एक अनुरोध मतदाताओं से

मतदाता अपनी शक्ति को पहचानें

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प्रजातंत्र को संसार के वर्तमान शासन तंत्रों में से सर्वश्रेष्ठ कहा जाए तो यह उचित ही होगा। प्रजा को अपनी मर्जी की सरकार बनाने, अपनी सुविधा की व्यवस्था करने तथा अपनी रुचि का भविष्य निर्माण करने की सुविधा हो तो यह निस्संदेह बड़े संतोष की बात है।

व्यक्ति को अपनी अभिव्यक्तियों और अभिव्यंजनाएं प्रकट करने का अवसर मिले और वह लेखनी-वाणी से लेकर भाषा एवं धर्म-कला आदि को अपनी मान्यता के अनुसार व्यवहृत कर सके ऐसी सुविधा प्रजातंत्र ही देता है। अन्य शासन तंत्रों में यह सुविधा कहां? राज्य तंत्र में राजा की और अधिनायकवाद में डिटेक्टर की मर्जी चलती है। प्रजा की इच्छाएं दबी पड़ी रहती हैं। उभरती हैं तो अभिव्यक्तिकार सहित वे कुचल दी जाती हैं। यह सुविधा प्रजातंत्र में ही है कि वर्तमान से लेकर भविष्य तक के निर्माण को प्रजा अपनी अभिरुचि और क्षमता के अनुरूप विनिर्मित कर सकने में समर्थ हो सकती है।

प्रजातंत्र यहां जनता को इतनी सुविधाएं देता है और आत्मनिर्माण का अधिकार देता है, वहां उसके ऊपर कर्त्तव्यों की जिम्मेदारी भी कम नहीं डालता। यदि प्रजाजन अपने मत का मूल्य और मतदान की जिम्मेदारी ठीक तरह न समझें तो इस बात का खतरा पूरी तरह बना रहेगा कि अवांछनीय व्यक्ति उन्हें बहका कर उनकी जेब काट लें और निर्माण का जो महान अधिकार उनके हाथ में था, उन्हें नगण्य से प्रलोभन, हेय से भावावेश तथा बाजीगर जैसे बहकावे में उलझा कर मत पत्र को झपट ले जाएं। ऐसी दशा में धूर्त व्यक्ति ही चुने जा सकेंगे और मूर्ख मतदाता सदा अपनी दुर्दशा का रोना रोता रहेगा। उसके लिए उत्तम शासन व्यवस्था एवं सुविधाजनक समाज की उपलब्धि आकाश कुसुम की तरह, मात्र कल्पना की वस्तु बनी रहेगी।

प्रजातंत्र शासन पद्धति में राष्ट्र का स्वामित्व उन नागरिकों के हाथ चला जाता है जिन्हें मतदान का अधिकार प्राप्त है। उन्हें बौद्धिक और नैतिक दृष्टि से इतना समर्थ होना चाहिए कि वे गंभीरता पूर्वक यह समझ सकें कि उन्हें न केवल अपने वरन् समस्त राष्ट्र के भाग्य को बनाने बिगाड़ने का अधिकार प्राप्त है। इस अधिकार की पवित्रता और महत्ता को जितना गहराई से सोचा जाए उतना ही यह प्रतीत होगा कि मतदाता की जिम्मेदारी प्रकारान्तर से लगभग वैसी ही है जैसी कि किसी राष्ट्र के शासनाध्यक्ष की होती है। सच तो यह है कि यह इससे भी बड़ी है, क्योंकि शासनाध्यक्ष तो केवल चुने हुए प्रतिनिधियों की मर्जी की ही व्यवस्था बना सकता है और संविधान के अनुरूप ही कुछ कदम उठा सकता है। वह भी बंधनों में बंधा रहता है इसलिए अपनी मर्जी एक सीमा तक ही चला सकता है। पर मतदाता पर इस प्रकार का अंकुश नहीं है। वह अपनी मर्जी के ऐसे प्रतिनिधि चुन सकता है जो उसकी सुविधा जैसी सरकार बनाएं। इसी प्रकार चुनाव पत्र द्वारा यह अधिकार भी उसके साथ रहता है कि अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से यदि पिछला संविधान अनुपयुक्त हो तो उसे सुधारे या बदल दे। क्रिया में भले ही शासनाध्यक्ष अधिक समर्थ हो पर शासनाध्यक्षों की नियुक्ति से लेकर नीति निर्धारण संबंधी सारी व्यवस्था का सूत्र संचालन परोक्ष रूप से मतदाता के पास ही रहता है। इस दृष्टि से प्रजातंत्र की मूल शक्ति और मूल संभावना मतदाता के हाथों में ही रहने से सर्वोपरि अधिकारी उसे ही माना जा सकता है। इस तथ्य का अनुभव जितनी गहराई से किया जाने लगेगा, उस उत्तरदायित्व को निबाहने के लिए जितनी दूरदर्शिता का परिचय दिया जा सकेगा, प्रजातंत्र से प्रजा उतनी ही अधिक लाभान्वित होगी।

जहां यह लाभ है वहां हानि भी कम नहीं है। यदि मतदाता अबोध या अनुत्तरदायी हों तो वे मतदान को मात्र खिलवाड़ समझेंगे और जिस तरह खेल-कूद में बच्चे किधर भी गेंद फेंक देते हैं या पानी उछाल देते हैं उसी तरह कभी भी अपने हाथ में आई हुई इस पवित्र धरोहर को ऐसे हाथों में सौंप देंगे जिनके द्वारा विनाश और विपत्ति का ही सृजन हो सकना सम्भव है।

यह कथा भूलने की नहीं है कि एक राजा ने रखवाली के लिए बंदर पाला और सोते समय देखभाल करने का काम सौंप दिया। राजा सोया उसकी नाक पर मक्खी बैठी, बन्दर ने पास में पड़ी तलवार उठाई और मक्खी पर चलाई। मक्खी तो उड़ गई पर राजा की नाक कट गई। नासमझी के कारण बंदर भी तिरस्कृत हुआ और राजा की नाक भी चली गई। प्रजातंत्र में मतदाता की नासमझी उपरोक्त बंदर की अज्ञानता से भी अधिक खतरनाक है। यदि वह अपना मत पत्र अवांछनीय हाथों में सौंप देने जैसी भूल कर देता है तो समझना चाहिए अपनी तिजोरी की चाबी डाकू के हाथों सौंप देने जैसी भूल कर दी गई। प्रजातंत्र की सफलता इस बात पर निर्भर है कि मतदाता राष्ट्र की समस्याओं के प्रति कितना सजग है और उन्हें सुलझा सकने के लिए अपने हाथों में उपस्थित ‘‘मतदान के अधिकार’’ का कैसी सूझ-बूझ के साथ उपयोग करता है। इस उपयोग करता है। इस उपयोग में चूक होती रहे तो फिर यही कहा जायेगा कि यह शासन पद्धति जितनी अच्छी है उतनी ही बुरी भी है। मूर्खता का लाभ धूर्तता उठाती रही है। मतदान के समय भी यही स्थिति रहे तो समझना चाहिए कि जो लोग चुने जाने वाले हैं वे राष्ट्रीय हित साधन की अपेक्षा अपना हित साधन करेंगे और उसका परिणाम समस्त समाज को भुगतना पड़ेगा। इस बुराई से बचने और बचाने के लिए मतदाता का दूरदर्शी और उत्तरदायी होना नितान्त आवश्यक है।

इससे पहले प्रजातंत्र चलाने का अवसर अपने देशवासियों को चिरकाल से नहीं मिला। प्राचीन काल की बात अलग है। कम से कम पिछली अनेक शताब्दियों से तो इस प्रकार ही शासन व्यवस्था चलाने का अधिकार प्रजा को मिला ही नहीं। सो उस तरह का न तो अभ्यास हुआ न अनुभव मिला। पाश्चात्य देशवासी बहुत दिनों से इस अधिकार का उपयोग कर रहे हैं जबकि अपने देश में थोड़े ही समय से इसका वास्तविक लाभ मिला है। फिर प्रजा अशिक्षित भी है और पिछड़ी हुई भी। इसलिए उसने शासन तंत्र चला सकने की जिम्मेदारी के प्रतीक मतदान के महत्वों और दूरगामी परिणामों को अनायास ही हृदयंगम कर लेने की आशा नहीं की जा सकती। ऐसी दशा में मत का दुरुपयोग ही हो सकता था और हो भी रहा है। फलस्वरूप प्रजातंत्र के लाभ हमें मिल नहीं पा रहे हैं। कई बार तो लोग वर्तमान शासन व्यवस्था की तुलना में पिछली विदेशी पराधीनता के दिनों को इससे अच्छा कहने लगते हैं।

आज की अस्त-व्यस्त शासन व्यवस्था तथा समाज में चल रहे आंतरिक अनेक विग्रहों का मूल कारण शासन का कौशल एवं स्तर गिरा हुआ होना ही नहीं है वरन् यह भी है कि परिस्थितियों का निर्माण कर सकने के शक्ति सूत्र ‘मतदान’ का ठीक प्रकार उपयोग नहीं किया जा रहा है। गलती यहां से आरम्भ होती है और वह वहां तक बढ़ती चली जाती है जहां हम प्रगति में अवरोध और व्यवस्था में बिखराव को देखते हुए खीज और घुटन अनुभव करते हैं।

पत्तों को सूखते, फूलों को मुरझाते देखकर हमें जड़ में पानी पहुंचाने की बात सोचनी चाहिए। प्रजातंत्र की जड़ मतदान के खेत में उगती है। यदि वहां पानी नहीं है, समझदारी तथा दूरदर्शिता का अभाव है तो सही प्रतिनिधि नहीं चुने जा सकेंगे और फिर सही शासन व्यवस्था बनेगी और न अनुकूलता की अभीष्ट परिस्थितियां उत्पन्न होंगी। गतिरोध के केन्द्र बिंदु को समझा जाना चाहिए और अनुभव किया जाना चाहिए कि प्रजातंत्र का- प्रजातंत्री देश का असली मालिक मतदाता है। इसे प्रशिक्षित करने, वोट का उपयोग कर सकने लायक समझदार बनाने के लिए घनघोर प्रयत्न करना उन सबका कर्त्तव्य है जो देश को सुखी, समुन्नत एवं सुविकसित देखना चाहते हैं। मालिक की समझदारी पर घर-परिवार की सुव्यवस्था निर्भर रहती है और वोटर की समझदारी पर प्रजातंत्री देशों की प्रगति। इस तथ्य को जितनी जल्दी समझा लिया जाए उतना ही अच्छा है।
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