एक अनुरोध मतदाताओं से

शासनतंत्र के लिए कुछ व्यावहारिक सुझाव

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समाज संगठन का सशक्त स्वरूप अब सरकार को ही माना जाना चाहिए। कोई समय था जब अनुभवी, ईमानदार और प्रतिष्ठित व्यक्तियों को पंच बना दिया जाता था और वे सद्व्यवहार की सत्परम्पराएं चलाते रहने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहते थे। ऐसे अवसर कम ही आते थे, जिनमें सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन किया गया हो और अपराधियों को प्रताड़ना, भर्त्सना एवं क्षति पूर्ति के लिए बाध्य न होना पड़ा हो। इस प्रक्रिया में निश्चयों को कार्यान्वित करने में विलंब भी नहीं लगता था।

वादी-प्रतिवादियों के सिर पर न्याय-व्यवस्था का कोई खर्च भी नहीं पड़ता था। गवाहों की खानापूरी करने की अपेक्षा पंच लोगों की झंझटों तह तक पहुंचकर वस्तुस्थिति का पता लगा लेते थे। साक्षी मात्र प्रतिष्ठितों की, न्यायप्रिय लोगों की ही उपयुक्त मानी जाती थी। भाड़े के अप्रमाणिक व्यक्तियों की भीड़ लगाने की कोई आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी। दूर न्यायालयों में जाने का खर्च भी नहीं पड़ता था और समय भी व्यर्थ नहीं जाता था। पंचायतें सत्प्रवृत्तियों के संचालन और दुष्प्रवृत्तियों के दमन का कार्य स्वयं ही कर लेती थीं। उनके पीछे लोकमत होता था। इसलिए निर्देशनों के उल्लंघन की हिम्मत भी किसी की नहीं पड़ती थी। केन्द्रिय सरकार को हस्तक्षेप तब करना पड़ता था, जब पंचायतों के निर्णय से अधिक का कोई झंझट सामने आता था। राज्यों की सीमा-सुरक्षा की जिम्मेदारी भी वे सरकारें ही उठती थीं। उनके खर्च के लिए लोग अपने उपार्जन का छठा अंश राज्यकोष में पहुंचा देते थे।

अब वह समय नहीं रहा। पंचायतें दुर्बल हो गई। उसका कार्य सरकार को करना पड़ रहा है। शिक्षा, चिकित्सा, संचार, परिवहन आदि के लोकोपकारी कार्य भी उसी के जिम्मे हैं और अपराधियों से भी वही निपटती है। बाह्य आक्रमणों एवं आन्तरिक विग्रहों को दबाना भी उसी का काम है। अपने देश में प्रजातंत्र है। प्रजा द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि ही सरकार के छोटे-बड़े संस्थानों को चलाते हैं। अफसर और कर्मचारी निर्धारित कार्यों की पूर्ति के लिए अपना पूरा समय लगाते हैं।

शासन का स्वरूप जनता द्वारा, जनता के लिए राज्य करना है। जन प्रतिनिधि कानून एवं संविधान बनाते या नीति निर्धारित करते हैं। निर्णयों को कार्यान्वित करने का दायित्व अफसरों या कर्मचारियों का होता है इसलिए उन्हें नियुक्त करते समय मात्र उनकी शिक्षा ही नहीं, पिछले जीवन की नीतिमत्ता एवं सेवा भावना भी परखी जानी चाहिए। इन दिनों यह नियुक्तियां 21 से 25 वर्ष तक की आयु में किन्हीं विरलों में देखा गया है। अनुभवहीनों को मात्र शिक्षा के आधार पर महत्वपूर्ण पद देना गलत है। जिनका सरकार पर प्रभाव है, राजनीति के दबाव है, वे बड़ी आयु के अफसरों की नियुक्ति पर जोर दें। वे आलसी प्रमादी न हों, रिश्वतखोरी न करें। इनकी जांच पड़ताल करते रहना सरकार का अपना काम है। इन दिनों जनता में रिश्वत देने वाले और अफसरों में लेने वालों की संख्या बढ़ गई है। फलतः अनुचित कार्य होते रहते हैं और उचित मार्ग अपनाने वालों को हैरानी का सामना करना पड़ता है। यह प्रक्रिया रोकी न जा सकी, तो न्याय और नीति के पैर उखड़ जाएंगे और अनौचित्य की तूती बोलेगी। न्यायपालिका एवं कार्यपालिका की विधि ऐसी हो कि कम समय में प्रतिवेदनों का निपटारा हो जाया करे। इन दिनों निर्णयों में बहुत समय लगता है और तारीखें बार-बार आगे बढ़ती जाती रहती हैं। इसे ‘लाल फीता शाही’ कहते हैं। इस कारण सरकार से जो आशा की जाती है वह बहुत महंगी पड़ती है, फलतः संबद्ध व्यक्ति बुरी तरह खीजते हैं और विश्वास उठ जाने से कानून अपने हाथ में लेने का प्रयत्न करते हैं। इस प्रक्रिया के कारण नए किस्म के उपद्रव उठ खड़े होते हैं, मूल बात पीछे रह जाती है। शासन तंत्र बहुत महंगा हो गया है इसलिए हर क्षेत्र में टैक्सों की बढ़ोत्तरी निरंतर होती जाती है। शासन इतना खर्चीला न हो। आवश्यकता से अधिक लोग न रखे जाएं। वेतन इतना हो जितने में देश का मध्यवर्ती समाज गुजारा करता है। इन दो बातों पर ध्यान दिया जाय और कर्मचारियों की चुस्ती-फुर्ती एवं ईमान की विश्वस्त जांच-पड़ताल होती रहे, तो जनता और अफसरों के बीच जो खाई चौड़ी होती जाती है, वह न हो। इन दोनों के कारण सरकार की लोकप्रियता घटती है और जनसाधारण की देशभक्ति-भावना में कमी आती है। लोग सरकारी निर्देशनों, सुझावों, योजनाओं पर ध्यान भी नहीं देते हैं। यह स्थिति सरकारी और जनता दोनों के लिए ही अशोभनीय है।

