुविधा साधनों में कोई खास विशेषता नहीं होती। अन्यत्र रहने वालों की तरह वे भी मोटा-छोटा खाते और औसत जिन्दगी जीते हैं। फिर सारे क्षेत्र में दीर्घायु की परम्परा किस कारण चली आ रही है? इसका उत्तर वातावरण की विशेषता को समझने से ही मिल सकता है।

न केवल शरीरों में वरन् स्वभावों में भी विशेष अन्तर देखा जाता है। यह सूक्ष्म या स्थूल वातावरण का ही प्रभाव है। संस्कृति, सभ्यता आदि की भिन्नतायें इसी आधार पर विभाजित होती हैं कि किस क्षेत्र के लोगों की मान्यता अभिरुचि एवं आदत किस ढांचे में ढल गई है और उन लोगों की विचारणा एवं गतिविधि किस दिशा में प्रवाहित हो रही है। यह प्रवाह सहज ही बदलते भी नहीं, इसलिए उन्हें संस्कृति की भिन्नता के रूप में मान्यता दे दी जाती है और उसका परिपोषण भी होता है। यह विशेषतायें न केवल स्वभावों में वरन् चरित्रों और आदर्शों में भी छलकती दीख पड़ती हैं।

पशुओं, वनस्पतियों और खनिज पदार्थों तक में वातावरण की भिन्नता के आधार पर उनके स्तर का परिचय मिलता है। एक देश के पशुओं का दूसरे देश वालों की तुलना में न केवल आकृति में अन्तर पड़ जाता है वरन् उनकी श्रमशक्ति, दूध देने आदि की क्षमताओं में भी अन्तर होता है। भेड़ों की ऊन में पाई जाने वाली भिन्नतायें उन क्षेत्रों के वातावरण से सम्बन्धित होती हैं। पहाड़ी कुत्ते और देशी कुत्तों में काफी प्रकृति भिन्नता पाई जाती है। ऋतु प्रभाव सहन करने की क्षमता भी उस क्षेत्र पर छाई रहने वाली सूक्ष्म विशेषताओं से ही सम्बन्धित होती है। सर्दी वाले इलाकों में जन्मे प्राणी सर्दी की और गर्म देशों के निवासी गर्मी की अधिकता को भी शान्ति पूर्वक सहन कर लेते हैं जबकि भिन्न परिस्थितियों में जन्म लेने वालों के लिए परिवर्तन के साथ तालमेल बिठाना कठिन पड़ता है तेज वाहनों पर सफर करने वाले अक्सर स्वास्थ्य में गड़बड़ी पड़ने की शिकायत करते रहते हैं। इसका कारण वातावरण में परिवर्तन की तीव्रता का शरीर की सहन शक्ति के साथ ठीक तरह तालमेल न बैठ सकना ही होता है।

जड़ी बूटियां—घास वनस्पतियां फल-फूल आदि के आकार, गन्ध, स्वाद आदि में अन्तर पाया जाता है। विभिन्न क्षेत्रों में उत्पन्न हुई औषधियों का नाम, रूप एक होने पर भी उनके रसायनों और गुणों में असाधारण अन्तर दीख पड़ता है। पक्षियों से लेकर कीड़े-मकोड़ों तक की आकृति-प्रकृति में अन्तर देखा गया है। सांप, बिच्छू, छिपकली, मकड़ी आदि के विषों में पाया जाने वाला अन्तर यों दीखता तो जाति गत है; पर वे जातिगत विशेषताएं भी मूलतया वातावरण की ही प्रतिक्रिया होती हैं।

अनेकों देशों की—क्षेत्रों की परिस्थितियां प्रथाएं और मान्यतायें, रुचियां और संस्कृतियां भिन्न-भिन्न होती हैं। उनमें जो बालक उत्पन्न होते हैं वे वातावरण के प्रभाव से उसी प्रकार की मनोवृत्ति और प्रकृति अपनाते चले जाते हैं। उनके चिन्तन, स्वभाव और क्रिया-कलाप लगभग वैसे ही होते हैं जैसे कि उस प्रदेश में रहने वाले लोगों के। बहुमत का दबाव पड़ता है तो अल्पमत अनायास ही बहुतों का अनुकरण करने लगता है। समय का प्रभाव—युग का प्रवाह—इसी को कहते हैं। सर्दी-गर्मी का मौसम बदलने पर प्राणियों के, वनस्पतियों के तथा पदार्थों के रंग-ढंग ही बदल जाते हैं। गतिविधियों में ऋतु के अनुकूल बहुत कुछ परिवर्तन होते हैं।

विज्ञान वेत्ता जानते हैं कि पृथ्वी पर जो कुछ विद्यमान है और उत्पन्न उपलब्ध होता है, वह सब अनायास ही नहीं है और न उस सबको मानवी उपार्जन कह सकते हैं यहां ऐसा बहुत कुछ होता रहता है जिसमें मनुष्य का नहीं वरन् सूक्ष्म शक्तियों का हाथ होता है। सूर्य पर दीखने वाले धब्बे उसकी स्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं। उस परिवर्तन का पृथ्वी पर भारी असर पड़ता है। उनसे पदार्थों की स्थिति और प्राणियों की परिस्थिति में आश्चर्यजनक हेर-फेर होते हैं विकिरण चुम्बकीय तूफान अन्धड़, चक्रवत् किस प्रकार सामान्य परिस्थितियों को असामान्य बनाते हैं, यह सभी जानते हैं। अन्तरिक्षीय अदृश्य शक्ति वर्षा से कई बार धरती पर हिम-युग आये हैं। जलप्लावन, समुद्री परिवर्तन और खण्ड प्रलय के दृश्य उपस्थित हुए हैं। भविष्य में पृथ्वी के पदार्थों अथवा प्राणियों की स्थिति में कोई असाधारण परिवर्तन हुआ तो उसका निमित्त कारण सामान्य घटना क्रमों में नहीं वरन् अन्तरिक्षीय अदृश्य हलचलों में ही पाया जायगा। अतिवृष्टि अनावृष्टि, शीत आधिक्य महामारी आदि आधि दैविक विपत्तियों में मनुष्य अपने आपको निर्दोष एवं असहाय ही अनुभव करता है।

व्यक्ति अपने निजी जीवन में सर्वथा स्वतन्त्र और सशक्त है। इतना होते हुए भी विशाल ब्रह्माण्ड में गतिशील हलचलों और परिस्थितियों में उसका स्थान नगण्य है। सिर पर खड़े पानी से लदे बादल तक को वह बरसा नहीं सकता, मौत, बुढ़ापे को रोकने तक में असमर्थ है। परिस्थितियों पर उसका अधिकार नगण्य है। प्रवाहों से वह अपना यत्किंचित् बचाव ही कर पाता है। सर्दी उसके बूते रुकती नहीं, कपड़े लाद कर, आग तापकर आत्म रक्षा भर में आंशिक सफलता पा लेता है।

स्पष्ट है कि वातावरण से मनुष्य प्रभावित होता है। अलग-अलग देशों के निवासी अपनी-अपनी परम्पराओं से प्रभावित होते प्रचलित ढर्रे के अन्तर्गत सोचते और जीवन यापन करते हैं। उसमें उनकी भौतिक प्रतिभा का नहीं वातावरण का प्रभाव ही प्रधान रूप से काम करता है।

चेतना के संघात से वातावरण में वांछित परिवर्तन किये जाने सम्भव हैं। अदृश्य जगत में कई बार ऐसी प्रेरणाएं उभरती हैं जिनके आंधी तूफानों में मनुष्यों के मस्तिष्क पत्तों और तिनकों की तरह उड़ने लगते हैं। युद्धोन्माद आदि उभरते हैं। उन दिनों अधिकांश लोग लड़ने की आवश्यकता अनुभव करते और उसके लिए उतारू से दिखते हैं। एक अजीब-सा आवेश छाया रहता है। कहने की आवश्यकता पड़ती है न समझाने की, हवा में तेजी और गर्मी ही कुछ ऐसी होती है जिसके कारण सामान्य मस्तिष्क एक प्रकार से सम्मोहक स्थिति में रहता और प्रवाह में बहता दिखाई पड़ता है। बड़े युद्धोन्माद एवं स्थानीय दंगे फसादों में वातावरण किस प्रकार उत्तेजित आतंकित होता है उसे जन मनोवृत्ति-शास्त्र के अध्येता भली प्रकार जानते हैं। युद्धोन्माद की तरह ही समय-समय पर दूसरे सूक्ष्म प्रवाह भी अपने-अपने समय पर उतरते रहे हैं और असंख्य मस्तिष्कों को अपने साथ बहा ले जाने में आंधी तूफान का काम करते रहे हैं।

