मन की प्रचंड शक्ति

मन को दुर्बल न बनने दें

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सिद्धि का आधार शक्ति माना गया है। संसार का कोई भी उद्योग, कोई भी पुरुषार्थ और कोई भी कार्य शक्ति के बिना नहीं किया जा सकता। कोई बड़ा ही नहीं, एक साधारण और सामान्य कार्य में भी शक्ति की आवश्यकता पड़ती है। निःशक्त मनुष्य संसार में कुछ भी नहीं कर सकता।

संसार में प्रधानतः दो शक्तियां काम करती हैं। एक शारीरिक बल, दूसरा मानसिक बल। आगे की अन्य शक्तियां जैसे बौद्धिक बल, आध्यात्मिक अथवा आत्मिक बल भी पूर्वोक्त दो बलों के आधार पर ही पाए और विकसित किए जाते हैं।

शारीरिक बल और मानसिक बल में भी मानसिक बल की प्रधानता है। शारीरिक बल का अपने आपमें कोई अधिक महत्व नहीं है। मनोबल का सहयोग पाए बिना शारीरिक बल निकम्मा बना रहता है। बहुत बार देखा जा सकता है कि शारीरिक बल कम होने पर भी लोग मनोबल के आधार पर बहुत से काम कर जाते हैं। शरीर बल प्रधान सैनिक जिनका मानसिक बल निर्बल होता है, मनोबल प्रधान और न्यून शारीरिक बल वाले सैनिकों से परास्त हो जाते हैं। जंगल में शेर की तुलना में हाथी, गैंडे, सूअर आदि बहुत से जानवर शरीर बल में बहुत अधिक होते हैं, किन्तु मनोबल की कमी के कारण शेर से डरते और उसका आतंक मानते रहते हैं। वास्तविक बल मनोबल ही होता है, शारीरिक बल तो मात्र यांत्रिक बल ही होता है।

शरीर में क्षमता होते हुए भी जब मनुष्य का मन असहयोगी हो जाता है तो वह जरा देर भी काम नहीं कर सकता। मन में उत्साह और सहयोग होने पर यदि एक बार शरीर थका भी हो तो भी मनुष्य बहुत देर तक काम करता रहता है। शरीर की सारी क्रियाएं मन की सहायता से ही संपादित होती हैं।

बौद्धिक बल उत्पन्न करने के लिए भी मानसिक अभ्यास की आवश्यकता होती है। मनुष्य की बुद्धि का विकास अध्ययन, अनुभव और विषय में गहरे बैठने से होता है। जिसका मन निर्बल है, असहयोगी या उत्साहहीन है, वह न तो अध्ययन का परिश्रम कर सकता है, न सजग रहकर अनुभव संचय कर सकता है और न उत्साह पूर्वक किसी विषय में गहरे बैठ सकता है। यदि वह यह सब करता है तो भी मानसिक सहयोग के अभाव में कुछ लाभ नहीं उठा सकता।

न जाने कितने उत्साह अथवा अभिरुचि से रहित मन वाले लोग वर्षों पढ़ते रहते हैं, नौकरी और व्यापार करते हैं, किन्तु प्रगति के नाम पर एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाते। पूरी सिद्धि तो उनके लिए असंभव होती है। मन का असहयोगी, विद्रोही, निरुत्साही, चंचल आदि होना उसकी निर्बलता के ही लक्षण होते हैं।

जिन मनुष्यों के मन बलवान और सतेज होते हैं, वे कम समय में ही पर्याप्त विकास कर लेते हैं। जो काम हाथ में लेते हैं, उत्साह और अभिरुचि से करते हैं। इस गुण के कारण उनकी ग्राहकता भी बढ़ी-चढ़ी रहती है। क्रम-क्रम से ज्ञान और गुणों को हृदयंगम करते चले जाते हैं। मनोबली लोगों का आत्मविश्वास बड़ा प्रबल होता है। उनको संसार का कोई काम कठिन और दुःसह मालूम ही नहीं होता। आत्मविश्वास के कारण वे अपने को हर काम के योग्य समझा करते हैं। जो भी काम उन्हें सौंप दिया जाता है, उसे पूरा करके दिखलाते हैं।

आध्यात्मिक विकास तो मनोबल के अभाव में असंभव है। आध्यात्मिक विकास के लिए वृत्तियों और इंद्रियों पर नियंत्रण करना होता है। वृत्तियां तथा इंद्रियां मन के अधीन होती हैं। यदि मन बलवान और स्वस्थ है तो उसकी सहायता से वृत्तियों और इंद्रियों को वश में किया जा सकता है। यदि मन कमजोर और अस्वस्थ है तो मनुष्य की वृत्तियां और इंद्रियां शासनहीन हो जाएंगी। वे अपनी सत्ता स्वतंत्र कर लेंगी। तब किसी दशा में भी उन्हें वशवर्ती नहीं किया जा सकता।

