एक अनुरोध मतदाताओं से

लोक मानस परिष्कार के प्रति प्रबुद्धों एवं शासन तंत्र का उत्तरदायित्व

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किसी जमाने में राजतंत्र का प्रभाव प्रजा की सुरक्षा तक सीमित था। बाहर के आक्रमणकारियों से युद्ध और भीतर से चोर, डाकू, दुष्ट, दुराचारियों को दण्ड प्रायः इतना ही कर्त्तव्य राजा लोग निबाहते थे। उन्हीं प्रयोजनों के लिए शस्त्र सज्जा, सेना जुटाए रहते थे। उस सुरक्षात्मक शासन व्यवस्था का व्यय भार प्रजाजन टैक्सों के रूप में अदा करते थे। जन मानस को सुव्यवस्थिति और लोक प्रवृत्तियों को परिष्कृत करने का काम धर्म तंत्र संभालता था। शिक्षा, चिकित्सा, लोकमंगल के व्यक्तिगत और सामूहिक कार्यों का संचालन संत-मनीषियों द्वारा संपन्न होता था। उनका व्यय भार जनता श्रद्धासिक्त दान-दक्षिणा के रूप में पूरा करती थी। राजकोष में जो पैसा बच जाता था, वह उन्हीं धर्म पुरोहितों को दे दिया जाता था। वे समय और आवश्यकता के अनुरूप जिन कार्यों में उचित समझते थे, उस दान धन का उपयोग करते थे। उस पर कोई नियंत्रण-प्रतिबंध इसलिए नहीं था कि दान के श्रद्धासिक्त धन का श्रेष्ठतम उपयोग क्या किया जाए, किस तरह किया जाए- इसका सर्वोत्तम निर्णय वे धर्म पुरोहित स्वयं ही कर सकने में समर्थ थे।

समय की गति ने धर्म तंत्र को दुर्बल कर दिया और निकम्मा भी। राजतंत्र की परिधि बढ़ती गई। अब शासन केवल सीमा सुरक्षा और अपराधियों को दंड देने तक सीमित नहीं रहा। उसका क्षेत्र बढ़ते-बढ़ते जीवन के हर क्षेत्र और समाज के हर कार्य के साथ जुड़ता चला आ रहा है। ऐसी दशा में सरकार का अधिक परिष्कृत होना आवश्यक है। अन्यथा उसमें घुसी हुई विकृतियां सारी प्रजा की गतिविधियां विकृत कर देंगी। राजनीति से कोई सीधा संबंध रखे या न रखे पर उसे इतना ध्यान तो रखना ही होगा कि शासन का स्तर और स्वरूप भ्रष्ट न होने पावे। इससे कम सतर्कता रखे बिना आज का नागरिक कर्त्तव्य पूरा नहीं होता। इस संदर्भ में हमें वोट का अधिकार बहुत ही सावधानी से बरतना चाहिए और हर समीपवर्ती को इस राष्ट्रीय अमानत का श्रेष्ठतम उपयोग पूरी समझदारी और दूरदर्शिता के साथ करने के लिए सजग करना चाहिए। चुनाव के समय बरती गई उपेक्षा, अन्यमनस्कता जन समाज के भाग्य-भविष्य के साथ खिलवाड़ ही कही जाएगी। हमें चरित्रवान, आदर्शवादी, लोक सेवी और परिष्कृत दृष्टिकोण वाले व्यक्तियों को ही वोट देना चाहिए। भ्रष्ट लोग-चुनाव के समय जन साधारण को प्रलोभन-बहकावे एवं भ्रांतियों में उलझाकर वोट ले जाते हैं और चुने जाने पर अपने स्वार्थों के लिए शासन तंत्र का दुरुपयोग करके ऐसी भ्रष्ट परंपरायें, रीति-नीतियां चला देते हैं जिनका भारी दुष्परिणाम देश को भोगना पड़ता है।

