गृहलक्ष्मी की प्रतिष्ठा

दो स्वर्णिम सूत्र

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इस स्थिति पर विजय प्राप्त करने के दो मार्ग हैं - प्रथम वह है जो दाम्पत्य जीवन का सच्चा सार है अर्थात यह दृढ़ प्रतिज्ञा और उसका निर्वाह कि हम दोनों पति-पत्नी एकदूसरे का परित्याग नहीं करेंगे, हम, प्रेम, सहानुभूति, त्याग, शील, आदान-प्रदान, सहायता के टूटे हुए प्रत्येक तार को गाँठ लेंगे । हम विश्वास, आशा, सहिष्णुता, अवलंब, उपयोगिता की गिरी हुई दीवार के प्रत्येक भाग की निरंतर प्रयत्न और भक्ति से मरम्मत करेंगे; हम एकदूसरे से माफी माँगने, सुलह और समझौता करने को सदैव प्रस्तुत रहेंगे ।

दूसरा उपाय है- पति-पत्नी की एकदूसरे के प्रति अनन्य भावना । पति-पत्नी एकदूसरे में लीन हो जाएँ, समा जाएँ, लय हो जाएँ, अधीनता की भावना छोड़ स्वभाव की पूजा करें । विवाह का आध्यात्मिक अभिप्राय दो आत्माओं का शारीरिक, मानसिक और आत्मिक संबंध है । इसमें दो आत्माएँ ऐसी मिल जाती हैं कि इस पार्थिव जीवन तथा उच्च देवलोक में भी मिली रहती हैं । यह दो मस्तिष्कों, दो हृदयों, दो आत्माओं तथा साथ ही साथ दो शरीरों का एकदूसरे में लय हो जाना है । जब तक यह स्वरैक्य नहीं होता विवाह का आनंद प्राप्त नहीं हो सकता । विवाहित जोड़े में परस्पर वह विश्वास और प्रतीति होना आवश्यक है, जो दो हृदयों को जोड़कर एक करता है । जब दो हृदय एकदूसरे के लिए आत्मसमर्पण करते हैं, तो एक या दूसरे को कोई तीसरा व्यक्ति बिगाड़ने नहीं पाता है । केवल इस प्रकार ही वह आध्यात्मिक दाम्पत्य अनुराग संभव हो सकता है, जिसका समझना उन व्यक्तियों के लिए कठिन है, जो अपने अनुभव से इस प्रेम और समझौते के, इस पारस्परिक उत्तरादायित्व तथा सम्मान के आसक्ति और आत्मसंतोष के, मानव तथा दिव्य प्रेरणाओं के विस्मयोत्पादक संयोग को जिसका नाम सच्चा विवाह है, नहीं जानते ।
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