अविकसित मनुष्य को सुख की आकांक्षा रहती है और वह उन्हीं के साधनों को ढूंढ़ने-संजोने में लगा रहता है चेतना की दृष्टि से विकसित स्तर ऊंचा उठा होता है और उसे इतने से समाधान नहीं मिलता। उसे अपने विकसित स्तर के अनुरूप परिस्थितियां चाहिए, उसकी आकांक्षा आनंद पाने की होती है। इसके बिना उसे अतृप्ति और अशांति ही बनी रहती है।
सुख इंद्रियजन्य है और पदार्थों के संपर्क से मिलता है। जिह्वा को स्वाद चाहिए, मूत्रेन्द्रिय को घर्षण संवेदना, उसकी तृप्ति अभीष्ट प्रयोजन पूरा करने वाले पदार्थ, शरीर मिल जाने से ही हो जाती है। तृप्ति के क्षण सुखद लगते हैं, पर इससे पूर्व और पश्चात जलन एवं पश्चाताप की मनःस्थिति बनी रहती है। जब तक अभीष्ट वस्तु न मिले तब तक उसकी अभिलाषा इतनी उद्दीप्त रहती है जिसे लगभग बेचैनी ही कहा जा सकता है। स्वादिष्ट पकवान जिन त्यौहारों और दावतों में मिलने हैं, जिस होटल में जाकर खाए जाने हैं उनके लिए प्रतीक्षा में जो समय लगता है, उसमें उत्सुकता और ललक ही उभरी रहती है और मन अशांत बना रहता है। जितने क्षणों में वे स्वादिष्ट वस्तुएं खाई जाती हैं, उतनी देर संतोष मिलता है। पेट भर चुकने के बाद अरुचि हो जाती है और परोसने वाले का आग्रह अस्वीकार करना पड़ता है। आतुरता में स्वभावतः कुछ अधिक खा लिया जाता है ऐसी दशा में पेट गड़बड़ाने लगता है और दूसरी बार उस कष्ट को याद करके स्वादिष्ट पकवान की अपेक्षा हल्की और बिना स्वाद की वस्तुएं खाने की व्यवस्था बनानी पड़ती है। उस भारी आहार को टालना पड़ता है। न मिलने से पूर्व आतुरता और मिलने के बाद घृणा, असंतोष यही प्रतिक्रिया सुख साधनों में से प्रत्येक के संबंध में प्रस्तुत होती है।
इन्द्रिय सुखों में दूसरा है—काम सुख। जननेन्द्रिय की तृप्ति का भी यही हाल है। मुद्दतों पहले रंगीन सपने मस्तिष्क में घुमड़ते हैं। संभव असंभव का विचार किए बिना बहुरंगी स्वप्न परियां मस्तिष्क के इर्द-गिर्द उड़ती रहती हैं। वह जलन और आतुरता का समय है। संयोग के कुछ क्षण मादक भी हो सकते हैं। इसके उपरांत शरीर और मन में जो शिथिलता आती है, उससे दूसरा आग्रह अस्वीकार करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं रहता। उन्माद का आवेश उतर जाने पर यह भी प्रतीत होता है कि जीवन रस की मात्रा इस तरह नष्ट होते जाने से असमय में ही वृद्धता, रुग्णता तथा अकालमृत्यु का वरण करना पड़ेगा। थोड़ी भी समझदारी जीवित रही तो इस प्रकार का पश्चाताप निश्चित रूप से उग्र होगा। पत्नी का स्वास्थ्य खराब करने और बच्चों का अनावश्यक भार लादने की बात भी कभी न कभी सूझती ही है। तब प्रतीत होता है कि कुछ क्षणों की मादकता के लिए कितना अनर्थ कर गुजरते हैं। सामयिक धिक्कार तो कष्ट देता ही है। प्रतिक्रिया के फलस्वरूप जब अपना और पत्नी का स्वास्थ्य बिगड़ता है, बढ़ी हुई गृहस्थी की जिम्मेदारियां वहन करने में जो आर्थिक और मानसिक कठिनाइयां सामने आती हैं वे भी ऐसी आत्म-ग्लानि उत्पन्न करती हैं जो विषय सुख के कुछ क्षणों की तुलना में बहुत ही महंगी और भारी पड़ती हैं।
