मन की प्रचंड शक्ति

चेतनाशक्ति का भांडागार—मानव मन

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सामर्थ्य का असीम भंडार हमारे चारों ओर बिखरा पड़ा है। जड़ परमाणु का लघुतम घटक परमाणु अपने में कितनी प्रचंड ऊर्जा छिपाए हुए है, इसका परिचय उसके विस्फोट का लेखा-जोखा लेने पर किसी महादैत्य जैसा लगता है। परमाणु में छिपे बैठे न्यूट्रान, इलेक्ट्रान, प्रोटान एवं उसमें भी समाए न्यूट्रीनों जैसे सूक्ष्मतम कण कितने सामर्थ्यवान होंगे, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। एक इंच की परिधि में ऐसे अरबों-खरबों महादैत्य सटे बैठे होते हैं। समूचे भूमंडल पर वे कितने होंगे और उन सबकी संयुक्त शक्ति कितनी प्रचंड होगी, इसका अनुमान लगाना मानवी मस्तिष्क के लिए संभव नहीं।

चेतना का संसार और भी अद्भुत है। जीवकोष-बीजकोष अपने में एक अनोखा लीला जगत संजोए बैठे हैं। उनकी सामर्थ्य काया को गतिशील रखने में तनिक-सा सहयोग करने जितनी ही अनुभव में आती है, पर यदि उनकी निजी सत्ता और विस्तार क्षमता का परिचय प्राप्त किया जाय तो प्रतीत होता है कि सुई की नोंक पर सहस्रों की संख्या में बैठ सकने जैसे छोटे आकार के इन चेतना घटकों में से प्रत्येक की दुनिया कितनी अद्भुत, रहस्यमय एवं रोमांचकारी है। फिर एक शरीर में कितने बीजकोष होते हैं, कोटि-कोटि मानवों में वे कितने होंगे? सृष्टि में मनुष्यों के अतिरिक्त प्राणियों की जातियों और उनमें से प्रत्येक की संख्या की गणना नहीं हो सकती। अगणित जीवकोषों से भरे इस जीव-जगत की विशेषताओं को देखते हुए उसे देवोपम मानने में कोई अत्युक्ति नहीं। तैंतीस कोटि देवताओं के प्रतिपादन को कभी असंगत माना जाता था, पर अब तथ्यों के प्रकाश में आने पर जब प्रत्येक घटक-जीवकोष मान्यता प्राप्त देवताओं से भी अधिक विभूति संपन्न सिद्ध हो रहा है तो उन्हें असीम, अनंत, अचिंत्य, कल्पनातीत ही कहा जा सकता है।

जड़-जगत के परमाणुओं को महादैत्य और चेतन जगत के जीवकोषों को महादेव कहा जा सकता है। उनके बीच जो सहयोग चल रहा है उसे समुद्र मंथन की उपमा दी जा सकती है। साथ ही अदृश्य क्षेत्र में उनकी जो विग्रह प्रक्रिया चल रही है उसे अनादि काल से अनंत काल तक चलने वाले देवासुर संग्राम के समतुल्य ठहराया जा सकता है। इस संयोग-वियोग की पेंडुलम क्षमता जितनी प्रकार की, जिस-जिस स्तर की शक्ति-सामर्थ्य उपजाती-बिखेरती है, उसका तनिक-सा आभास मिलने पर हतप्रभ होना पड़ता है और उस ‘अणोरणीयान महतो महीयान्’ से रोमांचित होकर उसी प्रकार नेत्र बंद करके नमन करना पड़ता है जैसा कि विराट दर्शन से भयाक्रांत हुए अर्जुन को करना पड़ा था।

जड़-जगत से चेतन और चेतन से जड़-जगत की शक्ति सत्ता की तुलना नहीं हो सकती। दोनों ही अपने आप में परिपूर्ण एवं महान हैं। इस विश्व-ब्रह्मांड में पराप्रकृति और परब्रह्म की आंख-मिचौनी जितनी सुंदर लगती है उतनी ही हतप्रभ कर देने वाली भी है।

