मन की प्रचंड शक्ति

मनोविकार हमारे सबसे बड़े शत्रु

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निराशा, चिंता, असंतोष अथवा उद्वेग किसी अभाव, आपत्ति अथवा विषमताओं के उपचार नहीं हैं। ये विकार स्वयं ही रोग और विपत्ति माने गए हैं। संसार में जो भी व्यक्ति सफल हुए हैं, उन्होंने अपने जीवन में निराशा, चिंता अथवा असंतोष को कभी अवसर नहीं दिया। उन्होंने विकट से विकट परिस्थितियों में अपने को इन विकारों से बचाया है। संसार में जो भी असफल होते हैं, उनकी असफलता का कारण अभाव अथवा प्रतिकूल परिस्थितियां नहीं होतीं। उनका एकमात्र कारण निराशा, चिंता अथवा असंतोष ही होता है। असफलता का निवास बाह्य परिस्थितियों की प्रतिकूलता में नहीं मनुष्य की प्रतिगामिनी भावनाओं में होता है।

निराशा एक मानसिक रोग है। यह मनुष्य की गतिशीलता को अस्वस्थ बना देता है। निराशावादी व्यक्ति प्रगति की भावना और उन्नति की जिज्ञासा से उदासीन हो जाता है। प्रगति अथवा उन्नति की बात मन में आते ही उसे ऐसा आभास होने लगता है, मानो वह अपने ऊपर कोई विपत्ति लाने की बात सोच रहा है। काम में प्रवृत्ति लाने से पूर्व ही उसे आपत्तियां, कठिनाइयां और असफलता दिखलाई देने लगती है। उसका साहस मर जाता है, उत्साह ठंडा पड़ जाता है। अपने को जहां का तहां पड़ा असुरक्षित अनुभव करता है। एक निराशावादी और मृत व्यक्ति में कोई विशेष अंतर नहीं होता। वह एक स्थिर शव की तरह होता है, एक चलती-फिरती लाश की तरह।

चिंता को चिता तक कहा गया है, किंतु चिंता रूपी चिता श्मशान की चिता से अधिक भयंकर होती है क्योंकि वह चिता मरे मनुष्य को जलाया करती है और यह जीवित मनुष्य को। चिंताग्रस्त मनुष्य अंदर ही अंदर गीली लकड़ी की तरह सुलगा करता है। इस जलन में सबसे पहले उसकी प्रसन्नता जलती है, फिर जीवन की आशाएं, अनंतर क्षमताएं और अंततः शरीर। चिंता की आग इस प्रकार क्रम-क्रम से जलाकर मनुष्य का सारा जीवन खाक कर डालती है।

चिंता की चिता में बैठा मनुष्य अपनी यातनापूर्ण मृत्यु की प्रतीक्षा करने के सिवाय और कुछ नहीं कर सकता। जिस वृक्ष में आग लग गई हो अथवा जिसे दावाग्नि ने झुलस डाला हो उससे हरियाली की आशा करना दुराशा मात्र है। ऐसे दाव-दग्ध वृक्ष में न नए पत्ते उग सकते हैं, न फूल खिल सकते हैं और न फल आ सकते हैं। उसका ठूंठ होकर निरुपयोगी हो जाना निश्चित है।

प्रगति और उन्नति का उत्साह मन में उत्पन्न होता है। बुद्धि उसकी योजना बनाती है और शरीर उसको कार्यान्वित करता है। जिसका मन और मस्तिष्क चिंता से तप रहा हो, शारीरिक स्वास्थ्य उसकी आग में आहुति बन रहा हो, ऐसे व्यक्ति के हृदय में उत्साह का जन्म होना असंभव है। बुद्धि का कुंठित तथा कलुषित हो जाना स्वाभाविक और अस्वस्थ शरीर तो किसी योग्य रह ही नहीं सकता। इस प्रकार जिस मनुष्य की यह तीनों शक्तियां बेकार हो जायं, उसे प्रगति और उन्नति के शब्द अपने शब्दकोष से निकाल ही देने चाहिए।