आध्यात्मिक विकास के लिए अनेक तरह के नियम, संयम और व्रतों का निर्वाह करना पड़ता है। बहुत सी साधनाओं में उतरना पड़ता है। साधना और संयम का यह कार्यक्रम केवल शारीरिक बल के आधार पर नहीं किया जा सकता। इसके लिए मनोबल की आवश्यकता होती है। जिसका मन शक्तिशाली और अनुकूल होता है, वह किसी भी विकार, वेग अथवा उद्वेग पर आसानी से नियंत्रण पा सकता है। जिसका शरीर शक्तिशाली हो पर मन निर्बल हो तो ऐसे आदमी की आसुरी प्रवृत्तियां बड़ी प्रबल रहती हैं। वह तो अपने वेगों और विकारों को जरा देर भी नहीं रोक सकता। संसार के सारे शासन, अनुशासन, नियम और संयम मनोबल के आधार पर सफल बनाए जा सकते हैं, शारीरिक बल के आधार पर नहीं। किसी भी क्षेत्र में सफलता के लिए मानसिक बल की अनिवार्य आवश्यकता है। उसे जागृत और विकसित करते ही रहना चाहिए।

निर्बल मन वाले कोई बड़ा काम तो दूर सामान्यतम कामों से भी घबरा जाते हैं। कोई भी प्रसंग उपस्थित होते ही वे भय, आशंका और संदेह के वशीभूत हो जाते हैं, फिर चाहे उसे उस प्रसंग में भय, आशंका अथवा संदेह का कारण हो या न हो। वास्तविकता यह है कि भय का कारण प्रसंग अथवा परिस्थितियों में नहीं होता, उसकी जड़ मनुष्य के अपने निर्बल मन में ही होती है। भय, आशंका, कायरता आदि दोषों का जन्म मनुष्य के हृदय से ही होता है। इनका हेतु वह मानसिक कमजोरी ही होती है, जो किन्हीं भूलों अथवा भ्रमों से पैदा हो जाती हैं।

यदि भय और आशंकाओं का संबंध मनुष्य की हृदय स्थिति से न होता और उनका निवास प्रसंग अथवा परिस्थितियों में होता तो वह उस स्थिति में सभी मनुष्यों पर समान रूप से प्रतिक्रियायित होना चाहिए। जब ऐसा होता नहीं, किसी भयानक परिस्थिति को देखकर जहां कोई एक बुरी तरह डरकर, घबराकर भागने का रास्ता खोजने लगता है, वहां कोई दूसरा उसी परिस्थिति में अपने संतुलन और साहस के आधार पर वीरतापूर्ण उसका सामना करने के लिए उत्साहित हो उठता है। यह अंतर परिस्थिति का नहीं केवल मनःस्थिति का होता है। जिसका मन निर्बल और कायर होगा, उसका घबरा जाना स्वाभाविक है। जिसका मनोबल बढ़ा-चढ़ा होगा, उसके मन में भय अथवा पलायन का भाव ही न जायेगा। वह तो ताल ठोक कर टक्कर लेने को उद्यत हो उठेगा।

मनुष्य की सारी बाह्य क्रियाओं की जड़ उसके मन में ही होती है। मनुष्य की शारीरिक क्रियाओं का संचालक मन ही होता है। मन स्वस्थ, बलवान और संतुलित होगा, तो क्रियाएं सुंदर, सतेज और व्यवस्थित होंगी। मन निर्बल और अस्थिर होगा, तो क्रिया-कलाप भी सारहीन और अस्त-व्यस्त होंगे।

कारण कोई भी रहे हों, किन्तु जिनके मन क्षीण, निर्बल और निस्तेज हो जाते हैं, उनका सारा जीवन भय, आशंकाओं, कट्टरता और संदेहों से भरा रहता है। मनोहीन मनुष्य हर बात में भयानक घटनाओं, संभावनाओं और परिणामों की कल्पना किया करते हैं। उन्हें सब ओर, सब जगह अमंगल और अकल्याण ही दिखाई देता है। जिस प्रकार कायर और भीरु सिपाही को मोर्चे पर सिवाय मौत के और कुछ दिखाई नहीं देता, जबकि वहां पर विजय, यश और प्रतिष्ठा की भी संभावना होती है, उसी प्रकार निर्बल मन वाले को सब जगह असफलता और आशंका ही दीखती रहती है, जबकि सभी क्षेत्रों और कार्यों में दूसरे लोग सफल और कृतकृत्य होते रहते हैं।

निर्बल मन वालों की विचारधारा प्रतिगामिनी हो जाती है। ऐसा मनुष्य यदि एक सफल और एक असफल आदमी को एक साथ देखता है तो भी वह असफल व्यक्ति की स्थिति से प्रभावित होता है। वह सोचता है कि यदि मैं भी इस काम को करूं तो असफल हो जाऊंगा। उसका विश्वास उस सफल व्यक्ति पर नहीं जाता और न अपने लिए उसे उदाहरण ही बना पाता है। कायर व्यक्ति जिस प्रकार मैदान छोड़कर भागने वालों को अपना आदर्श बनाता है, मोर्चे पर डटने वालों को नहीं, उसी प्रकार मनोहीन व्यक्ति भी असफल, अकर्मण्य और अग्राह्य उदाहरणों को अपना आदर्श बनाता है।