शासन के बढ़ते हुए क्षेत्र एवं प्रभाव को रोका नहीं जा सकता। आवश्यकता प्रजाजनों को इतना प्रदर्शित करने की है कि वे अपने वोट का मूल्य समझ सकें और बिना किसी बहकावे के उसका राष्ट्र हित में सर्वोत्तम उपयोग कर सकें। जहां यह सतर्कता न बरती जा सकी, वहां प्रजातंत्र अभिशाप ही बनकर रह गए। भ्रष्ट और धूर्तों के हाथ शासन सौंप देने पर अगणित दुष्प्रवृत्तियां पनपती हैं और प्रजा को अनेक जाल-जंजालों में फंसकर तरह-तरह के कष्ट उठाने पड़ते हैं। अस्तु जिन्हें राजनीति से सीधा संबंध न हो उन्हें भी वोट और उसके सदुपयोग के संबंध में तो अधिकतम जागरूक रहना ही चाहिए।

शासन के द्वारा प्रजा की भौतिक समस्याओं का समाधान कैसे किया जाए—इस पर विचार करना राजनीति वेत्ताओं के लिए छोड़ देते हैं। लोक मानस के स्तर को अत्यधिक महत्व देने वाले और उसे ही समस्त परिस्थितियों का जनक मानने वाले हमारे जैसे लोगों की अधिक दिलचस्पी इस बात में है कि शासन के हाथ में चले गए जन मानस को प्रभावित करने वाले साधनों का दुरुपयोग न होने पावे। वस्तुतः यह विषय धर्म तंत्र का था। जन स्तर पर मनीषियों, तत्व दर्शियों और लोक सेवियों द्वारा यह क्षेत्र संभाला जाना चाहिए था। पर दुर्भाग्य का अंत नहीं। धर्म पुरोहित जब स्वयं राजनेताओं की तुलना में व्यक्तित्व की दृष्टि से पिछड़ गए तो किस मुंह से उनके हाथ में लोक मानस के निर्माण की बात सौंपी जाए। परन्तु अभी भी उनके हाथ में बहुत कुछ है। करोड़ों व्यक्ति उनके आगे माथा टेकते और वचन सुनते हैं। इस श्रद्धा को वे चाहते तो इस स्थिति में ही सृजन की दिशा में नियोजित कर सकते थे—पर वहां भी पोल ही पोल है। ऐसी दशा में यह मांग तो नहीं की जा सकती कि वर्तमान धर्म पुरोहितों को धर्म तंत्र से संबंध रखने वाले संदर्भ सौंप दिए जाएं पर इतना अवश्य है कि हमें मनीषियों का एक मंच बनाना अवश्य पड़ेगा, जो लोक मानस को प्रभावित करने वाले तथ्यों को सरकार द्वारा दुरुपयोग होने से बचाए और स्वयं संगठित रूप से जन स्तर पर उन भाव प्रवृत्तियों को संभाले जो समस्त प्रकार की परिस्थितियों के लिए मूलतः उत्तरदायी हैं। शिक्षा का इस दृष्टि से पहला स्थान है। शिक्षा प्रणाली निस्संदेह लोक मानस को बहुत हद तक प्रभावित करती है। प्रगतिशील राष्ट्रों ने अपनी प्रजा की मनोदशा अभीष्ट दिशा में ढालने के लिए शिक्षा पद्धति को बदला और ऐसा खांचा खड़ा किया जिसमें पीढ़ियां ढलती गईं। जर्मनी, रूस, चीन, जापान आदि देशों ने अपनी प्रजा को एक खास दिशा में ढाला है, इसके लिए सरकारों ने सबसे अधिक ध्यान अपनी शिक्षा प्रणाली पर केंद्रित किया है। पाठ्य क्रमों के साथ विष या अमृत घोला जा सके तो विद्यालयों का वातावरण, कार्यक्रम, व्यवहार, आचार सभी कुछ अभीष्ट स्तर के ढल सकते हैं और अगले दिनों राष्ट्र का उत्तरदायित्व संभालने वाले छात्रों को जैसा चाहिए वैसा बनाया जा सकता है।

