एक अनुरोध मतदाताओं से

लोकतंत्र की रक्षा के लिए सुझाव

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प्रजा तंत्र की सफलता का आधार मतदाता की देश भक्ति और दूरदर्शिता पर निर्भर रहता है। यह तत्व जनमानस में जितने अधिक विकसित होंगे उसी अनुपात में ये शासन तंत्र संभालने के लिए अधिक उपयुक्त व्यक्ति चुनने में सफल हो सकेंगे। श्रेष्ठ व्यक्तित्व ही किसी महत्वपूर्ण काम को ठीक तरह सम्भालने में समर्थ हो सकते हैं। अधिक सही, अधिक योग्य और अधिक सुयोग्य हाथों में शासन तंत्र रहे तो प्रजा जन उस सरकार के अंतर्गत सुख-शान्ति और प्रगति का लाभ प्राप्त करेंगे। इसके विपरीत यदि अवांछनीय तत्वों ने शासन पर कब्जा कर लिया तो वे उसका उपयोग व्यक्तिगत स्वार्थों के लिए, अपने गुट के लिए करेंगे और उस दुरुपयोग के कारण जो अवांछनीय श्रृंखला बढ़ेगी उसकी चपेट में सरकारी कर्मचारी भी आवेंगे। उनका स्तर भी गिरेगा और इस गिरावट का अंतिम दुष्परिणाम जनता को ही भोगना पड़ेगा। इसलिए जहां भी प्रजातंत्री शासन हो वहां सबसे प्रथम आवश्यकता इस बात की पड़ती है कि वहां का वोटर इतना सुयोग्य बन जाए कि अपने वोट का राष्ट्र के भविष्य को बनाने-बिगाड़ने की चाबी के रूप में, राष्ट्रीय पवित्र धरोहर के रूप में केवल उचित आधार पर ही उपयोग करे।

दुर्भाग्यवश अपने देश में ऐसा न हो सकेगा। यहां निरक्षरता का साम्राज्य है। 1991 की जनगणना के अनुसार केवल 52% पढ़े-लिखे लोग हैं। इनमें से अधिकांश ऐसे हैं जो अपने जीवन निर्वाह के लिए जितना आवश्यक है उतना ही लिखना-पढ़ना याद रखते हैं। विचारशीलता बढ़ाने या व्यक्ति-समाज की समस्याएं सोचने-सुलझाने वाला साहित्य पढ़ने की न उन्हें रुचि होती है न वैसी सामग्री मिलती है। हिसाब-किताब, चिट्ठी, नौकरी, धंधा भर के लिए लोग पढ़ने-लिखने की आवश्यकता समझते हैं। इसके बाद पढ़ना हुआ तो घटिया मनोरंजन करने वाली पुस्तकें या पत्रिकाएं जो आसानी से मिल जाती हैं, पढ़ लीं। इससे आगे की दिशा निर्धारण करने वाला साहित्य तो इन पढ़े-लिखों को तीन चौथाई को नहीं मिलता, फिर अशिक्षितों को उसकी सुविधा कैसे मिले? जनता की विचार शक्ति बढ़ाने के लिए शिक्षा की विशेषतया प्रौढ़ शिक्षा की भारी आवश्यकता थी। सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर यदि इस आवश्यकता को प्राथमिकता दी गई होती तो निस्संदेह अपने देश की शिक्षा स्थिति बहुत संभल गई होती। हर जगह प्रेरणाप्रद पुस्तकालय रहे होते और उनका संचालन लोक रुचि लगाने और मोड़ने वाले लोक सेवी कर रहे होते तो विगत वर्षों में अपनी जनता की मनोभूमि बहुत ऊंची उठ गई होती और वोट की महत्ता एवं उसकी उपयोगिता समझ कर उसका प्रयोग करते समय दूरदर्शिता से काम ले सकने की योग्यता उसमें विकसित हो गई होती। ऐसी दशा में हमारे चुने हुए प्रतिनिधि एक से एक ऊंचे स्तर के होते, वे शासन तंत्र को सही ढंग से संभालते और उनके पुण्य प्रयत्नों द्वारा देश में सुराज्य के मंगलमय दृश्य देखने को मिल रहे होते।

