प्राणघातक व्यसन

मदिरा प्रकृति के प्रतिकूल है

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मदिरा सेवन करने वालों की दलील है कि भोजन के साथ थोड़ी सी शराब ले लेने से पाचन क्रिया भलीभाँति हो जाती है । स्थूल दृष्टि से अवश्य ऐसा प्रतीत होता है कि भोजन खूब पच रहा है । खुलकर झूठी भूख लगने लगती है । इसका कारण यह होता है कि मदिरा में तेजाब होता है जो कि भोजन को गला देता है, किंतु उसकी प्रतिक्रिया आँतों पर भी होती है । भीतर ही भीतर आँतें भी गलती रहती हैं और शरीर की पाचन प्रणाली की दशा इतनी बिगड़ जाती है कि शराबी आदमी अनेक उदर संबंधी रोगों से ग्रसित होकर काल-कवलित हो जाता है ।

मदिरा पीना प्रकृति के प्रतिकूल है । जब मदिरा का प्याला हाथ में लेकर मुख के समीप लाते हैं तो उसकी बू दिमाग में पहुँचते ही त्वचा में सिकुड़न आ जाती है, आँखे भी बंद हो जाती हैं, परंतु मनुष्य उसे प्रकृति के प्रतिकूल जबरदस्ती पी जाता है । मदिरा के स्थान पर दूध का प्याला पीने के लिए जब मुख के निकट लाते हैं, तब कोई अंग उसे अस्वीकार नहीं करता, बल्कि उसे बड़े चाव से मनुष्य पी जाता है । मदिरा का सेवन करने पर शरीर का प्रत्येक अंग उस समय चेतना शून्य सा होने लगता है । बुद्धि, निर्णयशक्ति, आत्मसंयम, इच्छाशक्ति, सदासद्विवेक, न्यायान्याय की भावना, कर्तव्य, प्रेम, करुणा, स्वार्थ, त्याग नष्ट हो जाते हैं । अश्लील बातें मुँह से निकलने लगती हैं व सारे शरीर को एकबार हिला देती हैं । यदि अत्यधिक पी गया तो तबियत मितलाने लगती है और वह शरीर से वमन के रूप में बाहर निकल जाती है । मनुष्य मद्यप की दशा में बेइज्जत होता है ।

मद्य हमें कमजोर, निस्तेज, शक्तिहीन बनाता है । कमजोर रहना, अपराध है । अत: शराब हमें अपराधी बनाती है । इसलिए वह सर्वथा त्याज्य है ।

गांधी जी की विचारधारा एवं रचनात्मक कार्यक्रम में शराबबंदी का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । विदेशी सरकार ने मादक पदार्थों-शराब, अफीम, तंबाकू, चाय, काफी, गाँजा, भाँग, कोकेन इत्यादि का प्रचार बढ़ाया तथा हमें उनका अभ्यस्त बनाकर क्षीणकाय, अल्पायु एवं दुर्बल मन बना दिया है । शराबी की स्मरण शक्ति बिगड़ जाती है, बुद्धि, विवेक और नीति का नियंत्रण उठते ही, वह मनोवेगों के साम्राज्य में विहार करने लगता है, दुर्विकार उस पर आधिपत्य जमा लेते हैं । वह खाना, वासना और मद्य का ही गुलाम बन जाता है । मद्य अनियमितता, मूर्खता, अयोग्यता, आकस्मिक दुर्घटनाओं का एक महान कारण है । शराबी न सामाजिक प्रतिष्ठा का ध्यान रखता है, न रोगों का और न परमात्मा का, उसकी प्रवृत्ति निरंतर व्यभिचार की ओर होती जाती है । महात्मा जी का विचार था कि मादक वस्तुओं का व्यवहार मनुष्य तथा राष्ट्र को पतन की ओर ले जाता है । नागरिकों के चरित्र का पतन, राष्ट्र का पतन है ।

कुछ व्यक्तियों की यह गलत धारणा हो गई है कि शराब से शक्ति प्राप्त होती है । शराब उत्तेजक मात्र है । पीने के कुछ काल तक इससे हमारी पूर्व संचित शक्ति एकत्रित होकर उद्दीप्त मात्र होती है । नई शक्ति नहीं आती । यह शक्ति उत्पन्न करने के स्थान पर, नशे के बाद मनुष्य को निर्बल, निस्तेज और निकम्मा बना जाती है । आदत पड़ने पर इसकी उत्तेजना के बिना कार्य में तबियत नहीं लगती । गरीब भारत का इतना रुपया इसमें व्यय हो जाता है कि पौष्टिक भोजन, दूध, फल इत्यादि के लिए कुछ शेष नहीं बचता ।

जो व्यक्ति उत्तेजक पदार्थों से शक्तिप्राप्ति की आशा रखता है, वह कृत्रिम माया की मरीचिका में निवास करता है । स्वाभाविक, प्राकृतिक शक्ति ही मनुष्य की वास्तविक पूँजी हो सकती है । वस्तुतः शराब से शक्तिप्राप्ति की धारणा भ्रांतिमूलक है ।

पाश्चात्य देशों में अत्यधिक ठंड के कारण शराब का प्रचलन हुआ है, किंतु वे लोग यह समझने लगे हैं कि मदिरा से मानसिक शक्ति को सहायता प्राप्त होती है, कल्पना स्वच्छंदतापूर्वक कार्य करने लगती है, भावनाएँ और नव योजनाएँ स्फुरित होने लगती हैं; विचार कोमल, सूक्ष्म और महत्त्वपूणँ हो जाते हैं । ये बातें भ्रांतिमूलक हैं । मदिरा की उत्तेजना में सही विचार कैसे संभव हैं ?

मदिरा से तर्क, विवेक बुद्धि, संयत भाव से निज कार्य शुद्ध रूप में कैसे कर सकते है ? मदिरा तमोगुणी है, कार्यशक्ति का क्षय करती है, प्रतिष्ठा, कीर्ति का नाश कर पतन और व्यभिचार की ओर प्रवृत्त करती है । फिर यह कैसे संभव है कि यह उच्च भावनाएँ या सूक्ष्म कल्पनाएँ, सही विचार प्रदान कर सकें ? मदिरा पीने वाले व्यक्ति की सौंदर्य की अनुभूति कभी ठीक नहीं हो सकती । उसके भावों का उन्मेष भी ठीक नहीं हो सकता । उत्तेजना की अवस्था में शुद्ध कलाकृति का निर्णय नहीं हो सकता ।

अतः मन से यह भ्रमात्मक धारणा निकाल देनी चाहिए कि मद्य विचार शक्ति के विकास में सहायक है । इसके विपरीत शराब से उलटे मनुष्य की रचनात्मक शक्तियों जैसे- कल्पना, भावना, विचार दृढ़ता, निश्चय, काव्य प्रतिभा, मानसिक संतुलन, विवेक, तर्क शांति का ह्रास होता है । मनुष्य की उच्च सात्विक दैवी संपदाओं के स्थान पर यह मन पर आसुरी तमोगुण प्रधान शैतानी दुष्प्रवृत्तियों का अधिकार करा देती है । उसमें आत्मनिरीक्षण, संयम, आत्मनियंत्रण, गंभीर कार्य करने की शक्तियों नहीं रहती । शराब के नशे की अवस्था में किया गया कार्य मनःशांति की अवस्था में किए गए कार्य से निम्नकोटि का होता है ।

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: