एक अनुरोध मतदाताओं से

प्रजातंत्र की सफलता वोटरों के परिष्कृत दृष्टिकोण पर निर्भर है

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प्रजातंत्री देश के हर नागरिक के मन में यह महत्व और गौरव जगाया जाना चाहिए कि वस्तुतः वही अपने देश-राष्ट्र का भाग्य निर्माण कर्त्ता है। उसके हाथ में मतदान का ऐसा अस्त्र है जिसके सदुपयोग और दुरुपयोग पर देश की प्रगति एवं अवनति की आधार शिला रखी जाती है। वोट को खिलवाड़ समझना अपने नागरिक कर्त्तव्य एवं उत्तरदायित्व की गरिमा को अस्वीकार करना है। इसे राष्ट्र की बहुमूल्य थाती समझना चाहिए जिस केवल सत्पात्रों के हाथ में ही स्थानान्तरित किया जाना उपयुक्त है। किसी दुराचारी-अनाचारी के हाथ में सत्ता चले जाने पर उसका दंड सारे समाज को भुगतना पड़ता है और उसका दोष उस अविवेक के ऊपर आता है जिससे वोट देते समय तुच्छ स्वार्थों को ही ध्यान में रखा गया और राष्ट्रीय भविष्य की चिंता को उपेक्षा में डाल दिया गया।

राष्ट्रीय चिंतन के केंद्र बिंदु वोटर की मनःस्थिति को ऊंचा करने का प्रयास होना चाहिए। हमें जड़ सींचनी चाहिए और पत्तों की स्थिति पर उतनी उधेड़बुन नहीं करनी चाहिए। सरकार के किन्हीं क्रिया कलापों पर विरोध करने से क्या काम चलेगा? प्रश्न तो पूरे सरकारी तंत्र का ही है। उसके लिए किन्हीं व्यक्तियों को, चुने हुए प्रतिनिधियों को दोष देना भी बेकार है। जनता की मनःस्थिति जब तक ऊंची नहीं उठेगी, ऊंचे व्यक्तियों का वहां तक पहुंचना संभव ही नहीं हो सकता। अच्छे लोग केवल उसी क्षेत्र में चुने जा सकते हैं जहां वोटरों का दृष्टिकोण परिष्कृत है। सरकार के किसी क्रिया कलाप पर अफसर—अधिकारी से झगड़ना काफी न होगा। एक विरोध सुलझ नहीं पाएगा तब तक दूसरी नई बात सामने आ जाएगी। ऐसे एक-एक बात को लेकर, एक-एक व्यक्ति को लेकर झगड़ते रहा जाए तो उस उखाड़-पछाड़ का कभी अन्त ही न होगा। उस प्रकार के आन्दोलनों से कोई छुट-पुट सामयिक समस्याएं ही सरल या हल हो सकती हैं, मूल प्रयोजन हल नहीं हो सकता। सरकारी मशीन की उत्कृष्टता शासन तंत्र के संचालकों पर निर्भर है। वे अपने पद, स्वार्थ, लाभ की बात को आगे रखकर शासन न चलाएं तो सरकारी मशीनरी को झक मारकर भलमनसाहत की राह देखनी पड़ेगी। भ्रष्टता नीचे से ऊपर को भी चलती और ऊपर से नीचे को भी। नीचे से ऊपर तब चलती है जब वोटर ओछे कामों को प्रमुखता देकर, ओछे व्यक्तियों को वोट देता है और यह नीचे स्तर का ओछापन ऊपर तक चला जाता है। इस आधार पर चुनी हुई सरकार ठीक उसी प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व करती है जैसा कि वोटर था। ऊपर से नीचे भ्रष्टाचार इसलिए चलता है कि जब संचालकों को भ्रष्ट तरीके अपनाते हुए नीचे के अफसर प्रत्यक्ष देख लेते हैं तो उन्हें उसी राह पर चलने पर कोई झिझक, लज्जा, संकोच करने का कारण प्रतीत नहीं होता। सत्ताधारी अपना स्वार्थ अफसरों के माध्यम से करते हैं और वे अफसर फिर ऊपर वालों की कमजोरी का लाभ उठाकर स्वच्छन्द अनाचार करने में और भी आगे निकल जाते हैं। भ्रष्टाचार में बहुत करके ऐसा ही क्रम चलता है। यों अपवाद भी होते हैं। श्रेष्ठ संचालकों की गैर जानकारी में नीचे का भ्रष्टाचार भी पनप सकता है और उसमें सत्ताधारी निर्दोष भी हो सकता है। पर अधिकतर मिलीभगत से ही तालमेल बैठता है। सरकारी मशीन में भ्रष्टाचार की ऊपर से नीचे तक श्रृंखला पाई जाती है। परस्पर बंटवारे से भी वह अवांछनीय धन डाकुओं के बंटवारे की तरह हर एक के हिस्से में बंटता रहता है।

इस स्थिति में सुधार तो सरकार में उच्च स्तरीय आदर्शवादिता का समावेश होने से ही संभव है। इसराइल, क्यूबा जैसे छोटे-छोटे देश यह आदर्श प्रस्तुत कर रहे हैं तो वहां सरकारी मशीन में कहीं छिद्र नहीं मिलेंगे। जिन दिनों ब्रिटिश सरकार ने आरम्भ में ही कांग्रेस के हाथों में सत्ता सौंपी थी उन दिनों सारा शासनतंत्र हिल गया था और भ्रष्टाचारी दहल गए थे, सन्न रह गए थे। यदि वह स्थिति यथावत बनी रहती तो आज हमारा स्वरूप कुछ और ही रहता। सरकारी मशीन की ईमानदारी—तत्परता हमें अब तक न जाने कितना ऊंचा उठाने में सफल हो गई होती। साधन प्रचुर, योजनाएं सुन्दर फिर भी बात कुछ बन नहीं पाती, इसका दोष किसे दिया जाए? मक्खी-मच्छरों पर हमला करना बेकार है। किसी अफसर, अधिकारी, मंत्री या सरकार पर लांछन लगाना बेमतलब है। दोष का मूल ढूंढ़ना चाहिए और यदि मक्खी-मच्छर का काटना बुरा लगता है तो हमें कीचड़ साफ करनी चाहिए। कीचड़ साफ करने का मतलब है वोटरों की अदूरदर्शिता को निरस्त करना। राष्ट्र का भविष्य निश्चित रूप से इस बात पर ही निर्भर है कि वोटर अपने उत्तरदायित्व को किस हद तक समझने लगा और उसका सहयोग या साहस किस हद तक जागृत हो गया। प्रजा तंत्रीय शासन का असली मालिक और असली सृष्टा वोटर ही तो है। यदि वह गई-गुजरी मनःस्थिति में पड़ा रहेगा तो फिर शासन के स्वरूप में उत्कृष्टता का समावेश कैसे संभव होगा?

आमतौर से एक राजनीतिज्ञ पार्टी दूसरे पर आरोप लगाती रहती है। अपने को अच्छा और दूसरे को खराब बताने की, सिद्ध करने की चेष्टा खूब होती है और परस्पर कीचड़ उछालने का सिलसिला निरन्तर चलता है। जिस पार्टी की सरकार होती है प्रस्तुत क्रियाकलापों का उत्तरदायित्व उसी का होता है, सो जहां गड़बड़ी उत्पन्न हो वहां निंदा करने का अवसर भी मिल जाता है, सो जहां गड़बड़ी उत्पन्न हो वहां निंदा करने का अवसर भी मिल जाता है और इस प्रकार आलोचना—प्रत्यालोचना होती भी खूब हैं। प्रस्तुत शासन तंत्र की आलोचना—निंदा इस आधार पर होती ही रहती है। अपना चिंतन इससे भिन्न है। हम इन आलोचनाओं को दूसरों पर छोड़ देते हैं।

इस लेख का प्रयोजन वोटरों की मनःस्थिति को परिष्कृत करना है, सत्ताधारियों की आलोचना या उन पर आक्षेप लगाना नहीं। वस्तुतः उनका कसूर भी बहुत नहीं है। दूध से ही तो उभर कर मलाई ऊपर आती है। जैसा दूध होगा वैसी ही मलाई होगी। जैसी फूल की गंध होगी उसी के अनुरूप तो इत्र बनेगा। जनता की मनःस्थिति की तुलना दूध और फूल से करनी चाहिए और चुने हुए प्रतिनिधियों को मलाई या इत्र कहना चाहिए। इत्र को गाली देना बेकार है। आपको जैसी सुगंध पसंद है उसी तरह के फूल इकट्ठे कीजिए। इत्र आपकी नापसंदगी का प्रस्तुत हो जायेगा। वोटर का दृष्टिकोण यदि ऊंचा है तो कोई कारण नहीं कि किसी सरकार में उत्कृष्ट व्यक्ति न भरे हुए हों और जब आदर्शवादी तंत्र शासन चला रहा होगा तो कोई कारण नहीं कि सरकारी मशीन का सुधार या पुनःनिर्माण न हो सके। यदि सरकारी कर्मचारी सही रीति से काम करते हैं तो कोई कारण नहीं कि प्रस्तुत राज्य व्यवस्था जनता की प्रगति एवं सुविधा में सहायक सिद्ध न हो।