निर्बल मन वाला व्यक्ति स्वभावतः निराशावादी होता है। उसे पग-पग पर अनर्थ ही दिखाई देता है। साधारण सी बीमारी जैसे सर्दी-जुकाम, खांसी या बुखार आ जाने पर बुरी तरह घबरा उठता है। सोचने लगता है कहीं सर्दी बढ़कर निमोनिया न बन जाये। कहीं ऐसा न हो कि खांसी-बुखार मिलकर हमें यक्ष्मा कर दें। जरा-सी चोट लग जाने पर उसे ऐसा लगता है मानो उसकी हड्डी टूट गई है। किसी रग में चोट आ गई है, तो सोचना चाहिए कि उसकी मृत्यु हो सकती है। नौकरी में जरा-सी भूल हो जाने पर ऐसा घबरा जाता है, जैसे उसकी बर्खास्तगी का फरमान आने वाला हो। व्यापार में जरा-सा घाटा आते ही उसे अपना घर-मकान नीलाम होता दिखाई देता है। निराशा के दोष के कारण उसे अनर्थ के सिवाय यह विचार कदाचित ही आता है कि मनुष्य की जीवनी शक्ति बड़ी बलवती होती है, यह जरा-सी बीमारी मेरा क्या बिगाड़ सकती हैं, मैं इसे उपचार, आहार-विहार और नियम-संयम द्वारा जड़-मूल से नष्ट कर दूंगा।

नौकरी में भूल हो जाने पर वह यह नहीं सोच पाता कि धोखे से गलती हो गई, आगे के लिए सावधान रहूंगा। आवश्यक होगा तो अपनी गलती के लिए क्षमा मांगकर सारी स्थिति सुधार लूंगा। व्यापारिक घाटे के प्रसंग में वह इस प्रकार सोच करने से वंचित रहता है कि व्यापार में हानि-लाभ तो चलता ही रहता है, आज यदि हानि हो गई तो आगे लाभ भी होगा। मैं परिश्रम, पुरुषार्थ, सावधानी से साख के बल पर सारी कमी पूरी कर लूंगा। इस प्रकार अपनी निराश भावना के कारण मनो हीन व्यक्ति प्रकाश के स्थान पर अंधकार ही देखा करता है।

मानसिक दौर्बल्य अथवा मनोहीनता मानव जीवन के लिए भयानक अभिशाप है। अदम्य शारीरिक शक्ति और प्रचुर साधन होने पर भी मनोहीन व्यक्ति जीवन में असफल ही रह जाता है। जबकि मनोबली व्यक्ति सामान्य शारीरिक क्षमता और साधनों की कमी में भी अपने साहस, उत्साह और संलग्नता के बल पर क्षमता और साधनों की वृद्धि कर लेते हैं और संसार के सफल व्यक्तियों की पंक्ति में अपना स्थान बना लेते हैं।

यदि किन्हीं कारणों से कोई मानसिक दौर्बल्य का बंदी बन गया है तो ऐसा नहीं कि उसका यह अभिशाप दूर नहीं हो सकता। अवश्य ही दूर हो सकता है। प्रयत्न द्वारा संसार का हर काम संभव हो जाता है। यदि कोई अपने में मनोबल की कमी पाता है तो उसे चाहिए कि वह धीरे-धीरे उन कामों में पड़ना आरंभ करे, जिनसे उसे भय लगता है और अपनी सारी प्राप्त प्रबुद्ध शक्ति को लगाकर पुरुषार्थ करे। असफल होने पर जरा भी निराश न हो और बार-बार प्रयत्न करता चले। इस प्रकार धीरे-धीरे अभ्यास द्वारा उसका मनोबल बढ़ने लगेगा और एक दिन वह सुयोग्य बन जाएगा। मोटर, रेल और हवाई-जहाज चलाना सीखने वाले आरंभ में डरते हैं किन्तु तब भी वे लगनपूर्वक उस काम में लगे ही रहते हैं। धीरे-धीरे उनका मनोबल बढ़ता जाता है और एक दिन वे इतने आत्मविश्वासी हो जाते हैं कि बिना किसी शंका के दुरूह स्थानों पर भी अपना यान चलाते चले जाते हैं।

मनोबल मनुष्य का प्रधान बल है। इसकी वृद्धि किए बिना जीवन के क्या सामाजिक, क्या आर्थिक और क्या आध्यात्मिक किसी भी क्षेत्र में सफलता नहीं मिल सकती। अस्तु इस प्रधान बल को निरंतर बढ़ाते ही रहना चाहिए।

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