प्राणघातक व्यसन

सिनेमा विनाश या मनोरंजन

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सभ्यता के आवरण में जिस मनोरंजन ने सबसे अधिक कामुकता, अनैतिकता, व्यभिचार की अभिवृद्धि की है, वह है सिनेमा तथा हमारे गंदे विकारों को उत्तेजित करने वाली फिल्में, उनकी अर्द्धनग्न तसवीरें और गंदे गाने । अमेरिकन फिल्मों के अनुकरण पर हमारे यहाँ ऐसे चित्रों की सृष्टि वृहत संख्या में हो रही है, जिनमें चुंबन, आलिंगन आदि कुचेष्टाओं एवं उत्तेजक गीतों, प्रेम संबंधी वार्तालापों की भरमार है । रेडियो द्वारा गंदे संगीत से कामुकता का प्रचार हम सहन कर लेते हैं और घर-घर में बच्चे-बूढे, युवक-युवतियाँ गंदे गीत माता-पिताओं के सामने सुनते रहते हैं । फिल्मी संगीत इतने निम्न स्तर का होता है कि उसके उद्धरण देना भी महा पाप है । जहाँ बालकों को रामायण, गीता, तुलसी, सूर, कबीर, नानक के सुरुचिपूर्ण भजन याद होने चाहिए । वहाँ हमें यह देखकर नतमस्तक हो जाना पड़ता है कि अबोध बालक फरमाइशी रिकार्डों के, वेश्याओं के गंदे अश्लील गाने स्वच्छंदतापूर्वक गाते फिरते हैं । न कोई उन्हें रोकता है और न उन्हें मना करता है । ज्यों-ज्यों यौवन की उत्ताल तरंगें उनके हृदय में उठती हैं । इन गीतों तथा फिल्मों के गंदे स्थलों की कुत्सित कल्पनाएँ उन्हें अनावश्यक रूप से उत्तेजित कर देती हैं । वे व्यभिचार की ओर प्रवृत्त होते हैं । समाज में व्यभिचार फैलाते हैं, गंदे अनैतिक प्रेम संबंध स्थापित करते हैं, गलियों में लगे हुए चित्र, लिखी हुई अश्लील गालियाँ, कुत्सित प्रदर्शन, स्त्रियों को कामुकता की दृष्टि से देखना प्रत्यक्ष विषतुल्य है । उगती पीढ़ी के लिए यह कामांधता खतरनाक है । बचपन के गंदे दूषित संस्कार हमारे राष्ट्र को कामुक और चरित्रहीन बना देंगे ।

सिनेमा से लोगों ने चोरी की नई-नई कलाएँ सीखीं, डाके डालने सीखे, शराब पीना सीखा, निर्लज्जता सीखी और भीषण व्यभिचार सीखा । सिनेमा के कारण हमारे युवक-युवतियों में किस प्रकार स्वेच्छाचार बढ़ रहा है । इसके कई सच्चे उदाहरण तो हमारे सामने हैं । पता नहीं लाखों-करोड़ों कितने तरुण- तरुणियों पर इसका जहरीला असर हुआ है । फिर भी हम इसे मनोरंजन मानते हैं । समाज के इस पाप को दूर करना चाहिए, अन्यथा अनैतिकता, व्यभिचार स्वच्छंदता, तमाम सामाजिक मर्यादाओं का अतिक्रमण कर देंगी । सिनेमा ने समाज में खुलेआम अश्लीलता, गंदगी, कुचेष्टाओं, व्यभिचार, घृणित यौन संबंध, शराबखोरी, फैशनपरस्ती, कुविचारों की वृद्धि की है । यदि गंदे फिल्म ऐसे ही चलते रहे तो राष्ट्रीय चरित्र का और भी खोखलापन, कमजोरी और ढीलापन अवश्यंभावी है । यदि हमारे युवक-युवतियाँ अभिनेताओं तथा अभिनत्रियों के पहनावे, शृंगार, मेकअप, फैशन, पैंट, बुशशर्ट, साड़ियों का अंधानुकरण करते रहे तो असंयमित वासना के द्वार खुले रहेंगे । गंदे फिल्म निरंतर हमारे युवकों को मानसिक व्यभिचार की ओर खींच रहे हैं । उनका मन निरंतर अभिनेत्रियों के रूप, सौंदर्य, फैशन और नाज-नखरों में भँवरे की तरह अटका रहता है । इन गंदी कल्पनाओं को समीप के स्थानों में प्रेमिका खोजकर कुचेष्टाओं से चरितार्थ करते हैं । अश्लीलता के इस प्रचार पर सरकार द्वारा कड़ा नियंत्रण लगना चाहिए ।
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