एक अनुरोध मतदाताओं से

आंदोलन नहीं, मतदाता ही वास्तविक सुधार ला सकते हैं

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प्रगति की इन शताब्दियों में जो परिस्थितियों बदलती चली गई हैं उसने शासन के हाथों अपरिमित सत्ता सौंप दी है। अधिनायकवादी दशा में तो व्यक्ति मात्र एक मशीन बनकर रह गया है और आर्थिक ही नहीं बौद्धिक उपार्जन तथा उपभोग तक के सारे सूत्र शासन के हाथों चले गए हैं। वह करने के लिए ही नहीं, सोचने के लिए भी विवश है। शासन जैसा चाहता है वैसा उसे करना ही नहीं, ढलना भी पड़ता है। प्रजातंत्री देशों में व्यक्तिगत स्वतंत्रता के उपयोग की छूट काफी रहती है फिर भी शासन की सामर्थ्य और परिधि में निरंतर वृद्धि ही होती चली जाती है।

शिक्षातंत्र पूर्णतया सरकार के हाथ में है। वह चाहे जैसी शिक्षा पद्धति बना सकती है और उससे भावी पीढ़ियों के चिंतन तथा कर्तृत्व का निर्माण कर सकती है। अर्थतंत्र धीरे-धीरे उसी के हाथों में सिमटता जाता है। उत्पादन टैक्स, इनकम टैक्स, बिक्री टैक्स, अन्य टैक्स, प्रतिबंध, आयात-निर्यात, मुद्रा विस्तार आदि कितने ही सूत्र ऐसे हैं जिनसे व्यक्ति की आजीविका और निर्वाह सुविधा पर सीधा असर पड़ता है। वस्तुओं का महंगा-सस्ता होना उद्योग और व्यवसाय का सिकुड़ना-फैलना बहुत कुछ शासकीय अर्थनीति पर निर्भर रहता है। सामाजिक परिस्थितियां जिनमें अपराधों से लेकर परम्पराओं तक, भाषा से लेकर साहित्य एवं फिल्म जैसे प्रभावशाली क्षेत्रों तक की गतिविधियों को शासन ही निर्धारित और नियंत्रित करता है। विस्तार से चर्चा करने के स्थान पर इतना जान लेना ही पर्याप्त होगा कि धीरे-धीरे जीवनयापन और परिस्थितियों का सारा सूत्र राज्य सत्ता के हाथों में ही चला जा रहा है। भविष्य में शासन का प्रभाव और अधिकार क्षेत्र घटने वाला नहीं, बढ़ने ही वाला है।

व्यक्तिगत जीवन के आंतरिक और बाह्य स्वरूप का निर्धारण करने में अब भी शासन की भूमिका अद्भुत है। आगे वह और भी अधिक प्रभाव उत्पन्न करेगी। सामाजिक परिस्थितियों, लोक चिंतन, जन कर्तव्य एवं दिशा निर्धारण में शासन की मर्जी बहुत प्रभावशाली सिद्ध होगी। रेडियो सीधा सरकार के नियंत्रण में है। अखबारों पर परोक्ष नियंत्रण रहता है। साहित्य की जिस दिशा को भी चाहें ऋण—अनुदान आदि की सुविधा देकर आगे बढ़ा जा सकता है। निरुत्साहित करने के तो हजार तरीके उसके हाथ में हैं जिनसे चाहे तो चिंतन की उन दिशाओं को निरुत्साहित कर सकता है जो अनुपयुक्त हैं। फिल्म जैसे प्रभावशाली कला माध्यम उसका इशारा पाते ही कठपुतली की तरह इस प्रकार नाचना छोड़कर उस तरह नाचना आरंभ कर सकते हैं। अन्य देशों से संबंध और उनके प्रभाव, सुरक्षा के प्रश्न आदि के परिणाम किसी देश के लिए कम महत्व के नहीं हो सकते। यह सब महत्वपूर्ण बातें सरकारी नियंत्रण में चली गईं हैं या धीरे-धीरे चली जाएंगी। निस्संदेह शासन का महत्व अधिकाधिक होता जाएगा और जन साधारण को क्रमशः हर बात में उस पर निर्भर रहना पड़ जाएगा। व्यक्तिगत रूप से भी कुछ तो किया ही जा सकता है पर जो कुछ प्रभावशाली कदम उठाये जायेंगे उनमें शासन का सहयोग आवश्यक होगा। अन्यथा व्यक्तिगत प्रयत्न जीवित भर रहेगा, प्रतिरोधों से बचाव और प्रगति के प्रोत्साहन की जब तक अनुकूलता न होगी कुछ अधिक काम न बन सकेगा।