यह मानना होगा कि अपनी सरकार इस दिशा में उतनी सजग नहीं जितनी उसे होना चाहिए। यदि दूरदर्शिता पूर्वक इस क्षेत्र को संभाला गया होता तो आज शिक्षितों की बेकारी और उच्छृंखलता से उत्पन्न जो विभीषिका चारों और दीख पड़ रही है, वैसी परिस्थिति निर्मित न होती। तक ध्वंस में लगे हुए व्यक्तित्व सृजन में संलग्न होकर परिस्थितियों में सुख-शांति के तत्व बढ़ा रहे होते। हमें सरकार पर शिक्षा प्रणाली बदलने और सुधारने के लिए दबाव डालना चाहिए क्योंकि उसका सीधा प्रभाव जन मानस के स्तर पर पड़ता है। समूची राजनीति में किसी की पहुंच या दिलचस्पी न भी हो तो भी विचारणा को प्रभावित करने वाले तथ्यों की उत्कृष्टता, न बिगड़ने देने वाली बात को तो ध्यान में रखना ही चाहिए।

हमारे प्रयत्न सरकार को यह बताने और दबाने के लिए अधिक तीव्र होने चाहिए कि वह इस देश की परिस्थितियों का हल कर सकने वाली शिक्षा पद्धति प्रस्तुत करे। यह कैसे किया जाए, उसके लिए हम जन स्तर पर कुछ नमूने पेश करके अधिक प्रभाव शाली ढंग से अपना सुझाव पेश कर सकते हैं। मथुरा का युग निर्माण विद्यालय इसी का नमूना है, उसमें (1) औसत जीवन में काम आने वाली भाषा, गणित, भूगोल, स्वास्थ्य, सामान्य कानून आदि की काम चलाऊ सामान्य जानकारी (2) व्यक्ति और समाज की सामान्य समस्याओं के कारण और समाधान प्रस्तुत करने वाली विचारणा और (3) शिल्प, गृह उद्योग, मरम्मत, कृषि, पशुपालन, सहकारिता, मितव्ययिता जैसे अर्थ साधनों की शिक्षा दी जाती है। इन तीनों विषयों का सम्मिश्रित स्वरूप एक पाठ्य क्रम के रूप में विकसित किया गया है। इसमें उन तथ्यों का समावेश है जो भारतीय शिक्षा पद्धति का नया ढांचा खड़ा करने में मार्ग दर्शक हो सकते हैं। छात्रावासों में रखकर एक विशेष वातावरण में शिक्षार्थियों को किस प्रकार ढाला जा सकता है, उसका अभिनव प्रयोग कोई भी शिक्षा प्रेमी मथुरा आकर देख सकता है और यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि अपने देश के लिए शिक्षा प्रणाली का विकास किस आधार पर करना फलप्रद हो सकता है।

सामाजिक प्रयत्नों के रूप में अध्यापक वर्ग कर्त्तव्य भावना से प्रेरित होकर शिक्षण के साथ-साथ इस बात का प्रयत्न कर सकता है कि श्रेष्ठ नागरिकों को निर्माण कैसे हो और छात्रों में सत्प्रवृत्तियां कैसे पनपें? स्कूलों में जो कमी रह जाती है उसकी पूर्ति के लिए जन स्तर पर पूरक पाठशालाएं खोली जा सकती हैं। इन दिनों अपना प्रयत्न यही चल रहा है। पुरुषों के लिए रात्रि पाठशालाएं और महिलाओं को अपराह्न शालाएं चलाने के लिए अपना जो आंदोलन चला है, उसमें इस बात की संभावना विद्यमान है कि प्रस्तुत शिक्षा प्रणाली में रहने वाली कमी को इन पूरक पाठशालाओं द्वारा संपन्न किया जा सके। निरक्षरता निवारण के लिए प्रौढ़ शिक्षा के प्रयत्न खड़े करके अभाव की आंशिक पूर्ति भी की जा सकती है और प्रयोग की महत्ता प्रत्यक्ष अनुभव कराके शासन को इस बात के लिए मनाया-दबाया भी जा सकता है कि वह सुधार की दिशा में किस तरह सोचे और किस तरह बदले।