आज चुनाव जीतना एक विशेष कला के अन्तर्गत आता है। नासमझ लोगों को बहकाने के लिए जो हथकंडे काम में लाए जा सकते हैं उन्हें ही चुनाव जीतने के लिए आमतौर से प्रयुक्त किया जाता है। जाति-बिरादरी वाली संकीर्णता की बात पिछले आर्य समाजी और कांग्रेस आंदोलनों ने काफी हलकी कर दी थी, पर जब से चुनावी हथकंडे सामने आये हैं इस विष को फैलाकर आसमान पर चढ़ा दिया गया है। सचाई यह है कि अब चुनाव बिरादरीवाद और जातिवाद के विद्वेष को भड़काकर लड़े और जीते जाते हैं। बाहर से कोई सिद्धांतवाद की लंबी चौड़ी बातें भले ही करता फिरे, चुनाव जीतने के वक्त जातिवाद को भीतर ही भीतर खूब भड़काया जाता है। बहुमत वाली जाति से उसका उम्मीदवार अपने वोट देने की बात कहता है और दूसरी बिरादरी को वोट न जाए इसलिए उसकी ओर से अपने लोगों के लिए कटु वचन कहने या चुनौती देने की मनगढ़ंत अफवाहें फैलाता है। इसी विषाक्त वातावरण में चुनाव लड़े जाते हैं और बिरादरीवाद को उत्तेजित और संगठित कर लेने वाले बाजी मार ले जाते हैं। राजनैतिक दल अपने उम्मीदवार खड़े करते समय इस बिरादरी स्थिति को ही ध्यान में रखकर आमतौर से उम्मीदवार खड़े करते हैं। इस प्रकृति को भड़का कर योग्यता और उत्तमता की दृष्टि ही नष्ट कर दी गई। अपनी बिरादरी वाले को जिताने के उन्माद का लाभ केवल हथकंडे बाज और तिकड़मी लोग ही उठा पाते हैं और जीत जाने पर अपना उल्लू सीधा करने की तरकीबें भिड़ाने लग जाते हैं।

चुनाव के दिनों सिद्धांतों की बात तो ऊपर-ऊपर से कही-सुनी जाती है। वस्तुतः वोटरों को अपने पक्ष में करने के लिए उस क्षेत्र के प्रभावशाली लोगों पर डोरे डाले जाते हैं और उन्हें तरह-तरह के हाथों हाथ या आश्वासनों के प्रलोभन देकर अपनी गिरोहबंदी में शामिल किया जाता है। वे अपने प्रभाव परिचय का उपयोग भोले लोगों से वोट प्राप्त करने में करते हैं और सहज ही वे बहकाए हुए किसी के पीछे-पीछे चलकर किसी को भी वोट दे आते और कोई भी जीत जाता है। वोट के दिनों वोटरों को सवारी, भोजन, चाय-पानी, नकदी, खुशामद आदि के रूप में कई तरह के मीठे बड़े प्रलोभन दिये जाते हैं, सब नहीं तो उनके अगुआ इन सुविधाओं को थोड़े समय के लिए ही सही, प्राप्त करके अपना मान बढ़ा समझ लेते हैं।

वोटर में न तो स्वयं की इतनी चेतना विकसित हुई होती है कि राष्ट्र के भाग्य-भविष्य का निर्माण कर सकने वाले सुयोग्य व्यक्ति को ही वोट देकर अपना कर्त्तव्यपालन करें और न उसकी इस प्रकार की योग्यता विकसित करने के लिए कोई संगठित प्रयत्न किए जाते हैं। तत्काल भड़काने वाली कुछ स्थानीय या सामाजिक चर्चाएं ही वोटरों का विचार बनाती-मोड़ती है। इन हथकंडों के साथ गिरोहबंदी, जोड़-तोड़ और दौड़−धूप करना हर किसी के बस का नहीं है। उसमें खर्च भी बहुत पड़ता है, उसे कोई लोक सेवक निस्पृह व्यक्ति कैसे जुटा पाए। जीतते वे लोग हैं जो चुनाव में अंधाधुंध पैसा इस ख्याल में खर्च करते हैं कि जीतने पर ब्याज सहित वसूल कर लेंगे। जिनने यह सोचकर पैसा और समय खर्च किया है वे जीतने पर यदि कुछ लाभ कमाना चाहें तो इसमें हर्जा ही क्या है। यह निश्चित है कि जिसके सहयोग से अनुचित स्वार्थ सिद्ध किया गया है उनको भी वैसा ही लाभ उठाने की छूट मिलेगी। इस प्रकार ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार की श्रृंखला का सिलसिला बंध जाएगा। जनता चक्की के उन पाटों के बीच पिसती-कराहती रहेगी।