प्रजातन्त्र की लहर एक समय चली और उसने राजतन्त्र को संसार से उखाड़ फेंकने और उसके स्थान पर जनवादी सरकार बनाने का चमत्कार ही उत्पन्न कर दिया। एक लहर साम्यवाद की उठी, उसने रूप के नेतृत्व में एशिया और योरोप के अनेक देशों को देखते-देखते अपना अनुचर बना लिया। इन दिनों संसार भर के मनुष्यों में से प्रायः आधे लोग साम्यवादी विचारधारा के पक्ष में सोचते और उनको पूरा या अधूरा समर्थन देते हैं। इन प्रजातन्त्र और साम्यवाद के विचार प्रवाहों को अपने युग की प्रचण्ड लहरों में गिन सकते हैं। अनुपयोगी लहरों में से अधिनायकवाद, जातिवाद, पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, सामन्तवाद आदि भी समय-समय पर अपना सिर उठाते और विग्रह उत्पन्न करते रहे हैं। लहर-लहर ही है। ज्वार-भाटा की भयंकरता समुद्र तट वासी समय-समय पर देखते रहते हैं। कई तरह के विचार प्रवाह भी कई बार ऐसे आते हैं जो अपने साथ असंख्यों को समेटते, घसीटकर कहीं से कहीं उठाकर उड़ाकर ले जाते हैं।

भगवान बुद्ध का धर्मचक्र प्रवर्तन साधन प्रधान नहीं, प्रवाह प्रधान था। साधनों ने प्रवाह उत्पन्न नहीं किया था। प्रवाह ने साधन खड़े कर दिये थे। हर्षवर्धन, अशोक आदि राजाओं ने मिलकर बुद्ध को धर्म प्रचारक नियुक्त नहीं किया था। बुद्ध ने ही हवा गरम की थी और उसकी गर्मी से लाखों सुविज्ञ, सुयोग्य और सुसम्पन्न व्यक्ति अपनी आत्माहुति देते हुए चीवर धारी धर्म सैनिकों की पंक्ति में अनायास ही आ खड़े हुए थे। धर्म प्रवर्तकों में से प्रत्येक ने अपने-अपने समय में अपने-अपने ढंग से वातावरण को गरम करके अपने समर्थन की भाव तरंगें उत्पन्न की हैं और उस प्रवाह में असंख्य व्यक्ति बहते चलते चले गये है। पराधीनता पाश से मुक्त होने वाले देशों में भी आजादी की लहर बही और उसके कारण अनगढ़ ढंग से आन्दोलन फूटे तथा अपने लक्ष्य पर पहुंच कर रहे। अदृश्य और सूक्ष्म वातावरण के तथ्य तथा रहस्य को जो लोग जानते हैं वे समझते हैं कि इस प्रकार के प्रवाह कितने सामर्थ्यवान होते हैं। उनकी तूफानी शक्ति की तुलना संसार की और किसी शक्ति से नहीं हो सकती। रामायण काल के वानरों द्वारा जान हथेली पर रखकर जलती आग में कूद पड़ना, जिस प्रवाह की प्रेरणा से सम्भव हुआ, उसका स्वरूप और महत्व यदि समझा जा सके तो प्रतीत होगा कि जन समुदाय को किसी दिशा विशेष में घसीट ले जाने की सामर्थ्य सूक्ष्म वातावरण में भी इतनी है जिसे साधनों के सहारे खड़े किये गये आन्दोलनों से कम नहीं अधिक शक्तिवान ही माना जा सकता है।