स्कूली शिक्षा के साथ विद्या का वह सारा क्षेत्र भी महत्वपूर्ण समझा जाना चाहिए जो लोक मानस को प्रभावित कर सकने में समर्थ है। साहित्य भी एक प्रकार का प्रशिक्षण ही है जिसके आधार पर लोक मानस का स्तर गिराया या उठाया जा सकता है। इस क्षेत्र में भी अपना दुर्भाग्य पीछा नहीं छोड़ रहा है। लेखक जो लिखा रहा है, प्रकाशक जो छाप रहा है, बुकसेलर जो बेच रहा है, उसे ध्यान पूर्वक देखा परखा जाए तो पता चलेगा कि इसमें से अधिकांश साहित्य लोक मानस को विकृत करने वाला ही भरा पड़ा है। कामुकता भड़काने में साहित्य ने अति कर दी है। उपन्यास, कथा, कहानी, कविता, विवेचना आदि में ऐसे ही संदर्भ भरे रहते हैं, जिनसे व्यक्ति की कामुक-पशुता भड़के और उसके मस्तिष्क में यौन आकांक्षाओं के सपने भरे रहें। पत्र-पत्रिकाओं के मुख्य पृष्ठों पर जैसे चित्र छपते हैं और भीतर जो विषय रहते हैं, उनसे यह सिद्ध होता है कि उन्हें लोक मंगल के लिए निकाला जा रहा हो। इस प्रयत्न का परिणाम नारी के प्रति अपवित्र दृष्टि, व्यभिचार, दाम्पत्य-जीवन की अव्यवस्था आदि विभीषिकाओं के रूप में सामने आ रही हैं। व्यक्ति शारीरिक और मानसिक दृष्टि से दिन-दिन पतित होता चला जा रहा है। कामुकता भड़काने वाले साहित्य के बाद जासूसी, तिलस्मी, जादूगरी, भूत-पलीत तथा अन्य प्रकार के भ्रम जंजाल फैलाने वाली, दुष्प्रवृत्तियों को जन्म देने वाली पुस्तकों से बाजार पटा पड़ा मिलेगा।

जो चीज तैयार की जाएगी आखिर वह खपेगी ही और अन्ततः उसका प्रभाव पड़ेगा ही। साहित्य क्षेत्र में जो बीज बोये जा रहे हैं, उनका प्रभाव बौद्धिक भ्रष्टता के रूप में निरंतर सामने आता चला जा रहा है। सरकार का कर्त्तव्य है कि इसे रोके। प्रजातंत्रीय नागरिक अधिकारों का मतलब यह नहीं है कि समाज का सर्वनाश करने की खुली छूट लोगों को मिल जाए। श्रेष्ठ साहित्य सृजा जाए, उसके लिए सरकारी और गैर सरकारी सहयोग—प्रोत्साहन मिलना चाहिए। पर जिस साहित्य से मानवीय दुष्प्रवृत्तियां भड़कने की आशंका है, उस पर नियंत्रण भी रहना चाहिए। कानून से यह विनाश रोका जा सकता है। ऐसे साहित्य के लिए कागज मिलने पर रोक लग जाए या दूसरे प्रतिबंध लग जाएं तो घृणित साहित्य के सृजन में जो बुद्धि, सम्पत्ति और मेहनत लगती है, उसे बचाकर उपयुक्त दिशा में उपयुक्त किया जा सकता है।