सभी वोटर ऐसे होते हैं या सभी चुनाव जीतने वाले ओछे तरीके अपनाते हैं यह नहीं कहा जा रहा, सज्जनता का बीज नाश कभी नहीं होता, इसलिए अपने चुनावों में भी बहुत जगह बहुत लोग सही तरीके अपनाते और जीतते देखे जाते हैं। पर वे अपवाद ही हैं। अधिकतर ऐसी ही भेड़िया धंसान चल रही है जैसी कि ऊपर चर्चा की गई है। उसका प्रधान कारण भारतीय जनता को प्रबुद्ध और प्रगल्भ बनाने की दिशा में बरती गई उपेक्षा ही है। जब तक इस आवश्यकता को पूरा न किया जाएगा- जन मानस को राजनैतिक उत्तरदायित्व संभालने के प्रथम प्रजातंत्री कर्त्तव्य मतदान का महत्व और दूरगामी परिणाम विदित न होंगे तब तक स्थिति के सुधरने की आशा नहीं की जा सकती। प्रजातंत्र स्विट्जरलैंड जैसे प्रबुद्ध नागरिकों के देश में ही सही तरह सफल हो सकता है। जनता का स्तर यदि घटिया है तो घटिया ही लोग चुने जायेंगे और इसके द्वारा चलाया हुआ शासन स्वराज्य कहला सकता है पर उसके द्वारा सुराज्य की आवश्यकता पूरी नहीं हो सकती।

इस कठिनाई को हल करने का स्थिर उपाय तो यही है कि जनता को साक्षर, शिक्षित, प्रबुद्ध एवं दूरदर्शी बनाने के लिए युग-निर्माण योजना द्वारा संचालित जन-मानस परिष्कार अभियान को अधिकाधिक समर्थ और सफल बनाने में पूरा जोर लगाया जाए। जनता जितनी दूरदर्शी, देशभक्त, कर्त्तव्यनिष्ठ और नागरिक कर्त्तव्यों का ठीक तरह पालन कर सकने में समर्थ बनती जाएगी उतनी ही वोट का सदुपयोग होगा और सही व्यक्ति सही ढंग से शासन तंत्र चलाने के लिए नियुक्त किये जा सकेंगे। जब तक जन-मानस का स्तर गिरा हुआ रहेगा तब तक उसके द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि भी उसी स्तर के रहेंगे। दल-बदल, पदलोलुपता, भाई-भतीजावाद, पक्षपात, स्वार्थ साधन, भ्रष्टाचार की अनेक शिकायतें हमें अपने शासन संचालकों से रहती हैं। इसका मूल दोष जनता की अपरिपक्व मनःस्थिति को ही दिया जा सकता है। जब तक उसमें सुधार परिष्कार न होगा, शासनतंत्र अनुपयुक्त व्यक्तियों के हाथों में ही बना रहेगा। जैसा दूध होगा, मलाई भी उसी स्वाद की बनेगी। जनता का स्तर ही चुनाव में विजयी होकर आता है। यह सिद्धान्त विश्वव्यापी है। भारतवर्ष का ही नहीं जहां भी प्रजातंत्र है वहां यही सिद्धांत लागू होंगे। अस्तु दोष ने वोटर का है न चुनाव जीतने वालों का। पिछड़ेपन की परिस्थिति ही ऐसी है जिसमें जनता से अधिक ऊंचे स्तर का शासन मिल सकना संभव ही नहीं हो सकता।