बात घूम फिर कर वहीं आ जाती है। नींव पोली रहेगी तो दीवार फटेगी। जमीन में खार होगा तो वहां उगे हुए फलों में स्वादिष्टता नहीं हो सकती। वोटर घटिया ही बने रहें और शासन अच्छा बन जाए यह कैसे संभव हो सकता है? प्रजातंत्र में यह संभव नहीं। यदि अधिनायकवाद हो, जिसमें जन साधारण के हाथ से शासन चलाने का उत्तरदायित्व छीन लिया जाता है और सर्वसाधारण को कठपुतली की तरह चलाने के लिए एक व्यक्ति या एक गिरोह सारी सत्ता अपने हाथ में केन्द्रित कर लेता है, प्रजा को तब अपने समस्त मौलिक अधिकारों से वंचित होकर गड़रिए के निर्देश पर चलने वाली भेड़ों की तरह शासन के संकेतों का अनुसरण करना पड़ता है।

प्रबुद्ध प्रजा द्वारा सुनियोजित प्रजातंत्र ही अपना आदर्श और उद्देश्य पूर्ण कर सकता है। यदि प्रजा अपनी जिम्मेदारियों को नहीं समझती और उसका पालन ठीक तरह नहीं करती तो इस अनाड़ीपन का परिणाम देश में अव्यवस्था, अशांति और अराजकता जैसी विभीषिकाओं के साथ सामने आ उपस्थित होता है। तब अनाचार, भ्रष्टाचार, अपराध, आपाधापी की अनेक दुष्प्रवृत्तियां वैयक्तिक और सामाजिक क्षेत्र में उमड़ पड़ती हैं, और लोगों को यह कहना पड़ता है कि प्रजातंत्र में मूर्खों का शासन होता है। ऐसी अवांछनीय स्थिति उत्पन्न हो जाने पर विद्रोह उस शासन प्रणाली को ही उखाड़ कर फेंक देता है और एक या दूसरे तरह का अधिनायकवाद उसका स्थान ग्रहण कर लेता है। हमें भलीभांति इस खतरे से परिचित होना चाहिए कि यदि वोटर का दृष्टिकोण परिष्कृत न किया गया, यदि उसे वोट देने का उत्तरदायित्व समझाया न जा सका और ऐसे ही मत पत्रों के साथ मखौल की जाती रही तो उसकी प्रतिक्रिया ऐसे अधिनायकवाद के रूप में आ सकती है जिससे वोट देने का अधिकार वास्तविक रूप से लगभग चला ही जाता है, लकीर पिटती रहती है। जनता को अपनी अभिव्यक्ति घुमा-फिरा कर सरकार के इच्छा अनुरूप ही व्यक्त करनी पड़ती है। यदि देर सवेर से यही स्थिति अपने देश में लानी हो तो ही वोटर के पिछड़ेपन को अछूता पड़े रहना चाहिए, अन्यथा यह सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है। इसे उसकी गरिमा के अनुरूप ही प्रमुखता देनी चाहिए।

यों सभी वोटर एक से नहीं होते। विचारशील वर्ग जितना इस देश में है उसी अनुपात में वोटर भी कर्त्तव्य परायण और दूरदर्शी हैं। पर यह बात अधिकांश पर लागू नहीं होती। इसमें कसूर उन वोटरों का भी नहीं, उस अशिक्षा का, यातायात के साधनों से रहित देहात के पिछड़ेपन का है जिसने मतदाता को प्रजातंत्र और मतदान के स्वरूप एवं उत्तरदायित्व को समझने से वंचित रखा। उस पिछड़ेपन की स्थिति में भी आवश्यक प्रकाश न पहुंचाने का कसूर उच्च वर्ग के हम लोगों का है जो यदि सच्चे मन से चाहते—पूरा ध्यान देते तो इस स्थिति में भी मतदाता में इस संदर्भ में आवश्यक जागरूकता उत्पन्न करने में बहुत हद तक सफल हो सकते थे।

भूल करते देर हो गई, अब उसे सुधारा और संभाला जाना चाहिए। विवेकशील व्यक्तियों को इसके लिए तत्पर होना चाहिए कि जहां तक पहुंच हो मतदाताओं को प्रजातंत्र का स्वरूप और उसके कर्त्तव्य- उत्तरदायित्व को समझाने का प्रयत्न करें। इसके लिए लेखनी, वाणी, विचार विनिमय के जितने भी तरीके काम में लाए जा सकते हो उन समस्त श्रव्य और दृश्य साधनों का प्रयोग किया जाना चाहिए। ‘‘अपने मालिकों को जगाओ और समझाओ’’ आंदोलन में प्रत्येक विचारशील व्यक्ति को परिपूर्ण उत्साह के साथ भाग लेना चाहिए क्योंकि अपने प्रजातंत्रीय देश का भाग्य-भविष्य पूरी तरह इस अभिनव चेतना के अभिवर्धन पर ही निर्भर है।
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