सुख की आकांक्षा ठाठ-बाठ की, सजधज की, खर्चीली अमीरी की विडंबनाएं रचने के लिए बाध्य करती हैं। दूसरे लोग हमें धनवान सुसंपन्न और बड़ा आदमी समझकर प्रभावित-आतंकित हों, इज्जत प्रदान करें, इसी अभिलाषा से अनावश्यक वस्तुएं इकट्ठी करनी पड़ती हैं और धनिकों जैसी शान-शौकत का ठाठ जमाना पड़ता है। यह कितना महंगा और खर्चीला पड़ता है इसे भुक्तभोगी ही जानता है। मस्तिष्क की कुशलता और आर्थिक सुविधा का अधिकांश इसी जंजाल में खर्च हो जाता है, यहां तक कि कर्ज लेने और बेईमानी करने के लिए भी बाध्य होना पड़ता है। शान-शौकत अच्छी जरूर लगती है पर वह कितनी महंगी पड़ती है इसे देखा जाय तो प्रतीत होगा कि जिन साधनों को उपयोगी दिशा में नियोजित करके अपना, परिवार का, समाज का भारी हित साधन किया जा सकता था उन्हें लगभग पूरी तरह अहंकार को तृप्ति देने के लिए जुटाए जाने वाले साधनों में ही समाप्त कर दिया गया।
सुख की परिभाषा में अपने लिए उपयोगी स्नेह-संबंधों को बढ़ाने की आकांक्षा भी आती है। इस आवश्यकता की पूर्ति अविकसित स्तर के लोग पुत्र प्राप्ति के साथ जोड़ते हैं। उनकी मान्यता रहती है कि जो अपने रक्त से पैदा होगा वही हमारी सहायता करेगा, सुख देगा, वही वफादार होगा। चूंकि कन्याएं समर्थ होने पर दूसरे घर चली जाती हैं, सहायता देने का सपना पूरा नहीं करतीं इसलिए बुरी लगती हैं। कन्याओं की तुलना में पुत्र का अच्छा लगना इसी दृष्टिकोण पर अवलंबित है कि विश्वस्त और चिरस्थाई सेवक, सहायक उपलब्ध हो सके। संतान न होने पर घर सूना लगने का और कोई कारण नहीं, केवल वह क्षुद्रता ही एकमात्र निमित्त है जिसमें विश्वस्त मित्र पाने की अभिलाषा उद्दीप्त रहती है। किन्तु मोहग्रस्त मनोभूमि में वैसा ही कहां बन पड़ता है। हमारे स्वार्थों का घटाटोप बालकों के मन पर सहज ही प्रभाव डालता रहता है। बड़े होने पर वे पक्के स्वार्थी निकलते हैं और पिता की सेवा करने की अपेक्षा अपने स्त्री-बच्चों में निरत हो जाते हैं। बूढ़े बाप के पास जो कुछ हो उसे झटक लेने के उपरांत वे यही चाहते हैं कि जितनी जल्दी यह बूढ़ा खूसट मौत के मुंह में चला जाय उतना ही अच्छा। सेवा-सहायता और वफादारी संतानों से पाने का स्वप्न अधिकांश लोगों का धूल धूसरित होता ही सामने आता है।
अविकसित लोगों की सुख लिप्सा जिन उपाय-आधारों को अपनाने के लिए बाध्य करती है वे सभी थोथे सिद्ध होते हैं। उनका आरंभ जलन के, अतृप्ति और अशांति के साथ होता है और अंत ऐसी स्थिति में होता है जिसे निराशा, खीज, पश्चात्ताप एवं ग्लानि का ही नाम दिया जा सकता है। सुख की आकांक्षा ही मनुष्य को धन उपार्जन, इंद्रिय सेवन, संतानोत्पादन तथा ठाट-बाट जमाने, वाहवाही लूटने के लिए प्रेरित करती है। जन-साधारण को इन्हीं प्रयोजनों में लगा हुआ भी देखते हैं। पर प्रतीत होता है कि किसी का मनोरथ पूरा नहीं होता, हर किसी को मृगतृष्णा में भटकने जैसी निराशा ही लेकर विदा होते देखते हैं।
धन की लालसा कितनी तीव्र होती है? योग्यता, परिस्थिति और साधनों का अभाव रहते हुए भी प्रचुर मात्रा में धन कमाने की अभिलाषा के लिए एकमात्र उपाय बेईमानी ही रहती है। इससे भी आकांक्षा कहां पूरी हो पाती है? जो कमाया जाय वह भी आत्मग्लानि भरा होता है, पाप की प्रतिक्रिया सामाजिक असम्मान, राजदंड और ईश्वरीय न्याय के रूप में भी आती है। उसके भय से अंतरात्मा को मुक्ति नहीं मिल सकती। इस प्रकार अनीति की कमाई से वैभव भले ही बढ़ जाय किन्तु अंतः करण में ऐसी जलन और अशांति बनी रहती है जिसे तथाकथित धनीमानी व्यसन और व्यभिचार की आड़ लेकर दबाने का प्रयत्न करते हैं। नशाघरों, क्लबों में, होटलों में वे आत्मा की अतृप्ति को झुठलाने के लिए ही जाते रहते हैं। इसमें भी सफलता उन्हें कुछ क्षण के लिए ही मिलती है। स्वाभाविक अशांति बार-बार उभर आती है और मानसिक स्तर को विकृत-विक्षिप्त जैसा बना देती है। धनियों के उद्धत स्वभाव और उद्धत आचरण का सहन-समर्थन करने के लिए चापलूस मुसाहिबों की भीड़ साथ में चिपकी रहती है। उन्हीं से उन्हें थोड़ी राहत मिलती है अन्यथा स्पष्ट वक्ता समीक्षकों के साथ रहने पर तो वे अपने को अर्द्धविक्षिप्त ही अनुभव कर सकते हैं। अनीति उपार्जित वैभववानों की यह दुर्गति कहीं भी बड़ी आसानी से देखी जा सकती है।
जहां धन एकत्रित होता है, वहां घात लगाने वालों की चांडाल चौकड़ी एकत्रित होने लगती है और फिर उसके मृदुल-कटुक दाव-पेंच सामने बिछे देखकर मनुष्य शतरंज जैसी उलझन में फंस जाता है। सरकारी टैक्स अधिकारी, चंदा खाऊ रिश्तेदार और मित्र, चोर और गुंडे न जाने कितनी तरह की तरकीबें लड़ाकर धन अपहरण करने के जाल बिछाते हैं। यह घातें इतनी जटिल, मृदुल, बहकावे, छल-आतंक की धमकी आदि के चक्रव्यूहों से भरी होती है कि फिर दिए बिना कोई रास्ता ही नहीं रह जाता। इच्छा से नहीं अनिच्छा से देना पड़ता है, स्वेच्छा से नहीं मजबूरी ही सामने होती है। पैसे को कमाना जितना कठिन है उससे हजार गुना कठिन उस संग्रह को सुरक्षित रखना है। सदुपयोग करने लायक विवेक-बुद्धि न होने पर उसका दुरुपयोग हो सकता है। अनुपयोग की स्थिति में भी तो नष्ट ही होकर रहता है।
अविकसित मनःस्थिति वाले व्यक्ति की गतिविधियां इन्हीं विडंबनाओं में केन्द्रीभूत रहती हैं। वह इन्द्रियभोग, कुटुंबवर्द्धन, धन संग्रह अहंता के परिपोषण के अतिरिक्त और कहीं सुख अभिलाषा की मूर्ति देखता ही नहीं, सो इन्हीं में निरत रहता है। मनोरंजन के लिए उसे व्यसन और व्यभिचार के उद्धत आचरण ही अपनाने पड़ते हैं। चिंतन, निर्णय और दृष्टिकोण में विकृति भरी रहने के कारण दिशा ठीक बन ही नहीं पाती और सुख अभिलाषा की पूर्ति के लिए किए गए समस्त कार्य प्रायः दुःखदायक ही सिद्ध होते हैं। अभिलाषा पूरी न होने तक आतुर-व्याकुलता कष्ट देती है। पूर्ति के कुछ क्षण हड़बड़ी में बीतते हैं संतोषपूर्वक तृप्ति के क्षणों का भी आनंद ले सकना संभव नहीं होता। पूर्ति के पश्चात संचय एवं उपयोग का इतना अधिक वजन बढ़ता है कि गर्दन टूटने लगती है तथा रीढ़ चरमराने लगती है। सरल-स्वाभाविक जीवन का आनंद न जाने कहां चला जाता है। कृत्रिमता का, अनावश्यक उत्तरदायित्वों का बोझ इतना भारी पड़ता है कि उसे वहन करते करते भारवाही बैल, घोड़े या गधे से भी दयनीय स्थिति में जा फंसते हैं और उसी जंजाल में मरते, खपते, दम तोड़ते हैं।
भोग को भोगने की आकांक्षा तृप्त कहां होती है, वे भोग ही मनुष्य को भोग लेते हैं और निचोड़े हुए नीबू के छिलके की तरह मानव जीवन के सुर दुर्लभ सौभाग्य को कूड़े-कचरे के गर्त में ले जाकर फेंक देते हैं। दाद खुजाने में कष्ट भी होता है, एक विशेष तरह का मजा भी आता है। कुत्ता सूखी हड्डी चबाता है और उसके घर्षण से अपने ही मसूड़े से निकलने वाले रक्त को पीकर सोचता है हड्डी में से खून निकला और उसे पीकर लाभ कमाया। पर वस्तुतः इससे विपरीत ही है, वह पाता कुछ नहीं, सूखी हड्डी चबाकर खोता ही खोता है। सूखी हड्डी के टुकड़े उसके पेट में जाकर पोषण नहीं दर्द ही प्रदान करते हैं। सुख अभिलाषा तो ठीक है पर ओछे स्तर अपना कर अविकसित मनःस्थिति के लोग जो रीति-नीति अपनाते हैं उससे उनके पल्ले कुछ नहीं पड़ता। अशांति और असफलता पर पश्चात्ताप करते हुए, सिर धुनते हुए ही वे इस संसार से विदा होते हैं।