एक अनुरोध मतदाताओं से

राजनीति का आधार धर्मनीति ही बने

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काश! आज की दुनियां का नेतृत्व किन्हीं महापुरुषों के हाथ होता रहा होता, काश गांधी, ईसा, बुद्ध, सुकरात, कन्फ्यूशियस सरीखी आत्माओं के हाथों शासनाध्यक्षों का कार्य संचालित हुआ होता तो दुनियां आज की स्थिति में पड़ी न रहकर स्वर्ग बन गई होती। काश! राजनीति ने कूट नीति (धूर्तता) का रूप छोड़कर धर्मनीति बनना स्वीकार किया होता तो आज सर्वत्र शांति, प्रेम और आनन्द की ही निर्झरणी बह रही है, पर चरित्र बल घट रहा है। संसार में शासन तंत्र अधिक शक्तिशाली बनते चले जा रहे हैं। पर उनकी वह विशेषता घट रही है जिसके प्रभा से जन मानस में प्रेरणा और आशा का संचार होता है। आज जबकि जन जीवन के सारे साधन राजनीति के प्रभाव क्षेत्र में चले जा रहे हैं तो यह आवश्यक है कि उसके नेता और संचालकों का व्यक्तित्व, चरित्र एवं भावना स्तर इतना ऊंचा हो कि दंड भय से नहीं श्रद्धा से अनवरत होकर लोग उनका अनुसरण करने लग जांय। इसी से जन-जीवन में सच्ची प्रगति का संचार हो सकता है। यदि यह क्षेत्र दुर्बल बना रहा, बिल्ली के गले में घंटी न बंध सकी तो भ्रष्टाचार की स्थिति ज्यों की त्यों बनी रहेगी और सरकार जनता का कसूर बताती रहेगी। समस्या जहां की तहां उलझी पड़ी रहेगी। अनीति को रोकना और साधनों को बढ़ाना शासन का कार्य है। सबको समान अवसर तथा समान न्याय प्राप्त हो ऐसी स्थिति उत्पन्न करना राजकीय उत्तरदायित्व माना गया है। इन उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए राज्य कर्मचारियों को न्याय और कानून के प्रति नितान्त निष्ठावान, निर्लोभ, निष्पक्ष एवं कर्तव्य परायण होना चाहिए। कानून तो पुस्तकों में बन्द रहते हैं। उनका पालन करना और कराना राज्य कर्मचारियों का काम है। उनका चरित्रवान होना ही प्रजा की सुख-शांति की गारंटी हो सकती है। यदि एक शासक वर्ग अपने कर्त्तव्यों और उत्तरदायित्वों की अपेक्षा करेगा तो प्रजा का न्याय पर से विश्वास उठ जाएगा और हर क्षेत्र में अनीति पनपेगी तथा अधिकारियों को अपने पक्ष में करके दुष्ट लोग जनता को संत्रस्त करेंगे। अपराधों की रोकथाम के समस्त उपाय एक ओर और राज्य कर्मचारियों की कर्त्तव्य परायणता एक ओर रखकर तोला जाय तो राज्य कर्मचारियों की ईमानदारी ही अधिक महत्वपूर्ण सिद्ध होगी। इसके अभाव में नाना प्रकार की योजनाएं बनती-बिगड़ती रह सकती हैं पर जनहित का, समस्या का ठीक समाधान न हो सकेगा।