इसी विभूतियों से भरे-पूरे संसार में हम सब अपने अपने जीवन शकट घसीटते हैं। जीवित तो सभी हैं और इसके लिए जितनी सुविधा-सामग्री चाहिए, उतनी किसी प्रकार जुट भी जाती है। इतने पर भी मनःस्थिति और परिस्थिति को देखते हुए प्रतीत यही होता है कि इन जीवितों में से कई अभावग्रस्त, दरिद्र, पतित, पीड़ितों, असहाय, असमर्थ जैसी स्थिति में रह रहे हैं। दरिद्रता और आशंका से कइयों को उद्विग्न देखा जा सकता है। उल्लास से छलकता हुआ, हंसता-हंसाता, समर्थ-संपन्न जीवन जीने वाले कठिनाई से ही नहीं, कोई बिरले ही मिलेंगे।

व्यक्ति के भीतर ओर बाहर सामर्थ्य का असीम भंडार, सुविधा-साधनों से भरा-पूरा अनंत वैभव जब इस समूचे ब्रह्मांड में संव्याप्त है और उसी के बीचों-बीच मनुष्य निवास-निर्वाह कर रहा है तो फिर यह कैसी विडंबना है कि अप्रसन्नता की मनःस्थिति घिरी रहे और दैन्य-दारिद्र्य से, पतन-पराभव से घिरी परिस्थितियों में गुजारा करना पड़े। ईश्वर के युवराज को अपने पिता के इस नंदन वन जैसे सुरम्य उद्यान में आनंद और उल्लास से भरे-पूरे दिन बिताना चाहिए थे, तब क्यों उसे शोक-संतापों से युक्त जीवन जीना होता है? विपत्तियों और समस्याओं का पग-पग पर सामना करना पड़ता है?

गुत्थी का कारण और निवारण ढूंढ़ने पर एक ही निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ता है कि मनुष्य है तो चेतन। किन्तु उसे चेतना की सुरक्षा एवं प्रगति की वैसी जानकारी नहीं, जैसी होनी चाहिए। वस्तु उपलब्ध तो हो पर उसका उपयोग विदित न हो तो दुरुपयोग ही बन पड़ेगा। दुरुपयोग का दुष्परिणाम होता ही है। वही हो भी रहा है। साधकों की न पहले कमी थी, न अब है। इतने पर भी सर्वत्र हाहाकार मचा हुआ है। यह स्थिति तब तक बनी रहेगी जब तक कि चेतन शक्ति, जो पिंड व ब्रह्मांड में समाई है, के उत्पादन, वितरण एवं उपयोग की प्रक्रिया को जाना ना जायेगा। इस प्रक्रिया को ही ‘साधना’ कहते हैं जो पदार्थ के सदुपयोग से आरंभ होते हुए, चेतना के परिष्कार एवं व्यष्टि तथा समष्टि चेतन शक्ति में परस्पर आदान-प्रदान के क्रम के बनने तक सतत् क्रियाशील रहती है। यही है वह मूलभूत तत्वदर्शन जिसकी जानकारी के अभाव में आत्म विस्मृति बनी रहती है एवं सामान्य अथवा निम्न स्तर का जीवन जीते हुए अधिकांश व्यक्तियों द्वारा जैसे-तैसे जीवन यात्रा पूरी कर ली जाती है।

अपने अंदर क्या छिपा पड़ा है—यह जानने का प्रयास करने पर बहुमूल्य मणि-मुक्तकों से भरा चेतनशक्ति का भांडागार दिखाई देने लगता है। बाहर से सामान्य व एक से ही दृष्टिगोचर होने वाले व्यक्ति कैसे कैसे असंभव कर दिखाते हैं एवं ऋद्धि-सिद्धियों से संपन्न बन जाते हैं—इसका मूल कारण खोजते हैं, तो एक ही तथ्य हाथ लगता है—उन्होंने अपने अंदर छिपे ‘महान’ तत्व को पहचाना, साधना द्वारा उसे जगाया एवं स्वयं को ऊंचा उठाया। ऋषि, देवदूत, महामानव स्तर तक पहुंचने में उन्हें आत्म-परिष्कार, व्यक्तित्व निर्माण की जीवन साधना से लेकर अपने परम चेतना को जगाने की साधना करनी पड़ी और उन्होंने वह सब कुछ पा लिया, जिसे मानव के लक्ष्य की चिरंतन प्यास एवं समय की तत्कालीन आवश्यकता कह सकते हैं।

