मन की प्रचंड शक्ति

मानसिक शांति इस तरह बर्बाद न करें

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अपने को दीन-हीन और दुखी मानकर रोते रहना, दिन-रात चिंता करते रहना अनाध्यात्मिक वृत्ति है। मानवता का अपमान और आत्मा का तिरस्कार है। जिस मनुष्य को आत्मा जैसा प्रसाद मिला हो, बुद्धि और विवेक जैसा पुरस्कार मिला हो, क्षमताओं और विशेषताओं से भरा सुंदर-सुगढ़ शरीर मिला हो वह मनुष्य दीन-हीन कैसे हो सकता है। दीनता-हीनता का अनुभव करना मनुष्य की अपनी मानसिक न्यूनता के सिवाय और कुछ नहीं है।

अपने को दीन-हीन मानकर चलने वाले प्रायः जान या अनजान में नास्तिकता के अंधकार की ओर बढ़ जाते हैं। निराश, चिंतित और अप्रसन्न रहना स्वयं ही एक नास्तिकता है। आस्तिक व्यक्ति हर दशा और हर स्थिति में प्रसन्न, संतुष्ट उल्लसित रहते हैं। वे जानते हैं कि दीन-हीन और मलिन रहने से आत्मा का तेज नष्ट होता है। उसका विश्वास उठ जाता है, जो एक प्रकार से आत्महत्या ही है। आत्महत्या जैसा निकृष्ट तथा पापपूर्ण कार्य सिवाय नास्तिक के और कौन करेगा। अपनी स्थिति में संतुष्ट और प्रसन्न रहने का आस्तिक भाव रखने वाले सोचते हैं कि परमात्मा जो कुछ करता है, अच्छा ही करता है। उसके लिए दुख-सुख में मनुष्य का कल्याण ही निहित रहता है। उसका कोई भी कार्य प्रयोजन अथवा मंतव्य से रहित नहीं होता। प्रसन्नचेता व्यक्ति की परिष्कृत विचारधारा इसी प्रकार चलती है।

वह सोचता है कि हो सकता है हमें गरीबी देकर परमात्मा हमारे धैर्य और संतोष की परीक्षा ले रहा हो। हो सकता है वह हमारे पूर्व कर्मफलों को शीघ्रता से भुगता रहा हो। हो सकता है कि हमारे लिए वह धन-संपत्ति की प्रचुरता को अहितकर समझता हो। हो सकता है कि मुझे धनहीन बनाने में उसका यह मंतव्य छिपा हो कि मैं निरभिमान और निरहंकार रहूं। भुक्तभेागी होकर गरीबों की पीड़ा जानने का ज्ञान प्राप्त कर सकूं और उनकी सेवा-सहायता और संवेदना का पावन भाव प्राप्त कर सकूं। हो सकता है, उसने हमें अधिकाधिक परिश्रमी, पुरुषार्थी, कर्मठ और सहनशील बनाने के लिए यह गरीबी और यह अभाव दिया हो।

अपनी स्थिति के विषय में इस प्रकार की आस्तिक एवं आध्यात्मिक विचारधारा रखने वाले कभी दुखी नहीं होते। उनका आत्मविश्वास बढ़ता ही जाता है। वे अधिकाधिक परिश्रमी, दयालु और उदार बन जाते हैं। प्रतिकूल अथवा विषम परिस्थितियां निश्चय ही उन्हें दीन-हीन नहीं बना पातीं। ऐसे दृढ़ आत्म एवं परमात्म-विश्वासी जीवन की कठिन से कठिन परीक्षा में उत्तीर्ण होकर एक दिन अवश्य ही सुख-सौख्य के अधिकारी बनते हैं, परमात्मा की कृपा पाते और आत्मा के प्रकाश से चमत्कृत होते हैं।

नास्तिक भाव से अपनी परिस्थितियों का रोना रोते रहने वालों का कभी उद्धार नहीं होता। उसके अनेक मोटे-मोटे कारण हैं। एक तो यह कि अपने मन, मस्तिष्क को परिस्थितियों की प्रतिकूलता को समर्पित कर उसकी चिंता करते रहने से सारी मानसिक क्षमताओं का क्षय हो जाएगा। मनुष्य निर्बल और निकम्मा बन जाएगा। चिंता और निराशा का जन्म होगा। निराशा तो अंधकार होती ही है। अंधेरे में अटकते-भटकते रहने वाले व्यक्ति आज तक न उठ पाए हैं और न आगे उठ पाएंगे।

मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि मनुष्य के अपने भावों और विचारों के अनुसार ही उसके आसपास का वातावरण निर्मित होता है। अप्रसन्न भावों वाला व्यक्ति जहां जाएगा अपने लिए अप्रसन्नता ही पाएगा। निराश विचारों के साथ विचरण करने वाले निराशा के सिवाय कुछ भी संचय नहीं कर सकते। अंतर के भाव मनुष्य के मुख, वाणी और क्रियाओं में प्रकट होते रहते हैं। चिंतित और निराश रहने वाले लोगों के मुख पर उदासी, वाणी में अनाकर्षक और क्रियाओं में अस्त-व्यस्तता समाई रहती है। ऐसे मलिन और अर्द्धविक्षिप्त व्यक्ति से न तो कोई संपर्क करना पसंद करता है और न सहयोग। उसके लिए सभी ओर नापसंदी का वातावरण बना रहता है। ऐसे बहिष्कृत व्यक्ति को अपने उद्धार की ओर से निराश ही रहना पड़ेगा।