अपराधियों को दण्ड मिलने की प्रक्रिया इतनी झंझट भरी तथा हल्की है कि उसका प्रभाव-दबाव अपराधियों पर नगण्य जितना पड़ता है। उनमें से अधिकांश कानूनी पेचीदगियों के कारण तथा गवाह न मिलने के कारण छूट जाते हैं, जमानत पर छूट जाने से वे फिर आतंक पैदा करते हैं और गवाहों को धमकाते हैं। यदि सचमुच ही अपराधों में- अपराधियों में कमी करनी है तो दंड व्यवस्था कड़ी होनी चाहिए। और पीड़ित पक्ष को गवाहियां जुटाने के दायित्व से मुक्त करना चाहिए। वस्तुस्थिति का पता सरकार और पंचायत तंत्र की किसी समन्वित समिति के हाथ सौंपा जाए, अन्यथा अपराधियों को दंड मिलना संभव न रहेगा।

कर चोरी और काले धन की वृद्धि में जहां व्यापारी दोषी हैं वहां कर लगाने व वसूल करने की वर्तमान पद्धति भी कम दोषी नहीं है। उत्पादन कर एक जगह लगा दिया जाए और हर साल का लेखा-जोखा लेने में यदि आमदनी बढ़े तो उस पर टैक्स ले लिया जाए। अनेक ऐसे तरीके हैं जिनके कारण कर चोरी और काले धन की निरंतर अभिवृद्धि होती जाती है। यदि यह दबाया हुआ पैसा खोजा जा सके, तो उससे उद्योगों की वृद्धि हो सकती है और बेरोजगारी घट सकती है।

देहाती उपयोगी की वस्तुएं कुटीर उद्योग के अंतर्गत गांवों में ही बनें। बड़े मिलों को उनकी प्रतिद्वंद्वता न करने दी जाए। सरकारी तंत्र के अन्तर्गत कच्चा माल देने, बना माल खरीदने की व्यवस्था रहे, तो लाखों बेरोजगारों को काम मिल सकता है। बेरोजगारी के कारण जो अनेकों प्रकार के विग्रह पनप रहे हैं, उनमें रोकथाम हो सकती है। शिक्षा का ऐसा क्रम बने कि जूनियर हाई स्कूल स्तर की शिक्षा को व्यापक बनाया जाए। उसको व्यक्तिगत आधार पर भी पनपने दिया जाए। जीवन में निरंतर काम आने वाले शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक विषयों का इस अनिवार्य शिक्षा में समावेश हो। इतिहास, भूगोल, रेखागणित जैसे हर एक के काम न आने वाले विषयों का परिचय मात्र एक पुस्तक में करा दिया जाए। इसी बीच गृह उद्योगों का व्यावहारिक शिक्षण भी चलता रहे। कालेज स्तर की शिक्षा को प्रोत्साहन न दिया जाए, जो विशेषज्ञ बनना चाहे, उन्हीं के लिए कालेजों के द्वार खुले रहें। नौकरी के लिए पढ़ाई का भ्रम विद्यार्थियों और अभिभावकों के मन में से निकाल दिया जाना चाहिए। विविध विषयों की रात्रि पाठशालाओं की नई व्यवस्था चले, महिलाओं के लिए मध्याह्न पाठशालाओं की। इनमें साहित्य विषय कम और व्यावहारिक विषयों की बहुलता रहे। वार्षिक परीक्षाओं की पद्धति दोष पूर्ण है, उसमें अयोग्य लड़कों के हथकंडों के आधार पर उत्तीर्ण होने की बहुत अधिक गुंजायश है। मानसिक परीक्षाएं होने लगें। मात्र पुस्तकीय ज्ञान न आंका जाए, वरन् प्रतिभा, चरित्र एवं लोकसेवा जैसे विषयों में भाग लेने की जांच पड़ताल होती रहे। इन मानसिक परीक्षाओं के अंक जोड़कर ही वार्षिक परीक्षा मान ली जाए।