कैसा है यह विराट्-विलक्षण जो अपने ही भीतर समाया है और हम स्वयं ही उससे अनजान बने हुए हैं। जानकारी होने पर इस भांडागार के सदुपयोग की व्यवस्था बनाई जाने पर पिंड के चेतन पक्ष को ऊंचा उठाया जा सकना एवं ब्राह्मी चेतना के विराट् समुद्र से उसका संबंध जोड़ पाना संभव है।

योग वाशिष्ट में उपदेश देते हुए महर्षि वशिष्ठ भगवान राम से कहते हैं—

‘‘रम्येय देह नगरी राम सर्व गुणान्विता ।

अज्ञस्येय मनन्तानां दुःखानां कोशमालिका ।

अस्यत्विय मनन्तानां सुखानां कोशमालिका ।।’’

अर्थात, हे राम! यह देह नगरी बड़ी सुरम्य और गुण संपन्न है। यह ज्ञानियों के लिए सुखद और अज्ञानियों के लिए दुख देने वाली है।

कुछ वर्षों पूर्व बंबई के एक विद्वान श्री बी0जे0 रेले ने एक पुस्तक लिखी थी—‘दी वैदिक गॉड्स एज फिगर्स ऑफ बायोलॉजी’। इस पुस्तक में उन्होंने सिद्ध किया था कि वेदों में वर्णित आदित्य, वरुण, अग्नि, मरुत, मित्र, अग्नि आदि मस्तिष्क के स्थान विशेष में सन्निहित दिव्य शक्तियां हैं, जिन्हें जागृत करके अद्वितीय क्षमता संपन्न एवं विशिष्ट बना जा सकता है। डा0 नाडगिर एवं एडगर जे0 टामस ने संयुक्त रूप से पुस्तक की भूमिका लिखते हुए कहा है कि वैदिक ऋषियों के इस शरीर शास्त्र संबंधी गहन ज्ञान पर आश्चर्य होता है। उस साधनहीन समय में कैसे उन्होंने इतनी जानकारियां प्राप्त की होंगी, यह शोध का विषय है।

मस्तिष्कीय संरचना पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि यह एक मांस पिंड नहीं है वरन् जीवंत विद्युत भंडार है। उसमें चल रही हलचलें ठीक वैसी ही हैं जैसी किसी शक्तिशाली बिजलीघर की होती हैं। जितने हमारी आकाशगंगा में तारे हैं, करीब उतने ही (एक खरब से अधिक) न्यूरान्स (स्नायुकोष) मस्तिष्क में हैं। इन तंत्रिकाओं को आपस में जोड़ने वाले तंतु और उनके इन्सुलेशन खोपड़ी में खचाखच भरे हैं। एक तंत्रिका कोशिका का व्यास एक सेंटीमीटर के हजारवें भाग से भी कम है और उसका वजन एक औंस के साठ अरबवें भाग से अधिक नहीं है। तंत्रिका तंतुओं से होकर बिजली के जो इम्पल्स दौड़ते हैं वही ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से आवश्यक सूचनाएं उस केन्द्र तक पहुंचाते हैं। इन्द्रियों द्वारा उपलब्ध सूचनाओं और विचारों की हलचलें हर क्षण सोते-जागते मस्तिष्क को इतना अधिक व्यस्त रखती हैं कि इन्हें इलेक्ट्रो एनसेफेलोग्राम (ई0ए0जी0) द्वारा विद्युतीय तूफान की तरह देखा जा सकता है।

मानव निर्मित सर्वोत्तम कंप्यूटर में अधिक से अधिक दस लाख इकाइयां होती हैं और प्रत्येक इकाई के पांच-छः से अधिक संपर्क सूत्र नहीं होते। किन्तु मस्तिष्क की अरबों कोशिकाएं और उनमें से प्रत्येक के लाखों संपर्क सूत्र और उनके भीतर प्रवाहित न्यूरोट्रांसमीटर्स की भिन्नता वैज्ञानिकों को इसी निष्कर्ष पर पहुंचाती है कि इन अद्भुत शक्तियों को समाहित करने वाला कम्प्यूटर को बनाने लायक सामर्थ्य मानव में नहीं है। यदि सैद्धांतिक स्तर पर एक ढांचा भी ऐसा खड़ा करने का प्रयास किया जाय तो वह इतना बड़ा होगा कि उसके लिए यह पृथ्वी भी छोटी पड़ेगी।

