मुक्तक-
जाग उठा है भूतल सारा, देखो हुआ सवेरा।
जागो तुम भी भोर हो गया, निशि का घोर अंधेरा॥
जागो..ऽऽ ,, जागो..ऽऽ, जागो..ऽऽ।
नौजवानों उठो अब करो
नौजवानों उठो अब करो ना विलम्ब,
समय हाथ में से निकल जायेगा।
औरों की बातें अब तुम न सोचो जरा,
तुम जो बदलो जमाना बदल जायेगा॥
चारों ओर ऐ कैसी जो आँधी चली,
जिससे भड़क उठी जलती चिनगारियाँ।
सबको अपनी लगन अपना ही स्वार्थ है,
नहीं आदर्श का कोई नामों निशां॥
आग बढ़ती रही ऐ अगर जो कहीं,
एक दिन सारा विश्व ही जल जायेगा॥
है परेशां बहुत आज यज्ञपिता,
अपनी सन्तान में स्वार्थ को देखकर।
आज रोती रही भारतीय संस्कृति,
अपनी औलाद के ऐसे कर्तव्य पर॥
तुम उसी को बता हम ऋषि पुत्र हैं,
ताकि माँ बाप का मन बहल जायेगा॥
जो कर्तव्य के रंग से हो भरा,
चोला तुम बसन्ती ऐसा पहन।
बलिदान का कर लो संकल्प तुम,
समर्पण का सर पे तुम धर लो कफन॥
बुलन्दी तुम अपनी तो ऐसी जगा,
ताकि झुक जाये तेरे चरण में गगन॥
तेरे चेहरे पे ईर्ष्या का धब्बा लगा,
आँखों में नशा है अहंकार का।
तुम धो डालो अपना ये चेहरा जरा,
और भर लो नशा आँख में प्यार का॥
फेंक दो तुम पथिक आज अपनी जलन,
ताकि सच्चा स्वरूप तब निखर आयेगा॥