इस स्थिति में आपातकालीन स्थिति की तरह एक सामयिक उपाय दूसरा भी है कि वोट देने का तरीका प्रत्यक्ष न रखकर अप्रत्यक्ष कर दिया जाए। इसमें वोटरों को बरगलाने का खतरा कम और विवेक से काम लेने का अवसर अधिक है। आरंभ ग्राम पंचायतों से किया जाए। वहां भी वोट डालने का तरीका ऐसा हो जिसमें दूसरे किसी को पता न चल पाए कि किसे वोट दिया गया। चुनाव दो तिहाई पर सफल माना जाए। आजकल दूसरे सभी प्रत्याशियों की अपेक्षा अधिक वोट मिलने पर चुनाव जीतने का कायदा है, उसे बढ़ाकर दो तिहाई कर दिया जाए इससे लोकप्रिय व्यक्ति ही चुने जा सकेंगे। प्रयत्न सर्वसम्मत चुनाव का किया जाए। यह भी हो सकता है कि एक बार प्राथमिक परीक्षण में कितने ही लोग खड़े हो सकते हैं। उस चुनाव में लोकप्रियता का पता चल जायेगा। इनमें जिनके सबसे अधिक वोट हों ऐसे दो प्रतिद्वंदी ही अंतिम चुनाव में खड़े रहें और उनमें से जिसे दो तिहाई वोट मिलें, उसी को सफल घोषित किया जाए। अच्छा तरीका यह है कि दोनों में से विवेकशीलता, चरित्र ओर सेवा की दृष्टि से जिसका पिछला स्तर ऊंचा रहा हो उस एक को ही सर्व सम्मति से चुना जाए। इससे चुनाव के कारण जो कटुता उत्पन्न होती है उससे बचा जा सकेगा।

इस ग्राम पंचायत चुनाव में चुने हुए लोग क्षेत्र पंचायत का, क्षेत्र पंचायत वाले जिला पंचायत का, जिला पंचायत वाले प्रांत पंचायत का और प्रांत पंचायत वाले देश पंचायत का चुनाव कर लिया करें। इससे यह लाभ होगा कि अधिक ऊंची पंचायत के लिए अधिक उत्तरदायी और अधिक योग्य वोटर रहेंगे और उनसे अधिक विवेकशीलता और जिम्मेदारी की आशा की जा सकती है। यह तरीका आज के सीधे चुनाव के तरीके की अपेक्षा भारत जैसे पिछड़े देश के लिए अधिक उपयुक्त रहेगा।

राष्ट्रपति का चुनाव ग्राम पंचायत के प्रतिनिधि करें ताकि किसी एक पार्टी के वोटों पर निर्भर वह न रहे। बहुमत पार्टी का चुना राष्ट्रपति उसी का पक्षपात न करे यह आशंका बनी रहेगी, जबकि संविधान की रक्षा के लिए पूर्ण निष्पक्ष राष्ट्रपति की आवश्यकता है। अतः बेहतर यह होगा कि अपने यहां अमेरिका के ढंग से राष्ट्रपति का चुनाव हो और उसके अधिकार भी बढ़ा दिए जाएं। मात्र बहुमत पार्टी का समर्थक या प्रवक्ता राष्ट्रपति रहे तो शासन में निरंकुशता बढ़ेगी।

चुनाव में खड़े होने के लिए वोटर की कुछ योग्यता निर्धारित होनी चाहिए जिसमें शिक्षा, चरित्र और सेवा इन तीन को आधार बनाया जाए। जैसे-जैसे चुनाव का स्तर ऊंचा होता जाए यह प्रतिबन्ध भी अधिक कड़े होते जाएं। धनिक एवं व्यवसायी वर्ग को क्रमशः चुने जाने में प्रतिबंधित किया जाता रहे क्योंकि वे अपने निहित स्वार्थों के लिए सत्ता का दुरुपयोग कर सकने में अधिक आगे बढ़ सकते हैं। सत्ता में जाने के बाद किसने अपने परिवार के लिए कितना धन कमाया और उसमें कुछ अनुचित तो नहीं था, इस बात की अधिक कड़ी निगरानी रखे जाने की व्यवस्था हो। इस प्रकार के प्रतिबंधों से चुने प्रतिनिधियों का स्तर अधिक ऊंचा रखा जा सकेगा। दलबदल करना हो तो इस्तीफा देकर नया चुनाव ही लड़ा जाना चाहिए।