मस्तिष्क रूपी इस चेतन शक्ति भंडार के न्यूरान समूहों में से यदि एक को भी किसी प्रविधि द्वारा सजग-सचेत किया जा सके तो दस अरब न्यूरान्स, दस अरब डायनोमों का काम कर सकते हैं। उस गर्मी-प्रकाश एवं विद्युत क्षमता का अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता। इसी कारण वैज्ञानिक कहते हैं कि अभी वे मस्तिष्क के कुल सत्रह प्रतिशत भाग को जान पाए हैं एवं शेष 83 प्रतिशत के बारे में उन्हें कुछ जानकारी नहीं है। इस सत्रह प्रतिशत में से भी दैनंदिन जीवन में मात्र सात प्रतिशत विद्युत क्षमता उपयोग में आ पाती है, शेष का या तो प्रयोग ही नहीं हो पाता या प्रयासों के अभाव में वह व्यर्थ ही नष्ट हो जाती है।

जिस मस्तिष्क रूपी संसार में इस पृथ्वी पर बसे मनुष्यों से भी कई गुनी अधिक स्नायुकोषों की आबादी बसी हुई है, उसकी सामर्थ्य कितनी विलक्षण है, इसका अनुमान इन व्यक्तियों की उपलब्धियों को देखकर लगाया जा सकता है जिन्होंने अपने प्रतिभा के बलबूते वैज्ञानिकों को भी आश्चर्यचकित किया है।

कैपटाउन में एक इंजीनियर वानवांडे निवास करते हैं। उनके बारे में कहा जाता है कि समय उनकी इच्छा के अनुसार चलता है। उनका दिमाग उन्हीं निर्देशों का पालन करता है जो वे स्वयं को देते हैं। वे सोने जा रहे हों और आप कहें ‘‘महोदय! अभी आठ बजे हैं, आप ठीक बारह बजकर सात मिनट उनसठ सैकिंड पर उठें।’’ एक सैकिंड का भी अंतर किए बिना वे उसी समय जग जाते हैं। इसका रहस्य बताते हुए वे कहते हैं—‘‘मैंने अपने मस्तिष्क को इस प्रकार साधा है कि अचेतन-चेतन दोनों की स्थिति में मैं अपने क्रिया-कलाप नियंत्रित कर सकता हूं।’’

लार्ड मैकाले ने इंग्लैंड का इतिहास आठ जिल्दों में लिखा। इसके लिए उन्हें किसी संदर्भ पुस्तक की आवश्यकता नहीं पड़ी। लोग उन्हें चलता-फिरता पुस्तकालय कहते थे। उन्हें सैकड़ों घटनाएं, तिथियां, व्यक्तियों के नाम जबानी याद थे। इसी प्रकार ब्रिटिश संग्रहालय के अधीक्षक रिचर्ड गार्नेट अपनी स्मरण शक्ति-सैकड़ों संदर्भों व अनेक भाषाओं को कंठस्थ रखने के कारण विश्वविख्यात हैं। इन्हें अपने पुस्तकालय की सहस्रों पुस्तकों के नाम एवं रखने का स्थान तक याद थे। एक बार फ्रांस की अदालत में एक मुकदमा पेश हुआ जिसमें प्रस्तुत साक्षियों व कानूनी तथ्यों के कारण अपराधी के बचने की कोई आशा न थी। एकमात्र आशा की किरण थी राजा से क्षमादान परंतु राजा 5 दिनों के लिए बाहर थे। अपराधी के एटार्नी प्रख्यात विधिवेत्ता लुई बर्नार्ड ने अपराधी के पक्ष में तर्क देना आरंभ किए और जूरी के समक्ष वह 120 घंटे तक अर्थात् पांच दिन पांच रात तक बराबर बोलता रहा। इस अवधि में उसने कानून शास्त्र के दुनिया भर के पन्ने जबानी अदालत के सामने रखकर अपनी आश्चर्यजनक क्षमता का सिक्का जमा दिया। इसी बीच राजा आ गए, अपराधी को राजा के समक्ष प्रस्तुत होने का अवसर मिला और तदुपरांत क्षमादान भी।