शासन सुधार के लिए भी कई तरह के प्रयोग और आन्दोलन चलते रहते हैं, और उनका कुछ न कुछ लाभ—उपयोग होता ही है पर वे उपयोग परिवर्तन नहीं ला सकते, मात्र हलचल पैदा कर सकते हैं और तुक बैठ जाए तो कुछ छुटपुट सुधार भी करा सकते हैं। उससे आगे की उनकी पहुंच नहीं है। अखबारों में लेख, सभाओं में भाषण और प्रस्ताव, हस्ताक्षर, आन्दोलन, विरोध प्रदर्शन अनशन, सत्याग्रह जैसे क्रिया कलाप, जनता की ओर से विविध संस्थानों—संगठनों द्वारा समय-समय पर काम में लाए जाते रहते हैं। पर देखा गया है कि उनका प्रभाव स्वल्प ही होता है। सरकार की शक्ति और मशीन इतनी मजबूत है कि छुट-पुट आंदोलन बनाले तो फिर उस विरोध को कम से कम तत्काल तो असफल कर सकती है। लाठी, गोली, गिरफ्तारी ही नहीं, प्रलोभन, फूट और गुप्तचरी के माध्यम से उन प्रयोगों को बिखेर भी सकती है। दूरगामी परिणाम जो भी हों सरकार के पास इतनी शक्ति तो रहती है कि तत्काल तो किसी आंदोलन को अस्त-व्यस्त कर ही दे। सुधार के लिए आन्दोलन का महत्व कम नहीं किया जा रहा है। बात केवल यह कही जा रही है कि शासन में जिस मूल स्रोत से विकृतियां उत्पन्न होती हैं यदि उसे गहराई तक न समझा गया और परिवर्तन के केन्द्र बिन्दु की ओर ध्यान न दिया गया तो स्वच्छ और श्रेष्ठ शासन न मिल सकेगा और उसके बिना अति महत्व की समस्याओं के समाधान तथा अवरोधों का निराकरण संभव न हो सकेगा। कहा जा चुका है कि प्रजातंत्र का मूल है—वोटर का मतदान। शासन का स्वरूप यहीं से निर्धारित होता है। आधार जैसा होगा स्वरूप वैसा ही बनेगा। चिकनी मिट्टी और बालू—रेत के बने खिलौनों में अन्तर रहेगा ही। बाजरे की और गेहूं की रोटी का स्वाद एक जैसा नहीं हो सकता। कपास और रेशम के बने वस्त्रों के अन्तर प्रत्यक्ष दीखते रहेंगे। वोटर जिस स्तर के होंगे प्रतिनिधि उसी स्तर के चुने जाएंगे और फिर निर्वाचितों की मनोवृत्ति तथा चरित्रनिष्ठा पर शासन का स्वरूप निर्धारित होगा और उस स्वरूप के आधार पर वे परिस्थितियां बनेंगी जो जन साधारण को प्रभावित करती हैं। सुधारों का मूल केन्द्र यही है। बिगाड़ भी यहीं से आरम्भ होता है। वोटरों में यदि वोट के स्वरूप, उत्तरदायित्व और परिणाम के बारे में दूरदर्शिता पूर्ण दृष्टिकोण विकसित न हो सका तो गुड़ गोबर ही होता रहेगा। बालू में से तेल निकालने की तरह अन्य सारा सुधारात्मक प्रयोग—प्रयोजन एक प्रकार से निरर्थक ही सिद्ध होता रहेगा।

‘हमें अपने मालिकों को शिक्षित करना चाहिए’ आंदोलन के अंतर्गत प्रत्येक विचारशील, बुद्धिजीवी, देशभक्त और परिवर्तन को इस एक केन्द्र पर केन्द्रीभूत होना चाहिए कि वोटर को उसे उपलब्ध वोट की पवित्रता तथा महत्ता को समझाएंगे और उस प्रक्रिया को उस हद तक पहुंचाएंगे कि जाति-बिरादरी के नाम पर, नशा, सवारी, मिठाई, खुशामद जैसे प्रलोभनों के नाम पर, बड़े लोगों को बगल से लेकर उनके द्वारा मतदाताओं की घसीट लाने के नाम पर अब तक जिन लोगों को चुनाव में सफलता मिलती रही अब उन्हें न मिलेगी। व्यक्तिगत एवं क्षेत्रीय सुविधा की मांग कोई वोटर न करेगा और न अनुचित सिफारिश कराके कोई किसी से अनुचित कार्य कराना चाहिए। इन प्रलोभनों को त्यागकर मतदाताओं को एक नैतिक शक्ति के रूप में उभारना होगा और जो व्यक्ति चरित्र, भावना, योग्यता एवं समाज निष्ठा की दृष्टि से हर कसौटी पर खरे उतरते हैं, उन्हें ही वोट देना होगा। प्रलोभन, बहकावा एवं आतंक से मुक्त होकर वोट देने का निश्चय यदि जनता करले तो समझा जाना चाहिए कि आए दिन शासन की जो शिकायत करनी पड़ती है, उसका चिरस्थाई अंत हो गया।

आज तो लाख खर्च करके दस लाख कमाने का जुआ खेलने वाले ही इस क्षेत्र में उतरने की हिम्मत करते हैं। चुनाव लड़ने और जीतने का साहस ईमानदार और गरीब लोग कहां कर पाते हैं। उनके पास सम्पन्न लोगों जैसे साधन कहां हैं जिनसे भ्रष्ट वोटरों को बरगलाना संभव हो सके। इस स्थिति को बदलने के लिए एक मात्र तरीका यही है कि चुनाव में खड़े होने वाले पर खर्च का कोई भार न पड़ने दिया जाए। कुछ पड़ता हो तो उसे वोटर ही मिल-जुलकर पूरा करें अन्यथा प्रतिनिधि इतना खर्च जेब में से करने के बाद ईमानदार कैसे रह सकेंगे? जिसे वोट दिया जाना है उसके चरित्र, विचार और निर्धारण हो हजार बार हर कसौटी पर परखने के बाद ही वोट देने के लिए यदि मतदाता तैयार हो सके तो निस्संदेह एक ऐसी राजक्रान्ति उत्पन्न हो सकती है जिसके अंतर्गत स्वच्छ और श्रेष्ठ शासन से सर्वसाधारण को लाभान्वित होने का अवसर मिल सके और प्रजातंत्र की उपयोगिता खरी सिद्ध होती रह सके।
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