असंतोष भी एक प्रकार की मानसिक व्याधि ही होती है। यह मनुष्य की सुख-शांति को हरण कर लेता है। ‘संतोषी सदा सुखी’ की तरह कहना होगा-‘असंतोषी सदा दुःखी’। यह गलत भी नहीं है। असंतोष का जन्म अभाव से बतलाया गया है। जिसके पास काम न हो, भोजन-वस्त्र का अभाव हो, जीवनयापन के सामान्य साधनों की कमी हो, उसे असंतोष होना स्वाभाविक है। किन्तु यह असंतोष वह असंतोष नहीं होता, जिसकी मानसिक व्याधि कहकर निंदा की जाती है। इस प्रकार का अभावजन्य असंतोष वास्तव में असंतोष न होकर आवश्यकता का दबाव होता है। यह बुरा नहीं। यदि आवश्यकताओं का दबाव अकारण सह लेने का अभ्यास बना लिया जाये तो मनुष्य सामान्य स्थिति से भी नीचे गिरकर दीन और दरिद्री ही बन जाए। कहीं से कुछ मिल गया खा लिया, नहीं तो भूखे पड़े तरस रहे हैं। कपड़ों के स्थान पर चिथड़ों को ही लपेटे हैं। इस प्रकार का विवशतापूर्ण जीवन मनुष्य के योग्य नहीं। वह तो बुद्धि एवं पुरुषार्थ सं वंचित पशुओं का जीवन है। आवश्यकताएं मनुष्य को पुरुषार्थ एवं परिश्रम की प्रेरणा देती हैं। उनकी मांग का उचित उत्तर दिया ही जाना चाहिए।

मानसिक व्याधि वाला असंतोष दूसरी चीज है। उसका जन्म अभाव अथवा आवश्यकता से नहीं, बल्कि लोभ और तृष्णा से होता है। यह एक असात्विक स्वभाव और आसुरी वृत्ति होती है जो अकारण ही यातना दिया करती है। इस वृत्ति का व्यक्ति सब कुछ होने पर भी उसके सुख से वंचित ही रहता है। असंतोष की पीड़ा उसे घेरे ही रहती है। लोभ के कारण असंतोषी व्यक्ति संपत्ति एवं संपन्नता की दशा में भी अपने को अभावग्रस्त अनुभव किया करता है। लक्ष्मी का भंडार, पृथ्वी की वसुधा और कुबेर का कोष क्यों न दे दिया जाए किन्तु असंतोष का रोगी तब भी संतुष्ट न होगा। तब भी उसे अभाव और आवश्यकता अनुभव होती रहेगी। ऐसी वितृष्णा व्यक्ति संपन्नता में भी विपन्नता का दुःख भोगने पर मजबूर रहता है।

उद्वेग एक तरह का पागलपन होता है। उत्तेजना, आवेग और आवेश आदि के सारे उन्माद इसी के अंतर्गत आते हैं। उद्वेग दूषित व्यक्ति अकारण ही अपने भीतर तना-तना सा रहता है। वह किसी बात अथवा काम के विषय में पहले तो मौन रहता है, किन्तु जब खुलता है तो विस्फोट की तरह। उससे उसकी बात अथवा काम बिगड़ जाता है। उद्वेग मानसिक न्यूनता का लक्षण है। जो अंदर से गंभीर और संपन्न होते हैं, वे सब कुछ शांतिपूर्वक सोचते और सरलतापूर्वक करते हैं। इसलिए उनके सारे काम बनते चले जाते हैं, किसी अभाव अथवा आवश्यकता से दुखी होकर उद्वेगी व्यक्ति या तो अपने आप पर खीझते रहते हैं अथवा दूसरों से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में लड़ते-झगड़ते रहते हैं। जिस काम में हाथ डालते हैं, उसको सुचारू रूप से करने के बजाय उससे झगड़ते से रहते हैं1 जो काम करेंगे बेगार की तरह। उनका चंचल तथा क्षुब्ध मन काम में तन्मयता आने ही नहीं देता। किन्हीं अभावों अथवा कमियों को दूर करने की उत्सुकता में उद्वेग का प्रयोग करने से अपकृत्यता के सिवाय कृतकृत्यता प्राप्त नहीं होती।

जीवन की पूर्णता और सफलता के लिए मनुष्य को सबसे पहले निराशा, असंतोष, चिंता अथवा उद्वेग आदि के दोषों का परिमार्जन करके उनके स्थान पर आशा, निश्चिंतता, संतोष तथा गंभीरता के गुण विकसित करने होंगे। यह गुण सृजनात्मक प्रकृति के होते हैं। इनके द्वारा मनुष्य की शक्तियों का क्षय नहीं अभिवर्द्धन होता है। उनकी कार्य क्षमता बढ़ती है, दक्षता तथा उत्साह की प्राप्ति होती है।

आशा का विकास सद्विचारों द्वारा आसानी से किया जा सकता है। मनुष्य को सोचना चाहिए कि उसको जीवन इसलिए नहीं मिला कि उसे निराशा के अंधकार में इस प्रकार बिता दिए जाये। वह संसार में आनंद खोजने और पाने के लिए भेजा गया है। उसका लक्ष्य प्रकाश है अंधकार नहीं। वह एक आत्मावान् प्राणी है। उसे संसार की जरा-जरा सी प्रतिकूलताओं से निराश होकर इस प्रकार बैठे न रहना चाहिए। उसे जीवन की सफलता और प्रगति के उद्देश्य से, परिस्थितियों से संघर्ष करना चाहिए, लोहा लेना चाहिए। निराश हो जाने का अर्थ है—जीवन-समर में हथियार डाल देना, हार मानकर पीछे हट जाना।

इस प्रकार हथियार डालकर पीछे हट जाने से भी प्रयोजन पूरा नहीं होता। निराश होने से आज तक किसी का दुख दूर नहीं हुआ है। दुख-कष्टों से उन्हीं को छुटकारा मिलता है, जो वीर पुरुष की तरह हजार बार हारने पर भी साहस नहीं हारते। हर बार एक नई तैयारी के साथ खड़े होकर अपने कर्तव्य में लग जाते हैं और अंततः परिस्थितियों, प्रतिकूलताओं तथा विषमताओं पर विजय प्राप्त कर ही लेते हैं। असफलताओं से निराश होकर बैठे रहने के बजाय आंख खोलकर संसार में देखना चाहिए। देखने में आएगा कि अपने जैसे न जाने कितने मनुष्य नित्य ही असफलताओं और विषमताओं में फंसते रहते हैं किन्तु वे हार मानकर बैठे नहीं रहते और न निराश होकर संघर्ष से मुंह मोड़ लेते हैं। वे नए उत्साह, नए साहस और नए उपाय के साथ फिर मैदान में जाते हैं और अंत में विजय प्राप्त ही कर लेते हैं। संसार में सफलताओं के जो भी उन्नत स्तंभ खड़े दीखते हैं, वे सब यों ही एक साथ उठते नहीं चले गए हैं। पूरा होने तक उन पर हजारों वार पड़े हैं, अनेक बार गिरे हैं, टूटे और मिटे हैं, किन्तु उनको उठाने वाले इन सब विपरीतताओं से निराश अथवा हतोत्साह नहीं हुए। वे सारे आघात सहते हुए अपने निर्माण कार्य में लगे रहे और अंत में इन उन्नत स्तंभों को स्थित करने में सफल हो ही गए। संसार में ऐसे उदाहरण होते हुए आपको निराश हो जाने का कोई कारण नहीं दीखता। उन्हीं की तरह आप में भी शक्ति तथा क्षमता है। निराशा छोड़िये और आशावाद के साथ पुनः मैदान में आइए, आपके सारे दुख दूर होंगे, आप एक सफल व्यक्ति बन जाएंगे।

यह सुरदुर्लभ मानव-जीवन बहुत मूल्यवान् उपलब्धि है। यह कल्पवृक्ष और कामधेनु की तरह फलदायी है। आप इससे जो चाहें प्राप्त कर सकते हैं। किन्तु यह फलदायक तभी होता है, जब इसे हरा-भरा और प्रसन्न रखा जाए। यदि आप इसको चिंता की चिता में जलाते रहेंगे, तब तो यह सूख जाएगा। इसके सारे गुण, सारी विशेषताएं और सारे अनुग्रह नष्ट हो जाएंगे। चिंता छोड़िए, यह मनुष्य को जीवित अवस्था में ही मृत बना देती है। चिंता में जल-जलकर मर जाने से कहीं अच्छा है कि आप पुरुषार्थ के मैदान में ही इसका बलिदान दे दें। इस निरर्थक मृत्यु से तो वह सार्थक अंत कहीं अच्छा है। उसमें एक आदर्श और एक ऊंचाई तो है। चिंता छोड़कर प्रसन्न होइए। पुरुषार्थ करिए, आप अवश्य सफल होंगे।

आप अभावग्रस्त हैं। जरूरतों से पीड़ित हैं तो इसमें क्षुब्ध अथवा असंतुष्ट रहने का क्या काम? असंतोष आपकी इन पीड़ाओं का उपचार नहीं है। इनका उपचार है, अधिकाधिक परिश्रम एवं पुरुषार्थ। यह बेपैसे का उपचार करने में आपका क्या जाता है? पौरुष तथा श्रमशीलता की शक्ति आपको ईश्वर की ओर से मिली ही है। उसका उपयोग करिए तथा अपनी पीड़ाओं से मुक्त हो जाइए और यदि संपन्नता की स्थिति में भी आप असंतुष्ट रहते हैं तो समझ लीजिए कि आप लोभ तथा तृष्णा के पिशाच से ग्रस्त हैं। इसका उपचार संतोष तथा उदारता ही है। अपनी वृत्ति पर विचार कीजिए, उसे बुरा समझकर त्याग दीजिए। लोभ तथा तृष्णा का उपचार उसका तिरस्कार तथा संसार की नश्वरता में विश्वास करना है। इन्हीं उपायों का अवलंब लीजिए, आप असंतोष के पिशाच से छूट कर सुखी हो जाइये।

कोई भी विपत्ति अथवा आपदा क्यों न आ जाए, भूल कर भी उद्वेग में मत बह जाइए। ईश्वर की कृपा में अखंड विश्वास रखिए। अपनी आत्मा तथा बुद्धि-विवेक का सहारा लीजिए। शांत एवं गंभीर बने रहिए। सारी आपदाएं आप पर से ऐसे गुजर जाएंगी, जैसे किसी सुदृढ़ वृक्ष पर से तूफान निकल जाता है। उद्वेग एक मानसिक त्रुटि है। इसे नहीं रहने देना चाहिए। इसके प्रवाह से प्रेरित होकर किए गए काम बनने के बजाय बिगड़ जाते हैं। यह एक उन्माद तथा पागलपन होता है, जो विवेकशील मनुष्य के लिए अशोभनीय है। आप ईश्वर के अंश हैं। उसी की तरह स्थिर, गंभीर तथा अडिग रहकर अपना सृजन करते जाइए। आप सफलता के साथ आनंद के अधिकारी बनेंगे।

निराशा, चिंता, असंतोष अथवा उद्वेग किन्हीं समस्याओं का हल नहीं है। यह मानव जीवन की प्रकृति के दोष हैं, जो काम बनाने के बजाय बिगाड़ देते हैं। इनको त्याग कर मनुष्य को सृजनात्मक गुणों का ही अवलंब लेकर चलना चाहिए। तभी वह सफल होगा और तभी सुखी तथा संतुष्ट।

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