‘गणित की जादूगरनी’ कही जाने वाली भारतीय महिला शकुंतला देवी अपनी अद्वितीय मानसिक शक्ति के कारण विश्वभर में जानी जाती है। वे जितनी तेजी से गणित की गुत्थियों का हल निकालती हैं, उस शीघ्रता से कम्प्यूटर भी काम नहीं कर पाता। अपनी मनःशक्ति के बारे में उनकी मान्यता है कि यह केन्द्रित मन की मात्र छोटी सी शक्ति का नमूना भर है। यदि समग्र मनःसामर्थ्य को सुनियोजन किया जा सके तो इससे भी विलक्षण उपलब्धियां प्राप्त हो सकती हैं।

उपर्युक्त उदाहरण पिंड के एक घटक मस्तिष्क की सामर्थ्य की एक छोटी-सी झांकी भर देते हैं। चेतन जगत से प्रत्यक्ष जुड़े इस मांस पिंड को भानुमती का पिटारा कहा जाये तो अत्युक्ति न होगी। मस्तिष्क में भरे एक खरब से भी अधिक स्नायुकोषों को अद्भुत विशेषताओं से संपन्न महादेव कहा जा सकता है। इनमें संचित स्मृतियां माइक्रोफिल्म की भांति सुरक्षित रहती हैं और उत्तेजित किए जाने पर वे उभर कर आती हैं। डा0 पेनफील्ड एवं डा0 डलगोर्डो के इस विषय में मनुष्यों व पशुओं पर प्रयोग पहले ही ख्याति प्राप्त कर चुके हैं। उनसे ज्ञात होता है कि मस्तिष्क का टेम्पोरल कार्टेम्स, पेराइटललोब  व लिम्बिक सिस्टम इतना रहस्यमय तिलिस्मों से भरा हुआ है कि इस विषय में किए गए अनेकानेक प्रयोगों ने वैज्ञानिकों को अपनी अज्ञानता का बोध तो कराया ही है, एक अद्भुत रोमांचकारी लीला जगत भी दिखाया है जो इस पिंड में विद्यमान है।

काया की सूक्ष्म संरचना का वर्णन करते हुए ऋषिगणों ने एक ऐसे विद्युत प्रवाह के मस्तिष्क में अवस्थित होने की कल्पना की है जो मस्तिष्क के अनेकानेक महत्वपूर्ण केन्द्रों, स्नायुकोषों की परतों तथा स्नायु-रसायन संदेश वाहकों के रसस्रावों को उत्तेजित करता है। मस्तिष्क में स्थिति इस फव्वारे को वांछित केन्द्रों तक भेजकर उन्हें उत्तेजित कर प्रसुप्त को जगाया जा सकना संभव है, इसे अब वैज्ञानिक भी मानने लगे हैं। संभवतः इसी तथ्य को उपनिषद्कार ने इस तरह अभिव्यक्त किया है—

‘‘तस्य सर्वेषु लोकेषु कामचारो भवति ।’’

—छान्दोग्यः

अर्थात्, सहस्रार को प्राप्त कर लेने वाला योगी संपूर्ण भौतिक विज्ञान का अधिष्ठाता बन जाता है, सर्व समर्थ हो जाता है।

विपुल संपदा से भरे-पूरे इस पिंड में बहुत कुछ भरा पड़ा है। ‘साधना से सिद्धि’ के समस्त उदाहरण इसी एक तथ्य की साक्षी हैं कि साधकों ने इसी चेतना घटक को सामर्थ्यवान बनाया और बदले में ऋद्धियां-सिद्धियां पायीं। यह सिद्धांत सदा से ही शाश्वत रहा है और आगे भी जब भी किसी को इस मार्ग पर चलना होगा, इसी को अपना आधार बनाना होगा।

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