मंत्रियों की संख्या बहुत सीमित रखी जाए। विभाग बहुत न बढ़ाये जाएं। दफ्तरों पर दफ्तर, कागजों पर कागज की लाल फीताशाही समाप्त की जाए और कार्यों के तुरन्त फैसला होने की पद्धति विकसित की जाए। आज की बहुत देर लगने वाली और रिश्वतखोरी के लिए पूरी-पूरी गुंजायश छोड़ने वाली सरकारी कार्य पद्धति को आमूलचूल बदल दिया जाए। असेम्बलियों के अधिवेशन वर्ष में एक महीने से अधिक न हो। उन्हें वक्ताओं का सभा मंच न बनाया जाए। दल अपने प्रतिनिधि अनुपात के हिसाब से नियुक्त कर दें और वह छोटी समिति ही सामान्य निर्णयों को निपटाती रहे। इस तरह प्रतिनिधियों पर अधिवेशन के दिनों खर्च होने वाला पैसा बच जाएगा और वे लोग अपना समय जन संपर्क में, लोगों की कठिनाइयां दूर करने में, सहयोग करने में लगा सकते हैं। इस प्रकार शासन को कम खर्चीला, अधिक स्वच्छ एवं अधिक सुघर बनाया जा सकेगा। कानूनों को नए सिरे से बनाया जाए, जिसमें गवाहों के आधार पर नहीं पंच प्रतिनिधियों की रिपोर्ट पर फैसले किए जाएं। आतताइयों के आतंक से आमतौर से सही बात कहने वाले गवाह नहीं मिलते और खरीदे हुए गवाह झूठी बात कहने अदालतों में पहुंच जाते हैं। इससे कमजोर लोगों को न्याय नहीं मिलता। फिर वह खर्चीला भी बहुत है। रिश्वत की उसमें इतनी गुंजायश है कि कचहरी में अब उसे ‘हक’ मान लिया गया है। यह प्रणाली न बदली गई तो लोग न्याय मिलने से निराश होने लगेंगे और बदला चुकाने के लिए कानून हाथ में लेने की प्रवृत्ति पनपेगी। इस लिए न्याय सुलभ हो जाए और अपराधियों को अधिक कड़ी और कष्टकारक सजा मिलने की व्यवस्था हो जिससे लोगों में अपराध न करने के लिए भय उत्पन्न हो। जेलों को सुधार गृह बनाने का आज जो उपयोग चल रहा है उससे अपराधी घर से भी अधिक सुविधा वहां जाकर पाते हैं और सुख के थोड़े से दिन काटकर आगे फिर वैसा ही करने को निर्भय हो जाते हैं। जेल से छूटने के बाद या पहले सुधार गृह में उन्हें अलग से एक स्कूली शिक्षण प्राप्त करने की तरह रखा जाए यह तो बात समझ में आती है पर पेचीदा कानूनों के कारण अपराधियों के छूटने का अधिक अवसर रहने के बावजूद यदि उन्हें हलकी और सुखदायक सजा मिलेगी तो यह सजा ढकोसला मात्र रह जायेगी।

ऐसी बीसियों बातें हैं जिनमें सुधार की काफी गुंजायश है। एक प्रांत से दूसरे प्राप्त के लिए खाद्य पदार्थ जाने में प्रतिबन्ध लगाना एक प्रकार से देश में ही विदेशों जैसी स्थिति पैदा करना है। अभाव या सुविधा का परिणाम पूरे देश के नागरिकों को समान रूप से भोगना पड़े तभी वे एक देश के नागरिक समझे जाएंगे। यदि एक क्षेत्र दूसरे क्षेत्र पर प्रतिबंध लगावे तो उससे राष्ट्रीयता विभक्त होने जैसी मनोभूमि बनती है। व्यर्थ के कानूनी झंझट खड़े होते हैं और तस्कर व्यापार आदि की गुंजायश बढ़ती है। इसी प्रकार टैक्स वसूल करने की प्रणाली प्रत्यक्ष न रहकर अप्रत्यक्ष रहे। उत्पादन पर शुल्क लगा दिया जाए। बिक्री पर बार-बार टैक्स लगाने से अनावश्यक सरकारी हस्तक्षेप बढ़ता है और उस नियंत्रण मशीन को चलाने में ही बिक्रीकर का बहुत सा अंश चला जाता है। पोलपट्टी बढ़ती है सो अलग। टैक्सों के तरीके परोक्ष बनाए जा सकते हैं और कम खर्च से आसानी से वसूल किए जा सकते हैं।