शिक्षा, साहित्य के बाद लोक मानस को प्रभावित करने वाला माध्यम ‘कला’ है। संगीत, गायन, अभिनय, नृत्य, नाटक, प्रहसन आदि केवल मनोरंजन ही नहीं करते वरन् उनके माध्यम से कोमल भावनाओं को स्पर्श करने और उभारने का काम भी बड़ी खूबी के साथ होता है। सिनेमा का क्षेत्र इन दिनों बहुत व्यापक हो गया है। अब लोक रंजन की प्रक्रिया सिनेमा के इर्द-गिर्द जमा होती चली जा रही है। लाखों लोग उसे रुचि पूर्वक देखते हैं। प्रगतिशील देशों ने सिनेमा की रचनात्मक प्रवृत्तियों को विकसित करने के लिए दिशा दी। सरकारों ने उस तरह के नियंत्रण लगाए और निर्देश दिए कि फिल्म जन मानस को ऊंचा उठाने वाली बनें। देश भक्त कलाकारों ने अपने नैतिक और सामाजिक उत्तरदायित्वों को समझा और निबाहा। फलस्वरूप वहां का सिनेमा वरदान सिद्ध हुआ। लोकरंजन के साथ लोकमंगल जुड़ा रहने से उसका परिणाम शुभ ही हुआ। लोगों को विनोद भी मिला और विकास के लिए प्रकाश भी।

अपने यहां इस क्षेत्र में भी अंधकार ही है। फिल्म उद्योग को भी कामुकता भड़काने की एक सस्ती दिशा मिल गई है। लोगों की पशुता को भड़का कर आसानी से धन और ख्याति मिल सकती है—इस मान्यता ने कलाकार को सृजन का देवता बनने से रोक दिया और वह किसी भी उचित-अनुचित तरीके से लाभ कमाने के लिए मुड़ गया। इसे राष्ट्र का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए। इससे भी अधिक कष्टकारक है, सरकार की उदासीनता। जब अन्य अपराधों को रोकने के लिए कानून बन सकते हैं और अपराधियों को दंड देने के विधान बन सकते हैं तो कला के माध्यम से लोक मानस के विकृत करने वाले कुरुचिपूर्ण दुष्प्रयोजनों को क्यों नहीं रोका जाना चाहिए, सरकार चाहे तो इस स्तर के प्रयत्नों को रोकने के लिए सामान उपलब्ध न होने देने से लेकर सेन्सर की कठोरता तक ऐसे अनेक उपाय कर सकती है, जिनसे लोक मानस को विकृत करने वाली प्रवृत्तियां रुक सकें।

सभी शक्ति साधनों की तरह कला का भी अपना ऊंचा स्थान है। शस्त्र रखने के लाइसेंस केवल संभ्रांत नागरिकों को मिलते हैं, इसी प्रकार कला का प्रयोग करने की सुविधा भी केवल सही व्यक्तियों को सही प्रयोजन के लिए मिलने दिया जाए। मनोरंजन के समस्त साधनों पर बारीकी से नजर रखी जाए कि वे विकृतियां उत्पन्न करने वाले विष बीज तो नहीं बो रहे हैं। नाटक, अभिनय, सरकस, नृत्य, संगीत एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों को खुली छूट नहीं मिलनी चाहिए। उनका शालीनता के लिए ही प्रयोग हो सके। ऐसी परिस्थितियां पैदा करनी चाहिए और सरकार को इसके लिए विशेष रूप से विवश करना चाहिए। चित्र प्रकाशन भी इन्हीं कला उद्योगों के अंतर्गत आता है। अर्ध नग्न जैसी, वैश्याओं जैसी कुरुचि पूर्ण भाव भंगिमा भरी तस्वीरों की जो बाढ़ आ रही है, उसके साथ जुड़े हुए दुष्प्रभावों को समझा जाना चाहिए और उसको रोकने का प्रयत्न किया जाना चाहिए। लाउडस्पीकरों के माध्यम से बजने वाले गंदे रिकार्ड कोमल मस्तिष्क वालों को दिनभर अवांछनीय प्रेरणा देते रहते हैं। रेडियो पर भी ऐसे ही अनुपयुक्त गीत अक्सर आते रहते हैं। सरकार चाहे तो इस प्रकार के कुरुचि पूर्ण प्रचार एक इशारे में बदल सकती है। उसे इस बात का औचित्य समझना ही चाहिए।
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