प्राणघातक व्यसन

अंडे खाना स्वास्थ्य के लिए हितकर नहीं

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आजकल देशी-विदेशी सज्जन शक्ति के लिए अंडे खाने की सलाह दिया करते हैं । उनकी राय में अंडे के समान पोषण करने वाले अन्य कोई पदार्थ नहीं हैं । कुछ महानुभाव अंडे खाने में जीव हत्या नहीं समझते, फल से उसकी तुलना किया करते हैं । वास्तव में अंडा हितकारी नहीं है, इस संबंध में कुछ विलायती डॉक्टरों ने कहा है कि मुर्गी के मांस और अंडे में एक प्रकार की विषैली एल्व्यूमिन पाई जाती है, जो जिगर और अंतड़ियों को खराब करती है और बहुत ही हानिकारक है । अंडे में जरदी होती है, उसमें नमक, चूना, लोहा और विटामिन सभी पदार्थ रहते हैं । यह पदार्थ बच्चों के पोषण के लिए भगवान ने भर दिए हैं । बहुत से लोगों ने यह समझ लिया है कि ये चीजें दूध की तरह खाने की हैं, किंतु यह उनकी भूल है ।

अंडे में जो प्रोटीन होता है, वह दूध के प्रोटीन से कम दर्जे का है, क्योंकि उसके पाचन में बड़ी कठिनाइयाँ आ पड़ती हैं । अधिकतर तो वह सड़कर खाने के योग्य न रहकर हानिकारक भी हो जाती हैं । दूध तो रखा रहने पर जम जाता है और खस भी हो जाता है, परंतु अंडा खाने में खराब मालूम होता है और हानिकारक हो जाता है । इसके विपरीत खट्टा या जमाया हुआ दूध अधिकांश लोगों को ताजे दूध की अपेक्षा अधिक रुचिकर और सुपाच्य हो जाता है । दूध का यह गुण मिठास के कारण है, जो अंडे में होता ही नहीं । भोजन के साथ आधा सेर दूध, अंडे और मांस के बिना ही प्रोटीन पर्याप्त मात्रा में पहुँचा देता है ।

योरोपीय देशों में मक्खन निकालने के पश्चात मक्खनियाँ दूध प्राय: जानवरों को खिलाया या फैंक दिया जाता है । यदि यही दूध मनुष्य के खाने के काम में लिया जाए तो इस देश के लिए मांस से अधिक लाभदायक होगा । नौ औंस (साढ़े चार छटाँक) मक्खनियाँ दूध शरीर में इतना चूना तथा हड्डियाँ बनाने वाली सामग्री उत्पन्न कर देता है, जितना एक दर्जन अंडे नहीं कर पाते ।

अंडे के खाने से पाचनतंत्र में सड़न उत्पन्न हो जाती है । इस सड़न से एक प्रकार के नशे जैसी स्थिति पैदा होती है । इससे जी मिचलाता है, सरदर्द, मुँह में दुर्गंध आना तथा दूसरी ऐसी अन्य बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती हैं । इसके विपरीत दूध, बादाम, मूँगफली आदि में अंडे से अधिक प्रोटीन होता है । जितना दूध, बादाम आदि के प्रोटीन खाने पर आमाशय में पाचक रस बनता है, उतना अंडे के प्रोटीन से नहीं बनता । अंडे की कच्ची सफेदी पर पाचक रसों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता और दूसरे भोजनों के पचने में भी रुकावट उत्पन्न होती है ।

वेटल क्रीक सिनेटोरियम के सुपरिन्टेंडेंट जान हरवे लाग साहब लिखते हैं- ''मांसाहारियों के सब बहाने सब प्रकार से एक-एक करके सभी लोप होते जा रहे हैं । यथार्थ में वर्तमान समय में उनका किसी प्रकार का कोई भी बहाना किसी भी दशा में स्वीकार करने के योग्य नहीं है, जबकि अच्छे पौष्टिक और सात्विक पदार्थ खाने को मिल रहे हैं ।''

भोजन स्वाद के लिए या पेट भरने के लिए ही नहीं है, वरन उसका उद्देश्य शरीर को ऐसे पोषक पदार्थ देना है जो निरोगता, स्फूर्ति एवं दीर्घजीवन प्रदान करते हुए मन-बुद्धि को भी स्वस्थ दिशा में विकसित करे । हर पदार्थ में स्थूल गुणों के साथ-साथ एक सूक्ष्म गुण भी होता है । खाद्य पदार्थों के जो स्थूल गुण हैं, उनका भला-बुरा प्रभाव शरीर पर पड़ेगा और उनके जो सूक्ष्म गुण होंगे, उनका प्रभाव मन-बुद्धि पर पड़ेगा । इसी कुप्रभाव को ध्यान में रखकर ऋषियों ने भक्ष्य-अभक्ष्य का निर्णय किया था ।

नशे मन और बुद्धि का नाश करने वाले हैं । शरीर पर उनका कोई छोटा-मोटा लाभ भी होता हो तो भी उनके द्वारा मानसिक हानि अत्यधिक होने के कारण उन्हें त्याज्य ठहराया गया है । कहा जाता है कि तंबाकू भोजन पचाती है, चाय फुरती लाती है, शराब थकान मिटाती है, अफीम स्तंभन करती है, भाँग मस्ती लाती है । यदि ये बातें आंशिक रूप से ठीक भी हों तो भी उनके विषैलेपन के कारण जो क्षति होती है, उसकी तुलना में यह लाभ अत्यंत ही तुच्छ है । इसके अतिरिक्त इन नशीली चीजों का मानसिक क्षेत्र पर जो भारी कुप्रभाव पड़ता है, उसकी हानि तो मनुष्य जीवन के उद्देश्य को ही नष्ट कर देने वाली है ।

हमको यह भली प्रकार समझ लेना चाहिए कि मनुष्य का हित सात्विक पदार्थों के सेवन में ही है । मांस, मदिरा, गाँजा, भाँग, चाय, तंबाकू आदि सभी पदार्थ तामसी होते हैं और इनके सेवन से मनुष्य की बुद्धि भ्रष्ट होकर विपरीत कार्यों की ओर रुचि उत्पन्न करती है । इनके द्वारा मनुष्य शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से निर्बल होता है और उसका आत्मिक पतन होता है । इसलिए किसी भी कल्याणकामी व्यक्ति को इन निकृष्ट पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए ।
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