भारत में समाजिक कुरीतियों की भरमार है। धर्म निरपेक्षता के नाम पर इच्छावर्ती चलते रहने की छूट न मिलनी चाहिए। समाज सुधार के कुछ कानून हिन्दू संप्रदाय के लिए ही बने हैं, जबकि दूसरे समुदाय उनसे मुक्त रखे गए हैं, यह उचित नहीं। बहुविवाह पर्दाप्रथा जैसी अनेक बुराइयां सभी वर्गों एवं सम्प्रदायों से हटाई जानी चाहिए। आरक्षण जाति विशेष को न दिया जाए। जिनकी सामाजिक या आर्थिक स्थिति सचमुच गिरी हुई है, उन सभी को आरक्षण का लाभ मिले, जबकि आजकल अनुसूचित जाति के नाम पर सुसम्पन्नों को भी वह लाभ मिलता है, जो वस्तुतः पिछड़ों को मिलना चाहिए। इन दिनों वनवासी वर्ग सचमुच ही ऐसा है, जिनको जन-सामान्य के स्तर तक लाने की विशेष चेष्टा की जानी चाहिए।

प्रौढ़ शिक्षा की ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। 70 प्रतिशत प्रौढ़ों की शिक्षा उपेक्षणीय नहीं है। पुरुषों के लिए रात्रि पाठशालाएं और महिलाओं के लिए अपराह्न शालाएं स्वयं सेवी संस्थाओं के माध्यम से चलाई जांय। इसके लिए ऐसी संस्थाओं के संगठन और संचालन के लिए शासक समुदाय अपने प्रभाव का उपयोग करके लोकसेवी संस्थाओं के निमित्त आवश्यक उत्साह पैदा करें।

बाल विवाह, बहु विवाह और बहु प्रजनन, बड़े प्रीति भोजन, भिक्षा व्यवसाय आदि के विरुद्ध कड़े कानून लागू किए जाएं। ढीले-पोले कानूनों का रहना न रहना समान है। यदि इन सामाजिक बुराइयों को सचमुच ही रोकना है, तो लोगों को नाराजगी का, वोट कटने का ध्यान रखे बिना, इन्हें कड़ाई से लागू करना चाहिए और अपराधियों को ऐसे दंड देने चाहिए जिससे दूसरों के कान खुलें।

कन्या शिक्षा के पाठ्यक्रमों में उन विषयों को जोड़ा जाय, जो उनके पारिवारिक जीवन के हर पक्ष पर प्रकाश डालते हों, साथ ही आपत्ति के समय कुछ कमा सकने जैसे गृह उद्योग भी आवश्यक रूप से पढ़ाये जाएं। इन विषयों को पढ़ाने के लिए उन विषयों को कम किया जा सकता है, जो स्कूल छोड़ते ही विस्मृत हो जाते हैं और कभी किसी काम नहीं आते।

छात्र संस्थाओं की मारफत विद्यालयों में सादा जीवन—उच्च विचार की विद्या कार्यान्वित की जाए। इन दिनों वहां के वातावरण में उच्छृंखलता के तत्व प्रवेश करते जा रहे हैं, इसे निरस्त करने के लिए अध्यापक और विद्यार्थी मिल-जुलकर काम करें।

स्वयं सेवी संगठनों की मारफत प्रौढ़ शिक्षा की ही तरह हर गांव में व्यायामशाला की स्थापना कराई जाए, जिसमें हर स्तर के बाल-वृद्धों को उनकी स्थिति के अनुरूप व्यायाम कराए जांय। इसके साथ ही स्वस्थ रहने से संबंधित सभी विषयों को संक्षिप्त समावेश हो। फर्स्ट एड, रोगी परिचर्या, धात्री कला, शिशु-पोषण जैसे विषय इन व्यायामशालाओं के साथ ही बौद्धिक शिक्षा के रूप में पढ़ाए जाएं।

प्रौढ़ शिक्षा और व्यायाम आंदोलन के लिए ऐसी पाठ्य पुस्तकें रहें, जिनमें आज के व्यक्ति, परिवार और समाज की सभी समस्याओं का स्वरूप और समाधान संक्षेप में, किन्तु सारगर्भित रूप से मौजूद हो।

देहातों में ग्रामीणों के सामने उपस्थित सभी समस्याओं के कारण और विवरण बताने वाले छोटे सिनेमाघर बनाए जाएं, जिनके टिकट स्वल्प दामों में हों। उनके लिए सस्ते दामों पर दिखाने के लिए रचनात्मक एवं सुधारात्मक फिल्में शांतिकुंज जैसी संस्थाएं बनाती रहें और उसे व्यापक रूप से छोटे-छोटे गांवों तक पहुंचाने का प्रबंध किया जाए। यह योजना सरकार हाथ में लेने के झंझट में न पड़ना चाहे, तो स्वयं सेवी संस्थाओं को यह काम सौंपा जा सकता है। देश में डाक्टरों, प्रशिक्षित नर्सों एवं इंजीनियरों की अत्यधिक आवश्यकता है। इसके लिए पांच वर्ष वाला कोर्स थोड़े से प्रतिभावान एवं सम्पन्न लोग ही पूरा कर सकते हैं। सरकार इनके डिप्लोमा कोर्स दो-दो वर्ष के बनाए और उन्हें देहाती क्षेत्रों में काम करने के लिए भेज दें। ग्राम प्रधान देशों में से कइयों ने ऐसे डिप्लोमा कोर्स जारी किए हैं।

शहरों की बढ़ती आबादी और देहातों के भगदड़- यह दोनों ही हानिकारक हैं। इसका विकल्प कस्बों को विकसित किया जाना है। कस्बों में उद्योग लगाए जाएं और आस-पास के गांव के लिए सड़कें हों, माल लाने ले जाने के लिए हल्के पहिया वाली बैलगाड़ियां बनें, तो शहरों के विकेन्द्रीकरण का काम सरलतापूर्वक चल सकता है, आज की देहाती तथा शहरी कितनी ही समस्याओं का समाधान हो सकता है।

गांवों का मल-मूत्र इर्द-गिर्द ही सड़ता रहता है, जिससे दुर्गंध तथा बीमारी तो फैलती ही है, साथ कीमती खाद का भी भारी नुकसान होता है। इसके लिए सस्ते, बिना सॉकपिट वाले पखाने, सामूहिक पाखाने, रोड़ी-कंकड़ वाले पेशाब घर जगह-जगह बनाए जाने चाहिए। कम लकड़ी से जलने वाला चूल्हा भी हर किसी को उपलब्ध हो सके—ऐसा प्रबन्ध किया जाना चाहिए। संभव हो तो हैण्ड पंप लगाने की योजना को भी सस्ता और सरकारी तंत्र के साथ जुड़ा बनाया जाए। देहाती सस्ते मकानों के लिए खपरैल बनाने की व्यवस्था भी बड़े पैमाने पर जगह-जगह की जाए। सीमेंट के ढले हुए पाए भी बन सकें तो बढ़ती आबादी के लिए घिच-पिच में सड़ने की अपेक्षा सस्ते मकानों की देश व्यापी योजना बन सकती है। इसमें लोहे के स्थान पर बांस का उपयोग हो सकता है।

राष्ट्रीय एवं स्थानीय सरकारी तंत्र के स्तर पर यह सभी सुझाव दिए जाएं और जहां जो प्रबंध बन पड़ा रहा हो, उसमें पूरा-पूरा सहयोग स्वयं सेवी संस्थाओं द्वारा सरकार को दिया जाए। शासन तंत्र के पास साधन हैं, व्यक्ति हैं, मात्र सुनियोजन का अभाव है। प्रजातंत्र में यह प्रयोग सफल न हो सका तो अन्य क्षेत्रों में क्रान्ति लाने की बात फिजूल है। हम अपने संगठन से ही इस प्रयोग का शुभारंभ करें। परिणति सुखद ही होगी।
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