अच्छी सरकार देश के चरित्र स्तर और मनोबल को यदि चाहे तो आश्चर्यजनक ढंग से बढ़ा सकती है। शिक्षा में जीवन विद्या तथा समाज निर्माण को प्रभावी ढंग से पढ़ाया जा सकता है और निरर्थक का कूड़ा जो बच्चों के दिमाग में अकारण ठूंसा जाता है उसका बोझ हटाया जा सकता है। छात्रावासों में रखकर शिक्षण देने की, छात्रों को कुछ उपार्जन सिखाने की व्यवस्था के साथ शिक्षा पद्धति ऐसी परिष्कृत बनाई जा सकती है जिससे बालक घरेलू कुसंस्कारों से बचे रहें और सुसंस्कृत वातावरण में सुविकसित होने का लाभ उठा सकें। विशेषज्ञ बनने वालों को विशेष पढ़ाई कर सुविधा हो, पर सामान्य नागरिकों के लिए मध्यवर्ती एक ऐसा पाठ्यक्रम पर्याप्त माना जाए जिसमें जीवन में काम आने वाले सभी विषयों का सामान्य समावेश बना रहे।

साहित्य का स्तर निम्न न बनने पाये। उसमें भ्रष्ट प्रशिक्षण प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़ने तो नहीं लगा है यह देखना और रोकना शासन का पवित्र कर्त्तव्य है। नागरिक स्वाधीनता के नाम पर भ्रष्ट तस्वीरें छापने की, भ्रष्ट फिल्में बनाने की सुविधा किसी को भी नहीं मिलनी चाहिए। वस्तुतः जन मानस को प्रभावित करने वाले साहित्य संगीत और कला को भ्रष्टता से बचाने के लिए इसका आंशिक राष्ट्रीयकरण किया जाए। इन तंत्रों को उन्हीं के हाथों में रहने दिया जाए जो लोक मानस को विकृत न होने देने की और उत्कृष्ट सृजन करने की शर्त से राष्ट्र के साथ कड़ाई के साथ बांधे गये हों। बारूद का लाइसेंस हर किसी को नहीं मिलता। हथियार रखने की छूट भी हर किसी को नहीं होती। इसी प्रकार साहित्य, चित्र, सिनेमा जैसे जन-मानस को प्रभावित करने वाले अति संवेदनशील माध्यमों को हर किसी के हाथ चाहे जैसे दुरुपयोग करने के लिए अनियंत्रित नहीं छोड़ दिया जाना चाहिए। जब तक जनता भले बुरे की परख कर सकने की स्थिति में स्वयं नहीं पहुंच जाती तब तक शासन द्वारा इन क्षेत्रों में बढ़ने वाली भ्रष्टता पर नियंत्रण लगाकर रखा जाए तो यह सर्वथा उचित ही होगा। इस नियंत्रण के साथ लोक-मानस को प्रभावित करने वाले सत्सृजन को हर प्रकार की सुविधा और सहायता भी दी जानी चाहिए, जिससे वह अधिक समर्थ और अधिक सफल हो सके।

आज की शासन व्यवस्था में अनेक दोष आ गये हैं। उन्हें सुधारने के लिए हमें सारी पद्धति को नए सिरे से विनिर्मित करना पड़ेगा ताकि वर्तमान ढांचे से अभ्यस्त और असंतुष्ट लोगों को नए सिरे से सोचने और करने का अवसर मिले। इसके लिए निस्संदेह शासन व्यवस्था और सरकारी क्रिया कलाप में क्रान्तिकारी परिवर्तन की आवश्यकता है। इस तथ्य को समझ लेने के बाद उपरोक्त मोटे सुझावों के अतिरिक्त अन्य बीमारियों पर विचार किया जा सकता है। हमें नव-निर्माण के लिए स्वच्छ और स्वस्थ शासन का सहयोग चाहिए। उसका निर्माण भी एक ऐसी महत्वपूर्ण आवश्यकता है जिसकी पूर्ति की ही जानी चाहिए।
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