जन समर्थन और जन सहयोग के लिए प्रचार साधनों पर उतना निर्भर नहीं रहा जा सकता जितना कि वातावरण के अनुकूलन पर। सूक्ष्म जगत का प्रवाह यदि सहयोगी बन रहा हो तो अभीष्ट प्रयोजन में सफलता प्राप्त करने की सम्भावना कहीं अधिक बढ़ जाती है। हवा का रुख पीठ पीछे से हो तो जलयानों, वायुयानों से लेकर पैदल यात्रा में सुविधा होती है और मार्ग कितनी जल्दी, कितनी सरलता से पूरा हो जाता है। वातावरण में विषाक्तता छा जाती है तो भयंकर महामारियों का प्रकोप होता है और देखते-देखते असंख्यों उससे आक्रान्त होते मरते देखे जाते हैं। वातावरण में सर्दी-गर्मी होने से प्राणियों को कांपते देखा जाता है। घर में शोक का वातावरण हो तो असंबद्ध लोग भी उससे प्रभावित होते हैं। मन्दिरों और कसाई घरों के वातावरण का अन्तर प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। अध्यात्म विद्या में सूक्ष्म जगत का, सूक्ष्म वातावरण का महत्व इस संसार के समस्त साधनों से सर्वोपरि माना गया है। युग परिवर्तन के लिए हमें वातावरण के अनुकूलन के लिए अध्यात्म विज्ञान के अनुरूप प्रचण्ड प्रयास करने पड़ेंगे। इतना बड़ा कार्य उसी दिव्य शक्ति के माध्यम से सम्पन्न हो सकेगा।

सूक्ष्म वातावरण का परिशोधन करने के लिए अध्यात्म विज्ञानियों द्वारा कतिपय दिव्य उपचार समय-समय पर किये गये हैं इसके प्रमाण शास्त्रों में मिलते हैं। रावण काल के विक्षुब्ध वातावरण को समाहित करने का कार्य लंका विजय के उपरान्त भी शेष रह गया था। भगवान राम ने दशाश्वमेध घाट पर दश अश्वमेधों की संकल्प श्रृंखला पूरी की थी। कंस, दुर्योधन, जरासिन्ध जैसे असुरों के न रहने पर भी महाभारत काल के विक्षोभ वातावरण में भरे रहे। भगवान कृष्ण ने उनका समाधान आवश्यक समझा और पाण्डवों से राजसूय यज्ञ कराया। महर्षि विश्वामित्र अपने समय की असुरता को दुर्बल बनाने के लिए जो बृहद् यज्ञ रच रहे थे उसका पता असुरों को चल गया और वे ताड़का, सुबाहु, मारीच के नेतृत्व में उसे नष्ट करने के लिए आक्रमण करने लगे। राम और लक्ष्मण को यज्ञ की रक्षा के लिए जाना पड़ा था। ऐसे समाधान उपचारों में यज्ञ प्रक्रिया का बहुत महत्व रहा है। यज्ञों में अग्निहोत्र की तरह ही जप यज्ञ भी है। अग्नि होत्र में साधन चाहिए पर जप यज्ञ व्यक्तिगत साधना से भी सम्पन्न हो सकता है। यज्ञ तो सामूहिक होते ही हैं। उसमें होताओं की सम्मिलित साधना का चमत्कार देखने को मिलता है। जप यज्ञ को जब अनेक जपकर्त्ता संकल्प पूर्वक समाहित होकर करते हैं तो उससे भी सम्मिलित शक्ति उत्पन्न होती है। ऐसी सामूहिक साधनायें पुरश्चरण कहलाती हैं। तपश्चर्या युक्त सामूहिक संकल्पों के द्वारा विशिष्ट उद्देश्य के लिए किये गये पुरश्चरण भी वातावरण में अभीष्ट अनुकूलता उत्पन्न करते हैं।

युग परिवर्तन संसार का सबसे बड़ा—सबसे भारी और सबके व्यापक और सबसे अधिक महत्व का काम है। उसके लिए सामान्य और सीमित नहीं—असामान्य और असीम शक्ति चाहिए। भौतिक साधनों की भी इसके लिए आवश्यकता पड़ेगी पर शक्ति का मूल स्रोत आध्यात्मिक ही होगा। जन-मानस का बदलना विशुद्ध रूप से आध्यात्मिक क्षेत्र का कार्य है। इसलिए ऊर्जा भी उसी स्तर की चाहिए। वातावरण की उत्कृष्टता, निकृष्टता सामूहिक चिंतन पर निर्भर रहती है। उसका उत्पादन सामूहिक साधना के प्रचण्ड सामर्थ्य सम्पन्न सामूहिक धर्मानुष्ठानों से ही सम्भव है। हम सब इन दिनों इसी के लिए प्रयत्नशील हैं। आशा की जा सकती है कि इन पुण्य प्रयत्नों की प्रतिक्रिया युग परिवर्तन के महान प्रयोजन में अपनी असाधारण भूमिका प्रस्तुत करेगी।
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