आगत कठिनाइयों को देखकर निढाल हो बैठना और रोते-कलपते समय गंवाना, विपत्ति को दूना करने के समान है। हमें यह मानकर ही चलना पड़ेगा कि जीवन आरोह-अवरोध के ताने-बाने से बुना गया है। धूप, छांह की तरह सफलताओं और असफलताओं की उभयपक्षी हलचलें होती ही रहती हैं और होती ही रहेंगी। सर्वथा सुख-सुविधाओं से भरा जीवन क्रम कदाचित् ही कोई जीता है। ज्वार-भाटों की तरह उठाने और गिराने वाली परिस्थितियां अपने ढंग से आती और अपनी राह चली जाती हैं। तट पर बैठकर उतार-चढ़ाव का आनंद लेने वाले ही जीवन नाटक के अनुभवी कलाकार कहे जा सकते हैं।
सदा दिन ही बना रहे रात कभी आये ही नहीं, भला यह कैसे हो सकता है? जन्मोत्सव ही मनाए जाते रहें, मरण का रुदन सुनने को न मिले यह कैसे संभव है। सुख की घड़ियां ही सामने रहें, दुख के दिन कभी न आयें – यह मानकर चलना यथार्थता की ओर से आंखें मूंद लेने के समान है। बुद्धिमान वे हैं जो सुखद परिस्थितियों का समुचित लाभ उठाते हैं और दुख की घड़ी आने पर उसका सामना करने के लिए आवश्यक शौर्य और साधन इकट्ठा करते रहते हैं।
ऐसे ईर्ष्यालु इस दुनिया में कम नहीं जो किसी का सुख-संतोष फूटी आंखों नहीं देख सकते। जिनके अंधेर-अनाचार में बाधा पड़ती है वे भी शत्रु बन बैठते हैं। अनुचित लाभ उठाने के उत्सुक भी शोषण एवं आक्रमण से बाज कहां आते हैं। इन आसुरी अस्तित्व अनादि काल से रहा है और अनंत काल तक रहेगा। उनसे बच निकलना कठिन है। हां, इतना हो सकता है कि अपना शौर्य-साहस इतना विकसित कर लिया जाय कि उन्हें छेड़छाड़ करने का साहस ही न हो व्यक्तिगत समर्थता के अतिरिक्त अपने साथी-सहकारी बढ़ाकर भी आततायियों की गतिविधियों पर अंकुश लगाया जा सकता है। प्रतिरोध और प्रतिकार की शक्ति बढ़ाकर ही आक्रमणकारियों से अपनी आंशिक सुरक्षा हो सकती है। उनका सामना ही न करना पड़े, कुछ अनुचित-अवांछनीय सामने आये ही नहीं, ऐसा सोचना आकाश कुसुम पाने जैसी बात या कल्पना है। अवरोधों से जूझने और संघर्षों के बीच अपना रास्ता बनाने के अतिरिक्त यहां और कोई रास्ता है ही नहीं।
परिस्थितियों की अनुकूलता और प्रतिकूलताओं से इन्कार नहीं किया जा सकता। शारीरिक संकट उठ खड़ा हो, कोई अप्रत्याशित रोग घेर ले यह असंभव नहीं। परिवार के सरल क्रम में से कोई साथी बिछुड़ जाये और शोक-संताप के आंसू बहाने पड़े यह भी कोई अनहोनी बात नहीं है। ऐसे दुर्दिन हर परिवार में आते हैं और हर व्यक्ति को कभी न कभी सहन करने पड़ते हैं। मनचाही सफलताएं किसे मिली हैं। मनोकामनाओं को सदा पूरी करते रहने वाला कल्पवृक्ष किसके आंगन में उगा है? ऐसे तूफान आते ही रहते हैं जो संजोई हुई साध के घोंसले उड़ाकर कहीं से कहीं फेंक दें और एक-एक तिनका बीनकर बनाए गए उस घरौंदे का अस्तित्व ही आकाश में छितरा दें, ऐसे अवसर पर दुर्बल मनःस्थिति के लोक टूट जाते हैं।
नियति क्रम से हर वस्तु का, हर व्यक्ति का अवसान होता है। मनोरथ और प्रयास भी सर्वदा सफल कहां होते हैं। यह सब अपने ढंग से चलता रहे पर मनुष्य भीतर से टूटने न पाए इसी में उसका गौरव है। समुद्र तट पर जमी हुई चट्टानें चिर अतीत से अपने स्थान पर जमी-अड़ी बैठी हैं। हिलोरों ने अपना टकराना बंद नहीं किया सो ठीक है, पर यह भी कहां गलत है कि चट्टान ने हार नहीं मानी।
न हमें टूटना चाहिए और न हार माननी चाहिए। नियति की चुनौती स्वीकार करना और उससे दो-दो हाथ करना ही मानवी गौरव को स्थिर रख सकने वाला आचरण है।