बहुत समय से अनेक विचारशील विद्वान यह बताते रहे हैं कि सुरक्षा की समस्या को हल करने के लिए राष्ट्रीय चरित्र की ही सबसे अधिक आवश्यकता है। पड़ौसी देशों के आक्रमणकारी इरादों को असफल करने के लिए जहां सुशिक्षित सेना और हथियारों की आवश्यकता है वहीं देशभक्ति, स्वाभिमान, दृढ़ता, त्याग भावना, उच्च चरित्र की भी नितांत आवश्यकता है। शक्ति का वास्तविक स्रोत भावनाओं की प्रबलता, दृढ़ संकल्प, आदर्श निष्ठा और उच्च चरित्र में सन्निहित रहता है। भूतकाल में इन्हीं गुणों की कमी से हमें विदेशी आक्रमणों का शिकार होकर परास्त होना पड़ा है। यदि इन दोषों को सुधार लिया जाए तो भारत का प्रत्येक नागरिक टैंकों, तोपों और जहाजों की शक्ति से भी अधिक शक्तिशाली सिद्ध हो सकता है और उसके आगे पड़ौसी देश बेचारा तो क्या, संसार की समस्त युद्ध शक्तियां इकट्ठी होकर भी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं। सुरक्षा के लिए इसी सच्ची शक्ति का जागरण अभीष्ट है।

सरकार के सामने अनेकों रचनात्मक काम करने को पड़े हैं। उनकी सफलता इस बात पर निर्भर रहेगी कि राज्य कर्मचारी कितनी ईमानदारी से उन्हें कार्यान्वित करते हैं। देशभक्ति, लोकहित और सामूहिकता की भावना यदि जनमानस में जागृत रहेगी तो उन सरकारी योजनाओं को प्रजा का आवश्यक सहयोग एवं समर्थन मिल सकेगा। यदि लोगों के मनों में सीमित स्वार्थ ही समाया रहे तो अपने मतलब से मतलब की बात के अतिरिक्त और कुछ कोई सुनना-समझना ही नहीं चाहेगा, तब राष्ट्र की प्रगति कैसे संभव होगी? नागरिक कर्त्तव्यों का पालन करने की इच्छा यदि लोगों में न हो तो सरकारी योजनाओं को, राष्ट्रीय संपत्ति को क्षति पहुंचाने वाले कार्य ही होते रहेंगे। सरकार कितने ही अच्छे कार्य करना चाहती है, उनके लिए योजनाएं बनाती है और खर्च भी करती है पर जन सहयोग के अभाव में स्वप्न साकार नहीं हो पाते। एक हाथ से ताली नहीं बजती। केवल शासन के द्वारा ही सब कुछ नहीं हो सकता। बुराइयों को दूर करने और अच्छाइयों को बढ़ाने के लिए जन सहयोग भी चाहिए। यह सहयोग कर्त्तव्यनिष्ठ, देशभक्त और नागरिक उत्तरदायित्वों को समझने वाले लोग ही कर सकते हैं। जिन लोगों में यह भावना विकसित नहीं हो पाई उनकी गणना नर पशुओं में ही की जा सकती है और वे केवल सरकारी प्रयत्नों से ही प्रगतिशील नहीं बन सकते। आर्थिक अनुदान या अन्य साधन-सामग्री की जन कल्याण के लिए जितनी आवश्यकता है उससे असंख्य गुनी आवश्यकता इस बात की है कि जनमानस में कर्त्तव्य के प्रति, समाज के प्रति निष्ठा उत्पन्न हो। यदि यह भावात्मक विकास न हो सका तो बाहरी विकास योजनाओं का भविष्य उज्ज्वल नहीं हो सकता।

राजनीति आज की प्रचंड शक्ति है जो गुमराह हो सकती और गुमराह कर भी सकती है। आज ऐसा ही कुछ हो भी रहा है। अतः इस पर नीति और धर्म का नियंत्रण रहना चाहिए, अंकुश होना चाहिए। प्रजा और शासकों में चरित्र के प्रति जितनी गहरी आस्था होगी उतना ही इस शक्ति का ठीक उपयोग हो सकेगा और उसी आधार पर हमारी सुरक्षा, समृद्धि, प्रगति एवं शान्ति का मार्ग प्रशस्त होगा। यह तभी संभव हो सकेगा जबकि धर्मनीति को राजनीति का आधार बनाया जाए। धर्म का सीधा संबंध मानवीय कर्त्तव्यों से है और इसे इसी अर्थ में समझा जाए।
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