अपने अभावों और विषमताओं पर रोते रहने के अभ्यासी लोगों का अपने पर से ही नहीं परमात्मा पर से भी विश्वास उठ जाता है। वह सोचता है कि परमात्मा बड़ा अन्यायी और क्रूर है। उसने हमें यह परिस्थिति देकर अन्याय किया है। उसने हमारे भाग्य में दरिद्रता और दैन्य लिखकर अपनी क्रूरता का परिचय दिया है। ऐसे निर्दयी और अन्यायी परमात्मा पर विश्वास करना उसकी पूजा, उपासना करना व्यर्थ है। ऐसे अन्यायी और क्रूर परमात्मा का तो बहिष्कार हो जाना चाहिए। हीनमना व्यक्ति इस प्रकार निराश होकर जीवन का एक बहुत बड़ा संबल और धैर्य का एक बहुत बड़ा आधार खो देता है। ऐसा करके वह उस सर्वशक्तिमान का तो कुछ बिगाड़ नहीं पाता, केवल अपना ही आत्मिक विनाश कर लेता है। ऐसे परमात्मा के विरोधी नास्तिक व्यक्ति की आत्मा उसे छोड़ देती है और फिर किसी भी आपत्ति अथवा अंधकार में उसे प्रकाश की एक किरण भी नहीं दिखाई देती।

यही क्यों, इस प्रकार का निराश, नास्तिक अपनी और भी बहुत-सी हानियां कर लेता है। एक तो अपनी स्थिति का दोष परमात्मा पर मढ़ने से उसकी प्रवृत्ति पुरुषार्थ की ओर नहीं होती। वह पड़ा-पड़ा भाग्य अथवा भाग्य निर्माता को कोसता रहता है और यदि कुछ करता भी है तो असफलता और निराशा के भाव से। निदान उसके कर्तव्य में न तो दक्षता आ पाती है और न सार्थकता। सारा किया-कराया व्यर्थ चला जाता है। इस प्रकार या तो ऐसा व्यक्ति निराश नास्तिक निकम्मा बन जाता है अथवा प्रतिक्रिया से प्रेरित होकर भयानक रूप से, धन के लिए अनुचित एवं अनैतिक मार्गों का अवलंबन कर लेता है। निर्धनता से आघातित होकर धन के लिए नर से नर-पिशाच बन जाता है। ठगी, मक्कारी, शोषण ही नहीं उसे चोरी, लूट और हत्याएं करने में भी संकोच नहीं रहता। आत्मा और परमात्मा से बहिष्कृत व्यक्ति की यह दशा हो जाना निश्चित ही मानना चाहिए।

संसार में धन आवश्यक तो है किन्तु स्पृहणीय कदापि नहीं। धन से स्पृहा होने के दो कारण हैं। एक लोभ और दूसरा ईर्ष्या। लोभ की तो कोई सीमा होती ही नहीं। सौ से बढ़कर वह हजार पर पहुंच जाता है, हजार से लाख पर और लाख से करोड़ों पर जा पहुंचता है। इस वृत्ति से न तो विराम होता है और न पर्याप्तता। लोभ ग्रसित व्यक्ति को यदि संसार का सारा धन-वैभव दे दिया जाय तो भी वह संतुष्ट नहीं होगा। उसे कमी ही दीखती रहेगी। लोभ में प्रसार का एक और भी बड़ा दोष होता है। इसको जितना संतुष्ट किया जाता है, यह उतना ही बढ़ता जाता है और अंत में लोभी को आमूल नष्ट करके ही ठंडा पड़ता है।

ईर्ष्यालु व्यक्ति भी जीवन में संतोष से वंचित रहता है। ईर्ष्यालु व्यक्ति के पास यदि पर्याप्त साधन होते भी हैं, तब भी दूसरों के प्रति ईर्ष्या और स्पर्धा के कारण उसे वे कम ही मालूम होते हैं। वह जब भी किसी दूसरे की स्थिति अपने से अच्छी देखता है, तभी अपने को गरीब, दीन-हीन अनुभव करने लगता है। यही नहीं, यदि वह किसी को नीचे से ऊपर उठते देखता है, तब भी जलने लगता है और सोच उठता है कि यदि यह अवसर जो अमुक व्यक्ति को मिल रहे हैं, मुझे मिल जाते तो बड़ा अच्छा होता। ऐसे अभागे व्यक्ति जीवन में स्थायी शोक-संतापों के सिवाय और क्या पा सकते हैं? यदि धन की एषणा और उसके दोषों से बचना हो तो लोभ और ईर्ष्या के पिशाच से अपने को मुक्त करना ही होगा।

