मन की प्रचंड शक्ति

मन को अपना मित्र बनाएं

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जिस प्रकार ज्ञान का कोई स्वरूप नहीं है वह मन की ही एक शक्ति है उसी प्रकार मन का भी कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। इच्छा और विचार करने की शक्ति का ही नाम मन है। इसलिए मनोनिग्रह के लिए, मन को वश में रखने के लिए सर्वोत्तम उपाय यह है कि उसे निरंतर विचार-निमग्न रखा जाय। एक विचार की दूसरे विचार से काट-छांट और स्थानापत्ति की जाती रहे।

मन में अधिकांश वही इच्छाएं उठती हैं जो तत्काल या अल्प काल में सुख दे सकती हैं। इंद्रियों के सुख उनमें प्रधान हैं। मनुष्य का मन जब तक इन नन्हीं–नन्हीं इच्छाओं में फंसा रहता है तब तक न उसकी शक्ति प्रकट होती है, न मनुष्य जीवन की उपयोगिता, इसलिए यह आवश्यक है कि हम आध्यात्मिक जीवन का भी चिंतन किया करें। वैराग्य ऐसे ही चिंतन का नाम है जिसमें हम लोकोत्तर जीवन की कल्पना और सत्य जाने का प्रयास करते हैं। मन, बुद्धि, चित्त आदि शक्तियां मिली भी मनुष्य को इसलिए हैं कि मनुष्य अपना पारमार्थिक उद्देश्य हल कर सके।

भगवान् कृष्ण ने भी गीता में वैराग्य को मनोनिग्रह का उपाय बताया है। महर्षि पातंजलि ने योगशास्त्र में ‘अभ्यास वैराग्याभ्यां तन्निरोधः’-‘वैराग्याभ्यास से मन का निरोध होता है’- यह सूत्र लिखा है। अभ्यास से उद्धत मन वश में होता है, वैराग्य से उसे निर्मल, कोमल और शांत बनाया जा सकता है।

हुआ यह है कि हमने अपने जीवन को बहिर्मुखी बना लिया है। उतना ही सोचते हैं जितना व्यक्त है, दिखाई देता है, पर बहुत कुछ ऐसा भी है जो दिखाई नहीं देता पर उसका स्वरूप है। वह शाश्वत सत्य भी है। अनेक वस्तुएं ऐसी हैं जिनसे इस जीवन में वैभव और इंद्रिय भोग का सुख दिखाई देता है। पर जन्म-मरण का भय, प्रियजनों का बिछोह, खांसी, बुखार-बीमारी, कटुता-कलह, अत्याचार, भय, विद्वेष, प्राकृतिक प्रकोप यह सब मनुष्य के बहिर्मुखी जीवन का गतिरोध करते हैं, आवश्यक है कि इनसे मनुष्य क्षुब्ध हो और दुःख अनुभव करे। इन संपूर्ण अभावों से परे जो सनातन आनंद की स्थिति है वह कैसे प्राप्त हो? जन्म–मृत्यु का बंधन और भय कैसे मिटे? शरीर से परे यह जो आत्मा है जो चलता, हिलता, डुलता, बोलता है उसकी उपलब्धि कैसे हो? यह ऐसे प्रश्न हैं जिन पर विचार करके मनुष्य अपने मन को अंतर्मुखी बना सकता है। वैराग्य का यही स्वरूप भी है कि मनुष्य जितना लौकिक सुख-साधनों का चिंतन करता है उससे अधिक अमरत्व का शाश्वत सुख और सनातन स्वरूप का भी चिंतन करे।

आध्यात्मिक चिंतन आत्म-कल्याण के लिए उपयोगी ही नहीं आवश्यक भी है। किन्तु लौकिक वासनाएं और इच्छाएं भी तो इतनी  जल्दी नहीं मिटती। ईश्वर का भजन करने बैठिए, हाथ चलेगा, माला घूमेगी, मंत्र जाप भी होगा किन्तु मन जिसे ईश्वर के प्रकाश की ओर गमन करना चाहिए था वह तो बार-बार अपनी प्रिय वस्तुओं, ऐच्छिक इंद्रियों के विषय-भोगों की ओर लपटें लेगा। कठोर संयम और तितिक्षाओं से मन को दंडित कर इस तरह भटकने से रोकने का भी विधान है किन्तु जिस प्रकार दंड से जानवर और भी क्रुद्ध और हिंसक बनते हैं, उसी प्रकार मन भी चोट खाकर विद्रोह करता है। मन वस्तुतः हमारा शत्रु नहीं है उसे यदि पुचकार कर मित्रतापूर्वक सलाह दी जाये अर्थात् प्रेमपूर्वक यह बताया जाये कि भाई! यह ऐन्द्रिक सुख तुम कब तक भोग सकोगे? कब तक क्रोध, मोह, लोभ, संग्रह, व्यभिचार और अनाचार में पड़े रहकर अपने किए कर्म के दुःख की फसल बोते रहोगे? भाई, कुछ ऐसा काम करो जिससे पग-पग पर होने वाली ईर्ष्या, अपमान, शोक, बीमारी, कलह की कुंठाओं से छुटकारा मिले। आखिर यह जीवन भी कितने दिन चलेगा? यह युवावस्था कब तक रहेगी? शरीर ढलेगा ही, मृत्यु होगी ही। क्यों न अमरत्व की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करें, क्यों न अपने को परमात्मा की प्राप्ति की दिशा में अग्रसर करें।

यह विचार मन के समर्थन में न आयें ऐसा संभव नहीं। मन जैसा मित्र नहीं। आखिर वह भोग भी तो आत्मतृप्ति के लिए ही करता है। जितना ज्ञान, विवेक और विचारशक्ति होती है उतने क्षेत्र में वह आत्म-सुख ही तो ढूंढ़ता है। यदि अपना ज्ञान बढ़ाकर उसे बड़े सुख, उच्च आध्यात्मिक लक्ष्य का ज्ञान कराया जा सके तो वह उधर भी हंसी-खुशी से चल देगा। स्वामी विवेकानंद, रामतीर्थ, शंकराचार्य, दयानंद आदि को भी उत्कृष्ट जीवन की ओर प्रेरित करने वाले उनके मन ही थे। मनोबल जगाया जा सके, उसे मित्र बनाया जा सके तो जो काम कठिन तपश्चर्या से संभव नहीं हो पाता वह क्षण भर में मन के सहयोग से सफल हो सकता है।

अवगुणी मन को सद्गुणी बनाने के लिए विवेकशील होना आवश्यक है। विचार, विवेक और वैराग्य वस्तुतः एक ही क्रम की अनेक शृंखलाएं हैं। विचार का अर्थ है मन को स्थिर न रहने देता, आलसी न होने देना। जब वह स्थिर होता है तभी भोग की, काम की इच्छा जागती है। इसलिए एक पर एक विचार उठाना चाहिए। यह संभव नहीं कि अधिक अभ्यास से पूर्व ही मन में अच्छे विचार आने प्रारंभ हो जायें। अब तक जैसा जीवन क्रम रहा है और पूर्वजन्मों में जो प्रवृत्तियां रही हैं वह भी दबाए नहीं दबतीं पर उन्हें काटा आसानी से जा सकता है। अच्छे विचारों का ग्रहण और बुरों का त्याग यही विवेक है। मुझे यहां से चलकर अमुक स्थान पर अमुक भोग भोगना चाहिए, यह एक विचार हुआ। यदि उसे स्वतंत्र रखा जाता तो वह उसी दिशा में कल्पना करता—‘‘उस स्थान तक इतने समय में पहुंचना है, यह वस्तु वहां मिलेगी, यह आवश्यक होगी, तब यह भोग उपलब्ध होगा आदि। पर यदि मूल विचार के साथ ही रुख बदल दिया जाये तो मन का बुराई से बचना संभव हो जाय। वहां सोचना चाहिए—‘‘उससे यह बीमारी संभव हो सकती है। स्वास्थ्य गिरेगा, धन व्यय होगा तो दूसरे आवश्यक कार्यों में परेशानी आयेगी, उसकी अपेक्षा यह थोड़ा सा समय है, इसे क्यों न किसी उत्पादक कार्य में लगायें? घर की सफाई, कपड़ों की सिलाई कर डालें, बागवानी करें, काई उद्योग करें आदि।’’ रचनात्मक दिखा में जब मन काम करने लगता है तो ऐसी अनोखी बातें सूझती हैं कि आश्चर्य होता है। दरअसल लोग मन की ताकत को पहचानते नहीं अन्यथा यदि उसे रचनात्मक दिशा दी जा सके तो अर्थ, उद्योग, शिक्षा, रोजगार अथवा नेतृत्व की दिशा में वह अनोखी सफलतायें और चमत्कारी उपलब्धियां प्रस्तुत कर सकता है।

आपका मन सोया पड़ा है, इसे सावधान कर दें, जगा दें। रचनात्मक विचारों की चिल्लाहट से इसे शांत न होने दें। यह आपके लिए वह भौतिक सफलतायें भी प्रस्तुत करेगा जिनकी आप इस जीवन में कामना करते हैं।

विचार और विवेक की इसी दिशा में जब आत्मा के रहस्य अनुभव करने की ओर इसे संयोजित कर दिया जाता है तो वैराग्य का अभ्यास होने लगता है। अंतर्जगत में जो प्रतिक्रियाएं चला करती हैं बाह्य जगत में उन्हीं को मन क्रियान्वित किया करता है। मनुष्य यदि यह जान ले कि बाह्य जगत के हमारे समस्त प्रयास मनोजगत की प्रेरणा से हमारे अहंकार को सक्रिय करने का ही परिणाम हैं, तो यह एक बहुत बड़ी बात होगी। इतना आभास होते ही मन और अहंकार एक तमाशे जैसे दिखाई देने लगते हैं और एक तीसरी सत्ता की अनुभूति होने लगती है। मन का बिचौलियापन सिद्ध हो जाये तो फिर यह समझते देर न लगे कि हम आत्मा हैं और शरीर धारण का हमारा लक्ष्य भिन्न है। यह भिन्नता का भाव ही महत्व का है।

वह तत्व हमारे अंदर बैठा है जिसके न रहने पर यही शरीर शव कहलाने लगता है। वह तत्व ही आत्मा है, चाहें तो उसे ही परमात्मा कह सकते हैं। विचार और विवेक द्वारा जब उसकी अनुभूति हो जाये तो सांसारिक तृष्णाओं, इच्छाओं और धारणाओं को हटाकर तत्व चिंतन की दिशा में अग्रसर करने का अभ्यास किया जा सकता है। जितना प्रखर यह अभ्यास होगा वैसा ही वैराग्य, पारलौकिक जीवन के प्रति संवेदना का भाव भी जागृत होने लगेगा। जब यह सिद्ध हो जायेगा, मन यह स्वीकार कर लेगा कि परलोक ही सत्य है, आत्मा ही अमरत्व है तो फिर मन से झंझट करने की आवश्यकता ही न रहेगी, वह आपका मित्र बन जायेगा।

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