अपने को दीन-हीन मानकर असंतुष्ट, निराश और चिंतित रहने का कोई कारण मनुष्य के पास नहीं है, सिवाय इसके कि यह उसकी अपनी मनोहीनता ही होती है। मनुष्य परमात्मा का अंश आत्मावान प्राणी है। उसके भीतर शक्तियों, क्षमताओं और आनंदों का भंडार भरा हुआ है। आनंद, सुख, संतोष और संपन्नता, धन, वैभव, संपत्ति और संपदा बाह्य उपादानों में नहीं है। वे तो मनुष्य की आत्मा में निवास करने वाले दैवी भाव हैं। यदि इनका निवास बाह्य साधनों में होता तो संसार के हर धनवान और संपत्तिशील व्यक्ति को सुखी संतुष्ट और आनंदित होना चाहिए, जबकि ऐसा होता कदापि नहीं। वे भी गरीबों और अभावग्रस्तों की तरह ही दुखी और निरानंद देखे जाते हैं।

सुख, संतोष और संपन्नता का निवास आत्मा में है। इनके लिए मनुष्य को आत्माभिमुख ही होना चाहिए। जो अपने अंदर जाकर आत्मा को खोजेगा, वह आनंद अवश्य पाएगा, इसमें संदेह नहीं। संसार में सबसे अधिक सुखी, संतुष्ट और आनंदित रहने वाले ऋषि-मुनि शायद साधनों के नाम पर सबसे ज्यादा गरीब रहते थे। वृक्ष की सूखी डालों और पत्तों से बनी कुटी, पत्तों और छालों के चीवर और कंद-मूल, फल-फूलों का भोजन बस इसके सिवाय उनके पास कौन से रत्न, रेशम अथवा व्यंजन होते थे। तब भी वे कितने तुष्ट, सुखी और संपन्न रहते थे। इसका एकमात्र कारण यही था कि वे बाह्य वैभव की स्पृहा नहीं करते थे, वे अपने आनंद को उसी आत्मा में खोजते और पाते थे, जिसमें उसका वास्तविक निवास होता है।

जो मनुष्य आज मनुष्य रूप में स्थित है, उसने पहले चौरासी लाख निकृष्ट योनियों की दैनीयता का भोग किया है। तरह-तरह के ऐसे त्रास पाए हैं, जिनको दूर करने का न तो उसके पास उपाय था और न अधिकार। उन चौरासी लाख भोग योनियों का बंदीगृह काटकर इस कर्मयोनि में, जिसमें वह अपना भाग्य ही आप नहीं बना सकता, बल्कि आनंद कंद सच्चिदानंद परमात्मा को पा सकता है, आकर अपने को दीन-हीन माने तो इसे आश्चर्य ही माना जाएगा।

इतना ही क्यों, यदि इस आध्यात्मिक तथ्य को छोड़ दें तब भी तो मनुष्य के लिए अपनी स्थिति से दुखी और असंतुष्ट होने का कोई कारण नहीं है। जो अपनी स्थिति में दुखी हो रहा है, उसे सोचना चाहिए कि क्या उसकी स्थिति संसार में सबसे गई-गुजरी है? क्या उस जैसी अथवा उससे खराब स्थिति में और कोई नहीं है? यदि ऐसा हो तब तो एक बार माना जा सकता है कि उसके खेद करना ठीक है। किन्तु ऐसा होता कदापि नहीं। यह असंभव है।

संसार में एक से एक बढ़कर धनवान और एक से एक बढ़कर गरीब और अभावग्रस्त पड़े हैं। अपनी स्थिति पर असंतुष्ट रहकर रोने से पहले मनुष्य को अपने से गए-बीते और गरीब लोगों की ओर देखना चाहिए। उसे संतोष करना चाहिए और उस परमपिता परमात्मा को शतशः धन्यवाद देना चाहिए कि यदि उसने सौ से गिरी स्थिति मुझे दी है तो हजारों से अच्छा भी बनाया है। संसार में एक से एक भयानक स्थितियां हो सकती हैं, जिनमें मनुष्य का एक क्षण जीवित रहना कठिन हो जाय, परमात्मा का आभार मानना चाहिए कि उसने आपको उस भयावह, असहनीय और घातक स्थिति में न रखकर ऐसी स्थिति में रखा है, जिसमें आप अपने पर विचार कर पा रहे हैं, गलत-सही किन्तु परमात्मा को कोस पा रहे हैं। यह कम नहीं है कि आप अभी उस स्थिति में हैं, जिसमें आपकी चेतना, आपके विचार और आपकी अनुभव शक्ति सुरक्षित है अन्यथा संसार में ऐसी स्थितियां भी हैं, जो पागल, विक्षिप्त, पंगु, गूंगा, अपाहिज और शून्य कही जाती हैं। अपनी स्थिति पर संतोष करिए, आगे बढ़ने के लिए पुरुषार्थ करिए और परमात्मा को धन्यवाद दीजिए कि उसने आपको मनुष्य बनाकर बड़ा भारी अनुग्रह किया है।

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